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योरप में स्नान, शौचादि के नियम और बाहरी सफ़ाई

yorap mein snan, shauchadi ke niyam aur bahari safai

रामनारायण मिश्र

रामनारायण मिश्र

योरप में स्नान, शौचादि के नियम और बाहरी सफ़ाई

रामनारायण मिश्र

और अधिकरामनारायण मिश्र

    प्रति दिन स्नान करने की आदत रखनेवाले भारतीय जब यूरोप जाएँ तो उन्हें इसके लिए कुछ अधिक व्यय करने को तैयार रहना चाहिए। जहाज़ में तो स्नानागार बने हुए हैं, पारी-पारी से लोग यदि चाहें तो नहा सकते हैं। परंतु, यूरोप पहुँचकर होटलों में नहाने के लिए पैसा देना पड़ता है। लंडन में जहाँ हम ठहरे थे, वहाँ ठंडे पानी से बिना पैसा दिए नहा सकते थे, परंतु गर्म पानी के लिए तीन पेनी एक सूराख़ (Slot) में डालनी पड़ती थी। हमारा काम थोड़े ही गर्म पानी से चल जाता था। कहीं-कहीं हम लोग ठंडे पानी से ही नहा लेते थे। परंतु गर्मी के दिनों में भी वहाँ इतनी सर्दी रहती है कि गर्म ही पानी अच्छा लगता है। ठंडे पानी से नहाने से थोड़ी ही देर में सर्दी मालूम होने लगती है। फ़्रांस में 5 फ्रांक नहाने के लिए और 6 फ्रांक तौलिए के लिए देना साधारण सी बात है। नहाने में हम लोगों का नागा प्रायः कहीं भी नहीं हुआ। होटलों में हम लोग ऐसे कमरे लेते थे जिनमें बहते पानी की कलें होती थी, जिससे अपनी आदत के अनुसार हम लोगों को हाथ धोने, कुल्ला करने और कपड़ा धोने के लिए ख़ूब पानी मिलता था। उससे हम लोग नहाने का भी काम चला लेते थे। यूरोप में 30, 40 वर्ष पहले किसी के घर में भी स्नानागार (Bath) नहीं था। सम्राट् सातवें एडवर्ड के समय में राजकीय महल में सबसे पहले स्नानागार बनवाया गया था। कहीं-कहीं सर्वसाधारण के लिए स्नानागार (Public Baths) थे, जहाँ पैसा देकर गर्मियों में दूसरे तीसरे महीने लोग नहा लिया करते थे। कहा जाता है कि सौ वर्ष पहले 1835 ई० में इंग्लैंड में टामस वाकर नाम का एक आदमी था जो बिलकुल नहीं नहाता था और जो कहता फिरता था कि नहाने ही के कारण उसकी तंदुरुस्ती अच्छी है!

    नहाने के समय लोग प्रायः एक टब में बैठ जाते हैं, जिसमें पानी भरा रहता है। जब हमारे बदन की मैल धुलकर टब के पानी में मिल जाती है, उसमें बैठे रहना हिंदुस्तानियों को पसंद नहीं है, जब तक कि उसमें पानी बदलने का प्रबंध हो। टब में बैठकर मैं पानी आने और पानी निकलने के दोनों रास्ते खोल देता था और लुटिया से सिर पर पानी डालता था। चाँदी की यह लुटिया, जो मैं साथ ले गया था, बहुत काम आई। कहीं-कहीं ऊपर से पानी फुहार द्वारा गिरने का भी प्रबंध रहता है, जिसके नीचे लोग खड़े होकर नहा लेते हैं। अब प्रायः हर एक स्कूल में स्नानागार बनाए जा रहे हैं, जहाँ केवल नहाने का प्रबंध है बल्कि तैरना सिखलाने का भी। लड़के और लड़कियाँ ख़ूब तैरती हैं। बहुत से नगरों में हमें ऐसे स्नानागार मिले, जो खुली जगह (Open Baths) में बने हुए हैं और जहाँ लोग जाकर बिना पैसा दिए नहाते हैं और तैरते हैं। जर्मनी में ऐसे स्नानागार हमें अधिक मिले। हमारा विश्वास है कि 20, 25 वर्ष के अंदर यूरोप में एक भी स्त्री पुरुष ऐसा नहीं मिलेगा, जो तैरना जाने।

    शौचादि के नियम भी वहाँ हमारे नियमों से भिन्न हैं। जहाज़ में पहले ही दिन जब हमने देखा कि दो-चार आदमी निश्चित स्थान पर खड़े होकर पेशाब कर रहे हैं और आपस में बातचीत कर रहे हैं, तब हमारे पैर कुछ पीछे की तरफ़ हटने लगे। लघुशंका के समय पानी का प्रयोग तो भारतवासी भी अब छोड़ते जाते हैं, परंतु वहाँ के लोग शौच के समय भी पानी काम में नहीं लाते। पतला काग़ज़ (toilet papers) शौच-गृह में रखा रहता है, इसी से वे काम चलाते हैं। यह काग़ज़ वैज्ञानिक रीति से बनाया जाता है और इसके द्वारा अभ्यास हो जाने पर अच्छी सफ़ाई हो जाती है, हाथ भी गंदा नहीं होता; परंतु हमारे विचार से चाहे कितनी ही सफ़ाई हो जाए, थोड़े पानी के प्रयोग की आवश्यकता रह ही जाती है। अब तो हर जगह पानी मिल जाता है। हम लोग ऐसे समय जेब में एक शीशी रख लेते थे, जिसमें पानी भर लिया करते थे, और काग़ज़ और पानी दोनों से काम लेते थे। परंतु कमोड पर बैठकर पानी से इस प्रकार काम लेना कि लकड़ी पर या बाहर पानी बिल्कुल गिरे, पहले पहल बहुत कठिन मालूम होता था, विशेषकर वहाँ जहाँ कि शौचगृह में फ़र्श बिछा रहता था। यह कठिनाई थोड़े ही दिनों के अभ्यास के बाद दूर हो गई। गीले स्पंज से भी ऐसे समय काम निकल जाता है। हम लोगों से लंडन में एक हिंदुस्तानी अधिकारी ने, जो भारतीय विद्यार्थियों के रहने आदि का सरकार की ओर से प्रबंध करते हैं, कहा कि हिंदुस्तानी लड़कों की इस बात में बड़ी शिकायत है कि वे शौचगृह को बड़ा गंदा कर देते हैं—कमोड पर बैठ जाते हैं और पानी फैला देते हैं। पैरिस में 'मुक्ति-सेना' की एक संस्था को हम लोग देखने गए, वहाँ हिंदुस्तानी ढंग से बैठकर शौच जाने के स्थान बने हुए थे। पता लगा कि फ़्रांस में बहुत जगह ऐसा ही प्रबंध है। लंडन में केवल आर्य-भवन में ही ऐसा देखने में आया।

    यूरोप के लोग उठते ही शौच नहीं जाते, यद्यपि बहुत से स्कूलों में यह बात अब सिखलाई जाती है। चाय-पानी पीकर सब अपने अपने काम में लग जाते हैं और जब जिसको हाजत होती है, शौच जाता है। चारों तरफ़ शौचगृह मिलते हैं—सड़कों पर, थिएटरों में, संग्रहालयों और भोजनालयों में, जहाँ जाइए Lavatory अथवा W.C. अथवा Gentleman लिखा मिलेगा। थोड़ा पैसा देने पर साफ़ तौलिया और साबुन भी मिल जाता है। रेलों के पाख़ानों में मुफ़्त तौलिए मिलते हैं, वहाँ के लोगों को शौचगृह में बहुत देर नहीं लगती। ये शौचगृह बड़े ही साफ़ रहते हैं। इस सफ़ाई में इंग्लैंड बहुत आगे है। उसके बाद जर्मनी और फ़्रांस। इटली बहुत साफ़ नहीं है, परंतु भारतवर्ष से इस अंश में वह भी अच्छा है। यूरोप के गाँवों में भी हम लोगों ने बहुत भ्रमण किया, वहाँ कहीं-कहीं उठउवाँ पाख़ाने बहुत गंदे पाए, परंतु खेतों में शौच जाते लोगों को नहीं देखा। देहाती स्कूल देखे, खेतों का निरीक्षण किया, नदी और समुद्र के किनारे गए, परंतु कहीं भी मैदान को गंदा करते नहीं पाया। दो एक जगह बस्ती से दूर मैदान में, भीटों और टीलों पर बिना पहले से बतलाए हुए नदी या समुद्र के किनारे ज़मीन पर बैठकर हम लोगों ने सभाएँ की, पर कहीं गंदगी नहीं पाई। किसी किसी गाँव में लोग बस्ती से दूर गढ़े खोद देते हैं और वहीं शौच जाते हैं। शहरों में उठउवाँ पाख़ाने अब नहीं हैं। ज़ंजीर खींच देने से पानी-द्वारा सफ़ाई हो जाती है। नगरों में लघुशंका करने के स्थान जो सड़क पर बने हैं, उनमें पानी बहता रहता है। सोने के समय अपनी चारपाई के नीचे एक पात्र रख लेते हैं और रात को उसी में पेशाब करके उसको ढककर रख देते हैं। इस गंदी आदत के अब बहुत से लोग विरुद्ध होते जाते हैं और हमें कई सज्जन ऐसे मिले जिन्होंने इसको छोड़ दिया है। हमारे देश में नदी के किनारों को और खेतों को, लोग गंदा कर देते हैं। यदि यह प्रथा चल जाए कि लोग गढ़े खोद दें और शौच के अनंतर मिट्टी या बालू से उसे ढक दें तो मक्खियों-द्वारा गंदगी और दुर्गध फैले। हम लोग घरों में भी शौचगृह को बहुत गंदा रखते हैं। वहाँ के लोग अपने हाथ से शौच के स्थान को साफ़ कर लेना बुरा नहीं समझते।

    बाहरी सफ़ाई का वहाँ के लोग बहुत ख़याल रखते हैं। ड्रेसडन से कुछ दूर जेको-स्लवेकिया की सरहद पर हम लोग एक स्थान को देखने गए, जहाँ की प्राकृतिक शोभा बड़ी सुंदर है। वहाँ एक बच्चे को देखा जो सड़क के पास ही लघुशंका करने चला था कि इतने में उसकी माँ एक सेकेंड के अंदर उसको कहीं उठाकर ले गई।

    वहाँ के लोग अपने दाँतों को साफ़ नहीं रखते। छोटी उम्र में भी उनको बनावटी दाँत लगवाने की आवश्यकता पड़ जाती है। मोती की तरह चमकते हुए सफ़ेद दाँतवाले लोग वहाँ कम मिलते हैं। पर अब लोगों का ध्यान इस ओर हो रहा है। कहीं-कहीं स्कूल में भरती होते ही बच्चों के दाँतों की परीक्षा होती है। इसका सबसे अच्छा प्रबंध हमने डनमार्क की राजधानी कोपनहेगेन के स्कोलन (स्कूल) वेड नैबोडर में देखा। वहाँ के वृद्ध अनुभवी डॉक्टर से दाँतों की सफ़ाई के संबंध में बहुत देर तक बातचीत होती रही। इस स्कूल में दाँतों के इलाज का बहुत ही अच्छा अस्पताल है। हमने उन्हें बतलाया कि हमारे देश में भोजन के अनंतर कुल्ला करते हैं जिससे भोजन के कण दाँतों में रह नहीं जाते। इस बात को सुनकर उन्हें बड़ा अचंभा हुआ। इसी विषय पर मैंने एक प्रस्ताव अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा महासभा के स्वास्थ्य-सम्मेलन में उपस्थित किया था। मेरा प्रस्ताव तो केवल इतना ही था कि स्कूलों में भोजन के अनंतर मुँह धोने का प्रबंध किया जाए परंतु उस सम्मेलन के सभापति डॉक्टर टर्नर ने, जो अमरीका के एक प्रसिद्ध डॉक्टर हैं, कहा कि गोरे लोगों का भोजन भी उनके ख़राब दाँत होने का एक कारण है इसलिए प्रस्ताव इन शब्दों में पास हुआ—

    “That whereas there is a distinct difference in the dental health of school children in the various coun tries, further study should be made concerning those factors which contribute to the health of the teeth, including habits of mouth cleansing before and after meals and food habits.

    मालबर्न में पादरी ग्रीव्ज के घर जब हम भोजन कर चुके तब पानी कहाँ मिलेगा यह जानना ही चाहते थे कि उन्होंने स्वयं हमसे पूछा, क्या आप कुल्ला (Rinse your mouth) करना चाहते हैं?” जब हमने कहा, जी हाँ।” तब वे बोले, “Keep to that good habit. इस अच्छी आदत को मत छोड़ो। वहाँ के लोग भोजन के अनंतर एक कटोरी में से बहुत थोड़ा पानी लेकर उँगलियों से मोछ या होंठ पोंछ लेते हैं। उससे बाहरी सफ़ाई तो हो जाती है परंतु दाँत गंदे ही रह जाते हैं। पैरिस में हम लोग एक अनाथनारी-सदन देखने गए। वहाँ के अध्यक्ष से हमने कहा कि फ़्रांस की स्त्रियों को, जो बहुत सुंदर बनने का प्रयत्न करती हैं, भोजन के अनंतर दाँत साफ़ करना सिखलाइए। अध्यक्षजी ने जो पादरी हैं कहा, इन स्त्रियों को मुँह पर पाउडर लगाने और होंठ रँगने से तो फ़ुर्सत मिलती ही नहीं, ये कुल्ला क्या करेंगी। परंतु हम लोग इस नेक सलाह को देने से कहीं नहीं चूकते थे। ओरामा जहाज़ में यूरोप जाते समय एक वृद्ध अनुभवी सज्जन ने भारत वासियों के साफ़ दाँत देखकर कहा यदि आप हमें दाँत साफ़ रखने का उपदेश करें तो आप पादरियों से भी अधिक हमारा उपकार करेंगे। इंग्लैंड की एक स्त्री जिनसे हमारा परिचय चार वर्ष पहले, जब वे भारत आई थीं, हो गया था हमें पेरिस में मिली। उस समय उनकी बहन और भतीजियाँ सब उनके साथ थीं। उनका पूरा परिवार निरामिषभोजी है। 19 जुलाई को उन्होंने हमें भोजन के लिए निमंत्रित किया और भोजन के अनंतर हमसे कहा कि दिखलाओ तुम्हारे देश के लोग किस प्रकार कुल्ला करते हैं। उसके बाद से वे बराबर कुल्ला कर रही हैं। चौथी मार्च 1930 के एक पत्र में उन्होंने मुझे लिखा है, I rinse out my mouth after every meal now. See what good you passed on to me—so do our habits improve, each nation opening the eyes of another nation's citizen to better ways. Thus should it always be.

    मैं अब प्रत्येक भोजन के बाद कुल्ला करती हूँ, देखिए कैसे उपकार की बात आपने मुझे बतलाई, इसी प्रकार हमारी आदतें सुधरती हैं, एक जाति दूसरी जाति के नागरिक की आँखें उन्नति पथ की ओर खोल देती है। ऐसा ही सर्वदा होना चाहिए। बहुत से लोग अब प्रातःकाल अपने दाँतों को साफ़ करते हैं। कोई तो सोने से पहले भी एक बेर और साफ़ कर लेते हैं।

    उँगली, पेंसिल, क़लम इत्यादि को मुँह में डाल लेना वे बुरा नहीं समझते। थूक लगाकर चिट्ठी बंद करना, लिफ़ाफ़े पर टिकट लगाना और पन्ने उलटना, ये बुराइयाँ हमारे देश में भी फैल रही हैं। हम लोग जहाँ तक हो सकता था इसकी ख़राबी बतलाते थे, बहुत से सज्जन तुरंत मान लेते थे और कुछ लोग बहस करने लगते थे। एक होटलवाले से हमने कहा कि कम से कम हमारी चिट्ठियों पर टिकट थूक से मत लगाना। थोड़ी देर के बाद हमने देखा कि वह एक गीला स्पंज ले आया और उसी से लिफ़ाफ़े बंद करता और टिकट चिपकाता। हमारे देश की सफ़ाई के विचार वहाँ से कई अंशों में भिन्न हैं। टेबुल पर खानेवालों की रकाबियाँ यदि एक दूसरे से लग जाएँ तो वे उसको जूठा नहीं समझते परंतु जब किसी रकाबी में कोई खा लेगा तब जब तक वह गर्म पानी से धुलकर आएगी, कोई दूसरा आदमी उसमें नहीं खाएगा। हम लोग समझते हैं कि यूरोप के लोग अपने बर्तनों को अच्छी तरह साफ़ नहीं करते, यह हमारा भ्रम है। जिस रकाबी में लोग एक बेर खा लेते हैं वह गर्म पानी में अनेक प्रकार के मसालों—जैसे Vim आदि-से साफ़ की जाती है और भोजन करनेवाले के सामने जब फिर वह लाई जाती है तो गर्म रहती है। कई जगह स्टेशनों पर छोटे-छोटे शीशे के गिलास में मलाई की बरफ़ बिकते देखी जिसके साथ रबर के फीते से एक छोटा टीन का चमचा बँधा रहता है। इटली देश में तो कहीं-कहीं पानी के नलकों पर ज़ंजीर से बँधे हुए गिलास देखे जिनमें राह चलते लोग पानी पी लेते थे। लंडन के ब्रिटिश म्यूज़ियम के बाहर कल पर ज़ंजीर द्वारा चाँदी का कटोरा बँधा हुआ मिला, पर अन्य देश इस प्रथा को शीघ्रता से छोड़ रहे हैं। कहीं-कहीं, विशेषकर अमेरिका में छोटे-छोटे पद बनाकर बच्चों को सिखलाया जाता है कि जूठे बर्तनों में पानी मत पियो। अँग्रेज़ी वर्णमाला का एक पद इसके संबंध में नीचे दिया जाता है, जिनको छोटे-छोटे बच्चे याद कर लेते हैं।

    D is Danger

    Whenever you choose

    To drink from a cup

    That other folks use.

    बहुत से स्कूलों में जब बच्चों से स्वास्थ्य संबंधी प्रश्न किए जाते हैं तो पूछा जाता है,

    (1)

    क्या तुम अपनी पेंसिल को मुँह में डालते हो?

    (2)

    जिस गिलास में दूसरा आदमी पानी पीता है क्या उसमें तुम पानी पी लेते हो? इत्यादि।

    कई स्कूलों में हमने देखा कि पाइप खोलने पर पानी की धार नीचे गिरने के बदले ऊपर की तरफ़ निकलती है और लड़के उस धार पर मुँह रखकर पानी पी लेते हैं, गिलास की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।

    यूरोप के देशों में सफ़ाई के लिए साबुन का प्रयोग बहुत होता है। जर्मनी में हमने साबुन के विचित्र-विचित्र खिलौने देखे जो बच्चों को दिए जाते हैं। वे उनके साथ खेलते हुए साबुन का प्रयोग सीख जाते हैं। हमें एक भी बच्चा ऐसा नहीं मिला जिसकी नाक बहती हो। हर एक आदमी चाहे वह नहाए या नहाए बाहर जाने से पहले हाथ और मुँह ज़रूर धो लेगा। जिस साबुन और तौलिए को एक आदमी इस्तेमाल करेगा उसको जहाँ तक हो सकेगा दूसरा इस्तेमाल नहीं करेगा। जहाज़ में जाते ही हर एक आदमी को एक साबुन की बटिया और एक तौलिया मिल जाता है। होटलों में भी इसी प्रकार तौलिया और साबुन मिलता है, पर बहुधा साबुन के लिए अलग पैसा देना पड़ता है। लंडन में लायंस की दुकान पर हाथ धोने के लिए भी पैसा देना पड़ता है।

    हमारे देश में लोग मिट्टी से अपना हाथ धोते हैं। जिस मिट्टी से हाथ धोया वह बह गई, दूसरी बेर दूसरी मिट्टी ले ली। यह बात साबुन के साथ नहीं है। यूरोप के लोग इसका सुधार कर रहे हैं। बुकनी साबुन और पतला (Liquid) साबुन अब चल पड़ा है। पतले साबुन से भरी हुई शीशियाँ किसी किसी जहाज़ या होटल में लटकी रहती हैं; कलाई की मदद से उनमें से लोग हाथ पर साबुन उडेल लेते हैं। भारतवर्ष में हाथ धोने और बर्तन माँजने के लिए अच्छे लोग अच्छी मिट्टी काम में लाते हैं परंतु सर्वसाधारण जहाँ से चाहते हैं मिट्टी उठा लेते हैं, उनसे हाथ धो लेते हैं या बर्तन माँज लेते हैं। कभी-कभी मूँज या नारियल के छिलके में मिट्टी या राख लगाकर बर्तन माँजते हैं परंतु उसी मूँज को बहुत दिनों तक काम में लाते हैं जिससे मँजे हुए बर्तनों में भी बदबू आने लगती है।

    इटली छोड़कर और कहीं भी यूरोप में हमको साधारणतः लोग सड़क पर थूकते या नाक साफ़ करते हुए नहीं मिले। हमारे देश में सड़कों पर, रेल में, यहाँ तक कि अपने घर के कमरों में भी लोग थूक देते हैं। वहाँ रोगी भी ऐसा नहीं करते। रोगियों के शौचादि का भी बड़ी सफ़ाई के साथ प्रबंध किया जाता है। उन लोगों में ये सब सुधार वर्षों के संयम और वैज्ञानिक ज्ञान की वृद्धि के कारण हुए हैं। रेलों में थूकने की मनाही और थूकने के कारण दंड की सूचना लिखी रहती है।

    एक दिन लंडन में मैंने देखा सड़क के किनारे पर एक बंद लारी खड़ी है और उसके चारों तरफ़ लोग जमा हैं। पास जाकर देखा कि सिनेमा के द्वारा लोगों को सफ़ाई की शिक्षा दी जा रही है। वह लारी दिन भर मुहल्ले-मुहल्ले घूमती रहती है और स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा देती चलती है। ऐसी अनेक लारियाँ लंडन में हैं। बर्लिन में पेस्टलोज़ी-फ्रोबल नाम की एक शिक्षा संस्था है वहाँ हमें तीन, चार वर्ष के बच्चे मिले जिन्हें शौच आदि जाना, दाँत साफ़ करना और अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा दी जाती है।

    उन देशों में सड़कों पर, मकानों के अंदर, स्टेशनों पर, कहीं भी रद्दी काग़ज़ या लत्ता या अन्य किसी प्रकार की गंदगी देखने में नहीं आती। चलती रेल में भी एक औरत आकर झाड़ू लगा जाती है। सब स्थान स्वच्छ और चमकते हुए मिलते हैं। वहाँ की आब-ओ-हवा में गर्दा भी कम रहता है। फिर भी नौकरानी अपने कपड़ों पर एक सफ़ेद जामा पहनकर सफ़ाई बड़ी मुस्तैदी से करती है। वह यदि कुर्सी, या मेज़ साफ़ करेगी तो केवल ऊपर के हिस्से को ही साफ़ करके नहीं छोड़ देगी। हम लोग बनियान और लँगोट धोकर सोने से पहले रात को अपने कमरे की अलमारी पर सुखा दिया करते थे। सुखाने से पहले देख लिया करते थे कि अलमारी के ऊपर गर्दा तो नहीं है। बर्लिन में जहाँ ठहरे थे वहाँ गर्दा पाया। घंटी बजाई, नौकरानी गई। अलमारी के ऊपर हमने उँगलियाँ रखी और उसे गर्दा दिखला दिया। वह 'आह' कहती हुई दौड़ गई और तीन चार मिनट में बाल्टी में साबुन घोला हुआ पानी और एक साफ़ झाड़न ले आई और उसने उसको साफ़ कर दिया। और उसके बाद प्रति दिन साफ़ करती रही। बड़े से बड़ा आदमी अपने घर को अपने हाथ से साफ़ करना बुरा नहीं समझता। उलिच स्टेशन पर मैं अपनी रेल के लिए ठहरा हुआ था, देखा एक आदमी खड़ा होकर लंबी झाड़ू से प्लेटफ़ार्म साफ़ कर रहा है। जब रेल आई तो उस आदमी ने झाड़ू रख दी और वह मुसाफ़िर से टिकट लेने लग गया। लंडन की काउंटी काउंसिल के सभापति से, जो एक करोड़पति हैं, मैं मिलने गया। उनकी स्त्री को देखा कि वे अपने मकान को साफ़ कर रही थीं। स्कूलों में यदि छोटी कक्षा का कोई विद्यार्थी एक काग़ज़ का टुकड़ा फेंक देगा तो बड़ी कक्षा का विद्यार्थी पीछे से आकर उसको उठा लेगा। गली गली, बाज़ार बाज़ार, रद्दी की टोकरियाँ रखी हुई मिलती हैं, जिनमें लोग ट्रांवे, 'बस' के टिकट और रद्दी फेंक देते हैं। रोम में जब हम थे तो सेंट पीटर्स कैथिड्ल और उसके आसपास एक रात ख़ूब दीपावली हुई थी। उसमें बिजली, बिनौले और मोमबत्ती के दीये थे। दूसरे दिन सबेरे ही जब हम फिर वहाँ गए तो एक भी दीया छत पर अथवा सड़क पर गिरा हुआ या टूटा हुआ नहीं पाया। हमारे देश में दीपावली के महीनों पीछे तक दीया के टुकड़े पड़े हुए मिलते हैं।

    दो प्रकार की गंदगी अवश्य योरोपीय देशों में मिलती है, सड़कों पर पालतू कुत्तों की गंदगी और सिगरेट के टुकड़े। सिगरेट की राख के लिए मेज़ पर एक छोटी तश्तरी पड़ी रहती है, और रेलों में एक डिबिया सी जड़ी रहती है। सिगरेट पीनेवालों के लिए रेल में अलग डब्बे रहते हैं। थियेटरों में कहीं-कहीं कुर्सी पर कटोरी बँधी रहती है।

    जर्मनी में हम एक बहुत बड़ी दूकान पर गए। कोने-कोने में ज़मीन पर एक गोलाकार चमकता हुआ बर्तन पड़ा पाया। हमने समझा कि सजावट के लिए कोई चीज़ रखी गई है परंतु वह थी राखदानी, क्योंकि थोड़ी ही देर में देखा कि नौकर ने मेज़ की तश्तरियाँ की राख लाकर उस बर्तन में डाल दी। वह गोलाकार बर्तन पश्चिम सभ्यता का चिह्न-स्वरूप है; अंदर राख ऊपर से जगमगाहट। पैरिस में बहुत से लोग नहाने के कारण शरीर से जो बदबू निकलती है उसको सुगंधित चीज़ कपड़ों पर लगाकर दूर कर लेते हैं।

    यूरोप के देश सर्द हैं इसलिए वहाँ के लोग दिन भर जूता पहने रहते हैं। जूता छूकर या चमड़ा छूकर हाथ धोने की प्रथा जो हमारे देश में है, वहाँ नहीं है। हिंदुस्तान में हर कमरे में जूता ले जाना या हर समय जूता पहने रहना आवश्यक नहीं है। यहाँ की पुरानी सभ्यता यह है कि जूते बाहर छोड़ दिए जाएँ और घर के कमरे प्रति दिन धोए जाए। यह प्रथा यहाँ के जलवायु के अनुकूल है। हम लोग अब घर के रहे घाट के। अपने कमरों में टाट और दरियाँ बिछा लेते हैं जिनके नीचे महीनों का गर्दा जमा हो जाता है।

    यूरोप में गली-गली कुत्ते मारे-मारे नहीं फिरते। सिवाय पालतू कुत्तों के हमने और कुत्ते नहीं देखे। हिंदुस्तान में रोगी कुत्तों को भी भोजन मिल जाता है, चाहे उनके द्वारा मनुष्यों में रोग फैले। यहाँ बाज़ारू कुत्तों का अंत करना चाहिए।

    हमारे देश में ऐतिहासिक स्थानों को जब लोग देखने जाते हैं तब पेंसिल या कोयले से अपना नाम और पता ठिकाना लिख दिया करते हैं जिससे वह स्थान गंदा हो जाता है। यह बात यूरोप में हमने बहुत कम पाई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : योरप यात्रा में छः मास (पृष्ठ 64)
    • रचनाकार : रामनारायण मिश्र, गौरीशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1932

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