श्मशानभूमि और रंगभूमि

shamshanbhumi aur rangbhumi

रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी

श्मशानभूमि और रंगभूमि

रामवृक्ष बेनीपुरी

और अधिकरामवृक्ष बेनीपुरी

    पेरिस

    24/5/52

    भाई मेहरअली ने अपनी अंतिम परिस-यात्रा के बाद मुलाक़ात होने पर उस श्मशानभूमि की चर्चा की थी; जहाँ सुप्रसिद्ध नाटककार मौलियर की क़ब्र है। तभी निर्णय कर चुका था, कभी पेरिस जाने का मौक़ा मिला, तो इस कुम की धूल शीरा पर अवश्य चढ़ाऊँगा।

    इधर जब पेरिस की गाइड-बुक देखने तो पता चला, यहाँ कई प्रसिद्ध श्मशान भूमियाँ हैं, जिनमें फ़्रांस के सुप्रसिद्ध व्यक्तियों को दफ़नाया गया है। चार तो उनमें बहुत प्रसिद्ध है। किंतु श्मशानभूमि को देखना था, जहाँ मौलियर को दफ़न किया गया, क्योंकि उस भूमि के साथ भाई मेहरअली की स्मृति भी संलग्न है।

    यह शमशानभूमि पेरिस की सबसे बड़ी श्मशानभूमि है और पेरिस वालों का दावा है, कहीं एक जगह इतने बड़े आदमी दफ़न नहीं किए हैं। अपने नगर की इस श्मशानभूमि को भी वह अद्वितीय मानते हैं।

    मेट्रो का सूत्र पकड़ कर वहाँ पहुँचा। मेट्रो का छोटा-सा नक़्शा हर जगह मिलता है, मुफ़्त ही। उसे ले लीजिए और गाइड-बुक से मिलाकर स्थान को निश्चित कर लीजिए कि वह किस लाइन के किस स्टेशन के नज़दीक है, फिर कोई कठिनाई नहीं होती। यदि कोई गड़बड़ हुई, तो किसी आदमी को नक़्शे में जगह बता दीजिए, वह आपको सही रास्ता बता देगा।

    यह श्मशान भूमि एक पहाड़ी पर है। यों तो बड़े-बड़े लोगों की क़ब्रें यहाँ होने से इसकी प्रसिद्धि थी ही। 1871 में जब पेरिस के ग़रीबों ने विद्रोह करके अपनी कम्यून कायम की, और अंत में लड़ते-लड़ते इसी माह में जा छिपे और अन्ततः उन्हें खदेड़ कर, इसकी दीवाल से सटा कर गोलियों से मार दिया गया, तब से यह एक राजनीतिक तीर्थ स्थान बन गया है।

    मेट्रो से ऊपर आकर हमने एक पहाड़ी-सी ऊँची जगह और ऊपर जाने की सीढ़ियाँ भी। हम उसी रास्ते ऊपर चले गए! यह तो पीछे पता चला कि यह इसका दर दरवाज़ा नहीं है। सदर दरवाज़े पर अच्छे गाइड मिल जाते हैं और क़ब्रों पर चढ़ाने के लिए फूल आदि भी।

    ऊपर जाकर क़ब्रों की क़तारें ही देख कर हम घबरा गए। देखा, वहाँ माली की तरह के कुछ लोग हैं। उनसे पूछने लगा, वे हमारी अँग्रेज़ी भाषा तो समझते नहीं थे; तो भी उन्होंने जान तो लिया ही कि हम दर्शक हैं और जब हमने मोलियर बाल्ज़क आदि के नाम लिए तो एक नक़्शा हमारे हाथ में देकर लाल पेंसिल से उन तक पहुँचने का निशान बना दिया। इसके बदले में हमने कुछ पैसे उन्हें दिए और आगे बढ़े।

    बीच में रास्ते, बानी तरफ़ क़ब्रें। तरह-तरह की, नाना आकार-प्रकार की। किन्हीं-किन्हीं के ऊपर ख़ुशनुमा मंदिर, किन्हीं-किन्हीं पर मृत व्यक्तियों की मूर्तियाँ, किन्हीं-किन्हीं क़ब्रों पर फूल भी। एक कुनबे के मृत व्यक्तियों की क़ब्रें कहीं-कहीं एक ही स्थान पर दिखाई पड़ीं। नक़्शे को लेकर हम आगे बढ़ रहे थे, तो भी प्रायः रास्ते भूल जाया करते थे। सबसे पहले बालक की क़ब्र मिली; कब पर उसकी एक मूर्ति भी। क़ब्र के निकट खड़ा करके शीला ने हम लोगों के फ़ोटो लिए। उसके बाद आस्कर वाइल्ड की क़ब्र मिली। यह क़ब्र अजीब है। उसके ऊपर एक चट्टान सी रखी हुई है, जिसके नीचे के भाग में एक नंगे आदमी की मूर्ति है, मानो वह उस क़ब्र पर लटका हुआ हो और उसके गुप्तांग भी लटक रहे।

    वहाँ से सारा वर्नहार्त की क़ब्र की खोज में बहुत समय लगा। जब इंग्लैंड में पिछली बार गया था, शेक्सपीयर के गाँव में इसने औरत होकर हेलमेट का पार्ट किया था। अंतः उत्सुकता स्वाभाविक थी। किंतु खोज-ढूँढ़ के बाद भी उसकी क़ब्र नहीं पा सका।

    फिर नक़्शा देखते, भूलते-भटकते, मोलियर की क़ब्र के निकट पहुँचा। बहुत पुरानी क़ब्र है। दो पत्थर के स्तम्भों पर एक ताबूत है। बड़े चाव से, प्रेम से, श्रद्धा से मैंने ताबूत को चूसा। बहुत अफ़सोस हुआ, आला नहीं या फूल नहीं ला सका था।

    इस खोज-ढूँढ़ में ही बहुत देर हो चुकी थी, अतः 1871 की कम्यून के शहीदों की बधस्थली को नहीं देर सका।

    इस श्मशानभूमि में कौन-कौन नहीं है—लेखक-कवि; योद्धा, शहीद, नाटककार, अभिनेता, चित्रकार, संगीतकार, दार्शनिक संत वे बड़े-से-बड़े लोग यहाँ अनंत निद्रा में सो रहे हैं जिन्होंने पेरिस को पेरिस बनाया, जिन्होंने फ़्रांस को वह गौरव दिया जिसके बल पर बार-बार पराजित होने पर भी उठकर खड़ा होता है! वह शमानभूमि फ़्रांसिसियों के लिए इतनी प्यारी है कि नेपोलियन मरते समय इच्छा की थी कि उस की लाश को इसी शमशान में दफ़नाया जाए।

    आज अब घर से निकल रहा था, सड़कों की मोड़ के विज्ञापन के तख़्तों पर बड़े-बड़े पोस्टर टँगे हुए मिले, जिनमें उल्लेख था कि विक्टर ह्यूगो की 140 वीं 26 मई 6 जून तक मनाई जाएगी। फ़्रांस के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पैंथियम में जाकर ह्यूगो का क़ब्र पर फूल चढ़ाएँगे और उस विशाल इमारत पर राज्य की ओर से दीवाली की जाएगी। नृत्य, संगीत, अभिनय आदि के भी प्रोग्राम हैं। काश, पंडित नेहरू हमारे तुलसीदास के स्मारक पर फूल चढ़ा क्या काशी के रहने वाले श्री संपूर्णानंदजी को ही यह बात सूझी? तुलतीराज पैदा कहाँ हुए, इस पर झगड़ा कर लीजिए, किंतु काशी में ही अस्सीघाट पर उनका निधन हुआ, यह तो इतिहास-सिद्ध है।

    शाम को यों हो टहलते हुए हम ओपेरा-भवन की ओर निकल गए। कई दिनों से इसके चारों ओर इस चक्कर लगा जाते हैं किंतु टिकट नहीं मिल पाते। होटल वालों से कहा, तो बेबस टिकट को हो बात करने लगे। पर यह संयोग 'देखिए, आज जब उसके भीतर इसलिए घुसे कि कम से कम भोतर का चाक-चिक्ध ही देख लें, तो वहाँ सस्ते टिकट मिल गए! फिर हमारे आनंद का क्या कहना?

    ओपेरा अन के भीतर जाते ही दिमाग़ चकरा जाता है। वह पेरिस का सबसे पुराना और सबसे बड़ा रंगमंच है। इस भवन के निर्माण में दो करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे। यह आज भी माना जाता है कि संसार भर में ऐसा शानदार रंगमंच कहीं नहीं है। इसका विस्तृत वर्णन देने के लिए यहाँ समय है, स्थान। पेरिस वाली पुस्तक के लिए ही इसे सुरक्षित रखता है। यहाँ इतना ही कहूँगा, जो लोग यूरोप गए और ओपेरा भवन में जाकर कोई नाटक नहीं देख सके, उनका वहाँ जाना, मेरी दृष्टि में अधूरा ही रहा।

    टिकट लेकर हम जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़े। संगमरमर, क़ालीन, मखमली पर्दे, बड़े-बड़े शीशे, ज्यों-ज्यों हम ऊपर चढ़ते गए, हम पर अपना रोब जमाते गए। चौथे मंज़िल पर के लिए हमारे टिकट थे। पहले हम जहाँ बैठाए गए, वहाँ से भी स्टेज तो अच्छी तरह दिखाई पड़ता था किंतु मैं तो सारे रंगमंच की संपूर्ण झलक देखना चाहता था। मेरी इस मनोकामना को मानो एक महिला समझ गई; ज्यों ही बीच में रिसेस हुआ, उसने मेरे लिए अपनी अगली पंक्ति की जगह ख़ाली कर दी। उफ़, नीचे से ऊपर तक जारी सीटें भरी हुई। कितना बड़ा भवन है यह; कैसे कलाप्रिय हैं यहाँ के लोग!

    और वह रंगमंच क्या हो रहा है? आज एक ओपेरा और एक बैले का अभिनय हो रहा था। पहले ओपेरा हुआ, बाद में बैले। ओपेरा में सभी पान संगीत में ही वार्तालाप करते हैं—वार्तालाप क्या? अपने हृदय के भावों के संगीत के रूप में रंगमंच पर ऊँड़ेलते हैं! संगीत के सिवा एक शब्द भी नहीं। यों ही बैले में रंगमंच पर मुँह से एक शब्द भा नहीं निकाला जाता। सारे मनोभावों को नृत्य के माध्यम से ही प्रगट किया जाता है। नृत्य की गति और ताल को निर्देशित करने के लिए मंच के नीचे साज बजते होते हैं!

    जब खेल समाप्त हुआ, बार-बार मन में प्रश्न उठता—हमारे देश में ये सब कब संभव हो सकेंगे? अभी अच्छे नाटकों के लिए भी हमारे पाल-अभिनेता, अभिनेत्री, रंगमंच और साज-सज्जा नहीं मिल पाते— फिर ओपेरा और बैले तो इससे दूर हैं। ओपेरा-भवन को पर्याप्त सरकारी सहायता भी प्राप्त है। उसका 'डाइरेक्टर किसी मिनिस्टर से कम रुतबा या महत्व नहीं रखता! हम अभी कला के क्षेत्र में कितने पिछड़े हुए हैं—न कला की पूजा है, कलाकार की पूछ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : उड़ते चलो उड़ते चलो (पृष्ठ 93)
    • रचनाकार : रामवृक्ष बेनीपुरी
    • प्रकाशन : प्रभात प्रेस लिमिटेड, पटना
    • संस्करण : 1954

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