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समुद्र यात्रा

samudr yatra

ठाकुर गदाधर सिंह

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ठाकुर गदाधर सिंह

समुद्र यात्रा

ठाकुर गदाधर सिंह

और अधिकठाकुर गदाधर सिंह

    मसीही संवत् 1900 के जून 29 तारीख़ को-मैं बंगाल की सतावीं राजपूत पलटन के हेड क्वार्टर के साथ ‘पालम कोटा’ नामक जहाज़ पर कलकत्ता में सवार हुआ।

    ऋतु बहुत गर्म थी ही, प्रातःकाल 6 बजे के समय फ़ोर्ट विलियम से खिदरपूर ‘डक’ तक जाने ही में सब लोग पसीनों से तर हो गए थे। जहाज़ किनारे लगाया। फ़ौज रणसाज से सुसज्जित किनारे की रविश पर जमाई गई। फ़ोर्ट विलियम से जरनल लीचसाहब बहादुर ने फ़ौज को यात्रा विषयक के एक संक्षिप्त वक्तृता दी। जनरल साहब ने फ़रमाया :—

    राजपूत लोगों! सरकार हिंद तुम्हारा बहुत विश्वास करके तुम लोगों को चीनदेश को भेजती है। चीन में ‘संसार शक्तियों’ का मंत्रिदल वहाँ की एक नवीन संप्रदाय (वाक्सर) के लोगों से बहुत दुःखित हुआ है उसी के उद्धार के लिए यह रण रंग रचा गया है। तुम लोग तनमन से-मन प्राण से सरकार के काम पर ध्यान दो। और ‘फ़तह’ करो। तुम्हारी यह फ़ौज पहिले भी सन् 1858-59 ईस्वी में चीन की मुहिम पर गई थी। सो यह यात्रा तुम्हारे लिए नई नहीं है। उम्मीद है कि तुमलोग कामयाब होंगे।

    हुर्रे—जय जय कार—इत्यादि की ध्वनि हुई और फ़ौज जहाज़ पर सवार हुई!

    दिनभर जहाज़ किनारे ही पर रहा। लगभग चार बजे सायंकाल किनारे से हटकर बीच नद में नवाब वाजिदअली शाह के मटिया बुर्ज के ‘ज़ेर साया’ पढ़ा रहा।

    फ़ौज को युद्ध यात्रा की आशा मिलने के दिन अर्थात् 20 जून से 28 जून तक रात्रिन्दिया कारबार में जुटे रहने के कारण 29 को जो तनिक सावकाश मिला तो मुझ को तो मुझ को तो सिवाय अपने ‘कैबिन’ (जहाज़ में रहने की कोठरी) में पड़े रहने के और कुछ भी सूझा!

    सायंकाल दिन अस्त होते समय जो बाहर निकल कर ‘अपरडेक’ (ऊपर की छत) पर जाकर इधर-उधर देखने लगा तो मन में जानें क्या-क्या भाव उदय होने लगे! अस्ताचल को चलता हुवा सूर्य जो अपनी रक्तिमा मय प्रतिच्छाया गंगाजल, पर विस्तारित किए था, उस से समस्त जल आलोकमय दीख पड़ा!

    हिलोरें खाता हुवा जल रह-रह कर बिजली की भाँति अपूर्व चकाचौंध मचा रहा था।

    देखते ही देखते जल की चंचलता और सूर्य भगवान की लालिमा ही शेष रही! सब कुछ धीरे-धीरे अंधकार में परिवर्तित होने लगा! या यूँ कहिए कि अंधकार के काले सागर में लीन हो गया।

    मन में एक प्रकार का भय उत्पन्न हुआ! भगवान्! क्या यही गति प्राचीन चीन देश की भी तो नहीं करने वाले हैं? नहीं तो प्रायः चार हज़ार वर्षों से शांति मय सुषुप्त देश के कतिपय वंश क्यों इतना उद्धत स्वभाव हो उठे हैं? जो सुशीतल श्वेत वर्ण जल में भी रक्तिमा दीख पड़ने लगी!

    क्या, चीन का शुभ्र चंद्रमा भी अस्त होना चाहता है? आर्यावर्त का प्रचंड मार्तंड तो अस्त हो ही गया!

    मन में तरंग उठी कि चीन के पड़ोसी जापान ने चीन की हीनता प्रत्यक्ष कर दी है? सत्य है—पड़ोसी का विवाद हानिकारक होता ही है!

    “घर का भेदिया-लंका दाह”॥

    चंचल मन दौड़ता हुआ जापान जा पहुँचा! स्मरण हुआ कि जापान जिस समय पर्दा नशीनी हालत में था अर्थात् महाराज ‘मिकाडो’ जब पर्दे ही में बैठकर राजकाज किया करते थे तब एक बार अमरीका सरकार से युद्ध ठना था और जापान की शिकस्त हुई थी! वह शिकस्त ऊँघते को ठेल वा डूबते को तिनका की सदृश हो गई थी। तभी से ‘मिकाडो महाराज’ अँधेरे से उजाले में पधारे—पर्दे में जो वस्तु वे कभी देख सके थे उन्हे बाहर आते ही प्रत्यक्ष देखने लगे।

    उन्होंने केवल परमेश्वर भगवान के भरोसे उनकी दी हुई लालटेन सूरज के ही प्रकाश में काम करना आरंभ किया वरन अपनी करतूत को भी उस में जोड़कर अँधेरे में इलेक्ट्रिक लाइट (बिजली की रोशनी) से उजाला करके परमेश्वर को बड़ी मदद पहुँचाई और परस्पर सहानुभूति (ख़ुदा और ख़ुद) के द्वारा अपने देश को वह उन्नत दिन-दिनमणि दिखला दिया जो आज सब आँख वाले निहार रहे हैं।

    मन में आया क्या चीन की संतान भी तो इसी तरह की जाग्रत अवस्था को नहीं प्राप्त होना चाहती? तब तो मुक़ाबिला ख़ूब सख़्त होगा। जोहो-हमें तो अपनी सर्व शक्तिमान सरकार की ही जय चिंता है। परमेश्वर हमारी जय करें।

    सोचते-सोचते ख़ूब अँधेरा हो गया। कलकत्ते में जलते हुए कुछ चराग़ों के सिवाए और कुछ सूझने लगा!

    ‘डेक’ से उतर ‘केबिन’ में जाकर घर पर का पका हुआ भोजन जो मौजूद था उसे खाकर लेटा रहा।

    इस कहानी को पढ़ने सुनने वाले कोई-कोई महाशय शायद हँसेंगे कि ‘केबिन’ तो सिर्फ़ सोने की जगह है। भोजन तो ‘सलून’ में करना था। परंतु भाई! मिकाडो वाला पर्दा अभी सिर्फ़ जापान ही से तो उठा है। हिंद में तो पर्दा केवल घरों वस्तुओं ही पर, वरन अक़्लों पर भी तो ख़ूब आच्छादित है। इतना कि कहीं हवा भी लग सके! डर है कि बिना हवा के कहीं दम घुट जाए! फिर भला मैं ‘सलून’ में क्योंकर खाना खा सकता था? सो महाशय! उस पहिले दिन तो खाया अपनी कोठरी ही में और घर पर का पका हुआ भोजन परंतु आगे-आगे हमारे हज़ारों बेड़े में कोई भी छुआछूत का विचार बाक़ी नहीं रह गया!

    खाने पीने की चर्चा अभी और भी आपको सुनानी पड़ेगी। क्या आपने नहीं सुना ‘भूखा बंगाली भात ही भात’ चिल्लाता है? उसी तरह हमारा भुक्खड़ आर्यावर्त देश अब जिधर सुनिए उधर ही केवल खाने पीने ही की चर्चा में मगन है!

    हिंदू किसी के हाथ का खाने ही से पतित हो जाता है—बाजपेयी जी तिवारी जी के हाथ का खाएँगे! अँग्रेज़ी पढ़ेवाले आधे किरिस्टान हैं क्योंकि कपड़ा पहिने रोटी खा लेते हैं। पश्चिम के ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं क्योंकि ब्राह्मण खत्री साथ वैठकर खा लेते हैं। कनौजिया ब्राह्मण अच्छे नहीं क्योंकि माँस मछली खा लेते हैं!

    और कश्मीरी इसलिए अच्छे नहीं कि मुर्ग़ी भी नहीं छोड़ते!

    (सारी बड़ाई छोटाई और टधर्म-अधर्मट खाने पीने ही पर निर्भर है) इत्यादि यही सब तो हमारी नित्य की गप्प-शप्प हो रही हैं!

    अधिक क्या कहें—जिस आर्य समाज ने आर्यावर्त के उद्धार का बीड़ा उठाया है—वेद का उपदेश संसार भर में एक ओर से दूसरे छोर तक प्रचारित करने का व्रत धारण किया है कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का ‘एलान’ दिया है—वही आर्यसमाज भी तो आज ‘खाने-पीने’ के झगड़े में उलझ पड़ा है!

    पापी पेट को माँस से भरें कि घास से! पुरुषों को भोजन ब्राह्मणों के लेटरबक्स द्वारा भेजें या जीवतों के पेट भरने ही पर संतोष करें?

    शोक़ है कि ऐसे बड़े महान उद्देश्य वाला आर्य समाज भी इसी पापी पेट के झगड़े में लिपट रहा है!

    गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य कहा है :

    आरत काह करै कुकर्मू!!!

    सो हम आरत भारत संतान क्षुधा पिपासा और अशन बसन से त्रसित इन्हीं बातों के लिए झगड़ने के सिवाए उच्चाभिलाष और उच्च वासनाएँ कहाँ से लाते?

    अशनं वसनं वासो-येषां चैवाविधानता!

    मगधेन समा काशी-गंगाप्यङारवाहिनी!

    अशन वसन और वास का जिन्हें आस हो उनको काशी भी उजार और गंगा भी अंगार दीख पड़ती हैं।

    सो हमारे दुर्भाग ने आर्य समाज में भी हमें शांति मिलने दी!

    जिस आर्य समाज का महान उद्देश्य ‘संसार भर का उपकार’ करना है। जिसकी उच्चघोषणा :—

    “उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य, वरान्निबोधत”!

    है वही यदि उपरोक्त तुच्छ झगड़ों में अपना अनमोल समय बितावे तो निस्तार की आशा कहाँ से की जावे?

    इसी से तो कहते हैं कि भूखे को भात ही भात सूझता है।

    सो यदि हमारी पल्टन में जहाज़ पर सवार होते ही खाने पीने की वार्ता छिड़ी तो क्या आश्चर्य?

    सफ़र एक दो दिन वा चार छः दिन का था! जाना था जहाज़ द्वारा अनुमान से पूरे पच्चीस दिन! दो एक दिन तो अपना चौके का पकाया हुआ भोजन जहाज़ पर लोग खाते रहे! आगे एकादि दिन चना-चबीना खाकर रहे! दो एक दिन जहाज़ के हालाडोल-तूफ़ानी वायु वेग के झंकारों से और समुद्र यात्रा अनभ्यस्त होने से प्रायः सभी लोग चक्कर में पड़े रहे, जब इन सब झंझटों से पार हुए, तबीयतें कुछ स्वस्थ हुईं—बहुतेरों को अनाहार वा स्वल्पाहार के कारण बहुत सुस्त वा मूर्च्छित पाया गया—तब खाने पीने की बात फिर उठी। सूबेदार मेजर गुरदत्त सिंह बहादुर तथा डॉक्टर रामदत्त अवस्थी साहब एवं और भी कतिपय विचारवान महाशयों ने सब सरदार लोगों और ओहदेदारों को समझाया कि बीस-पचीस दिन निराहार वा स्वल्पाहार अथवा शुष्काहार रहकर क्या ख़ाक युद्ध करेंगे? जिस शीघ्रता से यात्रा कर रहे हैं जहाज़ डवलस्पीड (दूनीचाल) से चल रहा है और युद्ध क्षेत्र के संवाद जैसे भीषण मिले हैं उससे क्या अनुमान हो सकता है कि उतर कर एक दिन भी बैठना मिलेगा? कदापि नहीं! उतरते ही रण रंग रंजित होना है तो क्षुधार्त-सुस्त-मूर्च्छित फ़ौज कहो तो क्या कर दिखावेगी? हफ़्तों सूखा आहार खाकर प्रथम तो जहाज़ से उतरते ही एक महीना वा अधिक डायरिया (दस्त) रोग से मुक्ति लाभ करने को दरकार होगा! फिर राजपूतों से सरकार क्या ख़ाक उम्मीद कर सकती है?

    इसलिए सबको उचित है कि अच्छी तरह जहाज़ पर खाना पकावैं और इच्छानुरूप भरपेट खावैं-ताज़े तगड़े बने रहें। युद्ध में नामवरी हासिल करैं॥

    सब सरदार लोग सहमत हुए और अपने-अपने समुदाय (कंपनियों) को भली भाँति समझाया।

    जो राजपूत जाति सदा से युद्ध प्रिय है, जिसका व्यवसाय ही युद्ध है और जिसका जन्म ही युद्ध के लिए है उस जाति को इतना कहना आवश्यकता से भी अधिक हुआ।

    यदि खाना खाएँगे तो जहाज़ से उतरते ही ‘डायरिया’ हो जाएगी और युद्ध के लायक़ रहेंगे। यह तो बड़े दुःख की बात है!

    ‘राजपूत’ युद्ध की अयोग्यता का अपमान नहीं सहन कर सकता! युद्ध में नामवरी ही उसका जीवन, सर्वस्व है, जीवनोद्देश्य है!

    तुच्छ खाने पीने ही के कारण हम युद्ध के अयोग्य हो जाएँगे तो हम ऐसी परहेज़गारी ही को लेकर क्या करेंगे? जिससे हमारी जाति कलंकित हो!

    बस प्रायः सभी लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक खाना पकाना स्वीकार किया जहाज़ का लौहमय बावरची-ख़ाना-ख़ूब पानी से साफ़ सुथरा कर दिया गया (क्योंकि पहले उसमें मुसलमान ख़लासी वग़ैरा भूना पकाया करते थे) और ‘पंडित बावरचियों’ को (सिपाही लोग रसोइया को पंडित कहते हैं) पकाने में नियुक्त किया गया।

    फिर तो ख़ूब मज़े से सब लोग पांत की पांत बैठते और पंडित लोग एक ओर से परोसते खिलाते थे। दो ही तीन दिन में सब लोग फिर ताज़े तगड़े दीख पड़ने लगे!

    अँग्रेज़ अफ़सर लोग भी हमारे भाइयों के इस कर्तव्य से बहुत प्रसन्न हुए और विश्वास किया कि वास्तव में हिंदुस्तानी लोग आवश्यकता पड़ने पर सब कुछ कर सकते हैं!

    इनका विश्वास सदाशुभ होगा—धोखा किसी प्रकार से कभी नहीं हो सकता। सरकार की तनिक भी हेठी यह लोग सह्य नहीं कर सकते!

    ——————————

    गंगासागर पार कर बंगाल की खाड़ी में बढ़े—सब ओर जलमय दीख पड़ने लगा! जल और आकाश भिन्न संसार में मानो कुछ भी नहीं रहा!

    इसी भाँति कितने ही पानी पार करते हुए जहाज़ रूपी जलचर चलता रहा! पानियों का विशेष विवरण करके जुगराफ़िया खोलना आवश्यक नहीं—हिंद से चीन को जो राह आप जानते हों बस वही हमारा भी पन्था या देवयान समझ लीजिए! क्योंकि हमारे हिंदू शास्त्रकारों ने ऐसा ही कहा है—

    येनास्य पितरो याता, येन याता पितामहाः। इत्यादि॥

    राम राम भला हिंदू मर्यादा छोड़ मैं अथवा हिंदू राजपूत फ़ौज अन्य किसी मार्ग से क्या चीन जा सकते थे?

    हमारे बूढ़े अर्थात् 1858 साल वाले सिपाही भी इसी राह से चीन को गए थे। उसी सनातन मार्ग से हम भी चले।

    चले तो थे लड़ाई पर—लड़ाई में सभी जानते हैं बंदूक़ तोप सब कुछ चलाना होता है। परंतु एक बात सुनकर आप पाठक वा श्रोता लोग विलक्षण अचरज करेंगे! अचरज यही कि जो बंदूक़ें पल्टन के पास थीं उनका चलाना कोई जानता था! तोप भी थी ‘मेग्ज़िम गन’ (Maxim Gun) वह भी कैसे भरी दागी जाती है सो सिपाहियों में कोई भी जानता था!

    कहिये तो भला—इससे भी अधिक आश्चर्य की बात और कुछ हो सकती है? परंतु इसमें एक कारण था :—

    हिंदुस्तान की फ़ौजों में यह चाल देखने में आई है कि हिंदुस्तानी सिपाहियों की अपेक्षा गोरे सिपाहियों को एक दरजा उत्तमतर हथियार दिए जाते हैं। अधिक दूर की बात तो मुझे याद नहीं है अभी उन दिनों सन् 1886 ईस्वी में जब हिंदुस्तानी सिपाहियों के पास ‘व्रीचलोडर’ बंदूक़ थी तब गोरों के पास ‘मार्टिनी हेनरी’ और ब्रह्मा की लड़ाई के बाद सन् 1887 में जब गोरों को ‘मैगज़ीन’ बंदूक़ दी गई तब हिंदुस्तानियों को ‘मार्टिनी’ मिली! सो फ़ौजी सनातन धर्म हिंद में यही था कि गोरों की अपेक्षा काले एकदरजा कमज़ोर हथियार पावैं॥

    तदनुसार हमारी फ़ौज में भी मार्टिनी बंदूक़ थी।

    जब ता. 20 जून 1900 ई० को चीन युद्ध यात्रा का हुक्म मिला तब कर्तारों को यह विचार भी उपस्थित हुआ कि पुरानी भद्दी मार्टिनी बंदूक़ लेकर काले काले सिपाही जब संसार भर की शक्तियों के साथ-साथ (बाजू बाजू) लड़ने चलेंगे तब हमारी (ब्रिटन की) हेठी अवश्य होगी। हमारे हथियारों के भद्देपन पर हँसी अवश्य ही उड़ेगी।

    यही सोच विचारकर सनातनधर्म की भी परवाह छोड़कर (जैसे आजकल बहुतेरे पढ़े लिखे लोग निज भद्देपन के ‘रिफार्म’ (सुधार) पर उद्यत हो जाते हैं और सुधार कर ही छोड़ते हैं) हमारी फ़ौज को वही गोरी बंदूक़ ‘ली मेटफोर्ड’ उन्हीं पाँच छः दिनों के दर्मियान येन केन प्रकारेण बाँट दी गई थी।

    बस वही बंदूक़ लेकर हम लोग जहाज़ पर सवार हुए थे।

    यद्यपि बंदूक़ चलाना नहीं जानते थे। पर क़वायद और मस्केटरी (इल्म गोलन्दाज़ी) जानने वाली फ़ौज के लिए यह त्रुटि एक बहुत सामान्य सी थी। मस्केटरी के थियोरी और प्रिन्सपेल (अस्त्र संचालन विद्या और उद्देश्य) जानने वाले लोगों को केवल हथियार के नमूना मात्र की तबदीली कुछ विशेष यत्न की सापेक्ष थी। तौभी एकादिबार अभ्यास करना—गोली चलाकर देख लेना आवश्यक ही था। तदनुसार जहाज़ पर दोनों वक़्त सिखलाई की परेड होने लगी। चलते हुए जहाज़ के पिछाड़ी उछलते हुए पानी पर टीन या काग़ज़ के पुलिंदे फेंककर उन्हीं पर निशाना और फायर की शिक्षा दी जाने लगी।

    कहा जाता था कि तमाम यूरोप की शक्तियाँ जो चीन को चबाने चढ़ी हैं उन सबों के पास यही नवाविष्कृत रायफल है। केवल वही वरन चीना इम्पीरियल फ़ौज भी इसी हथियार से सज्जित है, सो हे राजपूतो! तुम लोग यदि तनिक भी इस बंदूक़ के काम में कमज़ोर रहे तो बड़ी बदनामी की बात होगी। और तुम्हें भी अच्छा होगा। बंदूक़ चलाना जानोगे तो क्या दुश्मन के पहिले शिकार तुम्हीं नहीं होगे?

    तो हमारे राजपूत लोग सब चिंता त्याग तन मन से बंदूक़मय बनते हुए डबल स्पीड से पानी पर रेंगते चले जाते थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चीन में तेरह मास (पृष्ठ 1)
    • रचनाकार : ठाकुर गदाधर सिंह

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