'तिब्बत में'
भारत की सीमा लिपुलेख पार कर तिब्बत प्रदेश में प्रवेश करते हैं। इस घाटी से चार मील चल कर पाला नाम की चौकी पड़ती है। यहीं से तिब्बत का ऊबड़-खाबड़ पथरीला मैदान प्रारंभ होता है। तिब्बत की मुख्य विशेषताएँ यहाँ का शीत और डकैत हैं जो सदैव मृत्यु तुल्य सिर पर मंडराते रहते हैं। यहाँ के जल तथा वायु बहुत तीव्रगामी होते हैं। यहाँ प्राय: गृहहीन भ्रमक लोग भेड़-बकरी पालते हैं और उनके ऊन को बुन कर उदर पूर्ति करते हैं। यहाँ माँसाहार तो प्रत्येक मनुष्य करता है। मदिरा और चाय यहाँ का नित्य का पेय है। इन लोगों में सुंदर वस्त्र पहिनने का एक विशेष शौक़ सा जान पड़ता है। यहाँ बुद्ध धर्म का एकतंत्र राज्य है। सारे ही पर्वतीय तिब्बत प्रदेश में न वृक्ष, न पक्षी और न किसी प्रकार की व्यवस्थित बस्ती ही है। प्रायः लोग 'यन्त्र सायं गृहोमुनि' वाली कहावत चरितार्थ करते हैं। इनके न कोई निश्चित घर हैं और न किसी का डर। घूमते-फिरते जहाँ कहीं जल का सहारा और चारे का बाहुल्य देख पड़ा वहीं पर अपनी दुपाला तमोटी गाड़ दी और विश्राम किया। यहाँ पर यात्रियों को न भोजन और न रहने को भवन ही प्राप्त हैं। फिर अन्य सुख-सामग्री की कौन कहे। इस ओर यात्रा करने वालों को किसी समय भी अपनी भोजन-सामग्री में कमी पड़ जाए तो भूखों मरने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहे।
यात्रियों को अपने विश्राम के लिए अपने साथ ही डेरे ले जाने पड़ते हैं। दुर्दैव से कभी यह डेरे न रहें तो रहने को मृत्यु-मुख के अतिरिक्त और कोई स्थान न मिले। वैसे तिब्बत में कहीं भी जल-वृष्टि नहीं होती परंतु इस ऊँचाई पर तो हिम और ओले ही बरसते हैं। जल-वर्षा न होने से ये कपड़े के अस्थाई घर तमोटियाँ, भी पर्याप्त होता है। इस ओर कोई सीमित और निर्मित मार्ग तो है ही नहीं साथ ही नदी और नालों पर पुल भी नहीं बने हुए हैं परंतु फिर भी तिब्बती नदी नालों में जल बहुत गहरा न होने के कारण तिब्बती लोग यथा-तथा स्वयं तो पार हो ही जाते हैं साथ ही अन्य यात्रियों को भी पार उतार देते हैं घोड़ों आदि को तो पार होने में कुछ भी कठिनाई प्रतीत नहीं होती।
तिब्बत की भूमि प्रायः समतल और बंजर है। यहाँ पर न बहुत ऊँचाई और न नीचाई है, परंतु भूमि समतल और पाषाणयुक्त ही है। इस पाषाण भूमि में कृषि आदि का होना असंभव सा है। यहाँ के पहाड़ कच्चे हैं। और बर्फ़ीले पहाड़ सदा होते भी ऐसे ही हैं। इसके कई कारण हैं। एक मत है कि हिमाच्छादित होने के कारण पर्वतीय पाषाण भी पिघल कर टुकड़े-टुकड़े और मटियाले हो जाते हैं। दूसरा यह विश्वास है कि हिमाच्छादित पर्वत वह उच्च शिखर हैं जो किसी समय महासागर के जलसे सर्वथा प्लावित थे और कालचक्र से यह जल से बाहर स्थल पर सर्वोच्च पर्वत रूप दृष्टिगत होने लगे। परंतु यह चिरकाल जल प्लावित होने के कारण अपने कठोर पाषाण रूप से कोमल मिट्टी आदि से मिश्रित होकर कच्चे हो गए इसी प्रकार अन्य-अनेकों कारण बतलाए जाते हैं। कारण जो भी हो यह तो सत्य है कि तिब्बती पहाड़ कठोर पहाड़ी चलाने नहीं, अपितु मिट्टी और पत्थर मिले कच्चे पहाड़ हैं।
तिब्बत का सारा प्रदेश निर्जीव और शून्य है। यहाँ न कुछ प्राकृतिक सौंदर्य है और न अन्य किसी प्रकार के मनो-विनोद की सामग्री ही प्राप्त होती है। यह नीरस और मरुस्थल समान शुष्क और भयानक प्रतीत होती है। अनेकों बार मनुष्य भयभीत और एकाप्रचित्त हो बावला सा प्रतीत होता है। यहाँ की जलवायु अत्यंत शीतल है। शरीर का चर्म काला पड़ जाता है और बहुत बार ठंड से फट कर रुधिर प्रवाहित होने लगता है। यहाँ स्नान करना असंभव सा ही है। प्यास तो प्रायः लगती ही नहीं और क्षुधा क्षीण हो जाती है। प्रायः मनुष्य स्वस्थ्य प्रतीत होता है परंतु नित्य एक ही प्रकार का और वह भी अपूर्ण भोजन पाने से अनेकों स्वादों की इच्छा होती है। परंतु नित्य के निर्धारित भोजनों में अरुचि हो जाती है। अधिक ऊँचाई पर धारचीन से आगे क्षुधा कुछ मर सी जाती है और भोजन में अरुचि हो जाती है।
तिब्बत में कहीं जलवायु बहुत प्रिय और मधुर तथा विशेष स्वास्थ्यप्रद प्रतीत नहीं होता। हाँ, मानसरोवर के तट पर मन भावनी जीवनदायिनी मंद-मंद शीतल वायु बड़ी ही सुखदायी लगती है। सूर्य प्रातः बहुत शीघ्र उदय होता है परंतु वह पूर्ण शक्ति से प्रकाशित तो बहुत दिन चढ़े ही हो पाता है। कारण आकाश में प्रातः से बादल उसे घेर लेते हैं। दिन चढ़े सूर्य ताप तीन हो जाता है परंतु फिर भी गरमी नहीं लगती और शीतल वायु के वेग में सूर्यंताप शक्ति हीन सा ही रहता है। इस प्रकार यहाँ ठंड का ही अखंड राज्य स्थापित है। जल यद्यपि मधुर और स्वादिष्ट लगता है परंतु शीतल होने के कारण कुछ धूट भी पीने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। यदि तनिक प्यास लगी भी तो दो चार घूँट ही उसे तृप्त कर देते हैं। यह स्थान साहसियों के खोज और पर्यटन का है, न कि गर्मियों से डर कर भागे हुओं के लिए ठंडी हवा खाकर मौज उड़ाने का। यह स्थान कष्टकर ही नहीं अपितु भयंकर है। इस सब का अर्थ उत्साही युवकों का साहस संग करना नहीं और नाहीं खोज करने की तथा नए देशों के भ्रमण की प्रबल प्रवृत्ति को दबाना है। परंतु यह वास्तव में साधारण स्वभाव के और दुर्बल साहस के लोगों के जाने की जगह नहीं और नाहीं उनको दुस्साहस कर हतोत्साह होना चाहिए।
तिब्बत की सारी भूमि सर्वथा निर्मल और स्वच्छ है। यहाँ पर मक्खी मच्छर या खटमल का नाम भी नहीं। कोई पशु पक्षी भी देख नहीं पड़ता और नाही, मनुष्य, भेड़ बकरी के अतिरिक्त; किसी अन्य जीव जंतु के दर्शन होते हैं। इस प्रकार इस पथरीले महाक्षेत्र में स्वच्छता का साम्राज्य देख पड़ता है, परंतु यहाँ के निवासी अपने निवास स्थानों को भेड़ बकरियों की हड्डियों और उनके मल-मूत्र आदि से मैला और गंदा रखते हैं। उनकी प्रत्येक गुफाएँ डेरा आदि गाढ़ने का स्थान तथा अन्य निवास स्थान सबही पूर्णतया मैले-कुचैले देख पड़ते हैं। और कहीं भी सफ़ाई व झाड़ू श्रादिका प्रबंध नहीं है। तकलाकोट जैसी बड़ी मंडी की नालियाँ भी बिना झाड़े बुहारे गंदगी से सड़ती हैं।
तिब्बत में जनसंख्या बहुत थोड़ी और वह भी अस्त-व्यस्त सी है। ये लोग जहाँ-तहाँ दो चार मकान के छोटे गाँव में या चलते-फिरते उजाड़ डेरों में रहते हैं। यहाँ के असहनीय विषम और अतिशीतल जलवायु के कारण आबादी घनी हो ही नहीं सकती। इसी कारण यहाँ के लोग बहुत कठोर और कष्ट सहिष्णु हो जाते हैं। यहाँ के लोग विचित्र श्रेणियों में विभक्त हैं। वीदया, दावा, तथा नीको ये तीन श्रेणियाँ हैं। वीदया तिब्बत के व्यापारी, दावा कृषक और नीको चोर, ठग और मंगते होते हैं। इनके अलावा प्रायः लोग भेड़ बकरियों के पालने ऊन कातने और बुनने में ही लगे रहते हैं। इन लोगों को यहाँ का जलवायु इतना रुचिकर और हितकर प्रतीत होता है। कि वह शीतकाल में भी गर्व्याग से आगे भारतवर्ष में भी प्रवेश नहीं करते। कोई कोई शरद ऋतु में भारत-भ्रमण का साहस कर जाता है और श्रीष्म ऋतु में तो तिब्बतियों का भारत प्रवेश असंभव ही है।
यहाँ के लोगों के वेश, भाषा, और भूषा सब ही विचित्र और विभिन्न हैं। उनकी भाषा तिब्बती है। जिनका एक अक्षर भी हम समझ नहीं पाते। वहाँ पर पढ़ाई लिखाई का सर्व साधारण के लिए कोई भी प्रबंध नहीं है। केवल बौद्ध मठों में पढ़ाने लिखाने का प्रबंध है। साधारणतया यहाँ मनुष्य अशिक्षित हैं। उनके रहन-सहन के ढंग से वह जंगली से देख पड़ते हैं। उनमें स्वच्छता और सफ़ाई का नाम भी नहीं। उनके मूछ और दाढ़ी उगते ही नहीं, इसलिए वहाँ पर नाई और उस्तरा भी नहीं मिलता। पुरुष और स्त्री की आकृति एकसी ही देख पड़ती है। यहाँ के लोग सिर के भी बाल नहीं मुंडवाते। यह इनकी प्राचीन दास्य स्थिति के परिचायक हैं। इस विषय में कहा जाता कि मंचूरिया वालों ने तिब्बतियों को परास्त किया था। और इसी कारण तिब्बती लोगों को दंड के स्वरूप सिर के बाल रखने पड़ते थे। केवल बौद्ध भिक्षु और गुरु आदि ही सिर के बाल कटवा देते हैं।
वहाँ पर स्त्री और पुरुष दोनों ही एक से वस्त्र धारण करते हैं। ऊन के बुने ऊँचे तले के लंबे जूते पहिनते हैं जो उनके घुटनों तक पहुँचते हैं, और उनका लंबा चोग़ा सारे शरीर को पूर्णतया सुरक्षित रखता है। भेड़ की खाले विशेष गर्म होती हैं जिनके कपड़े बनवाए जाते हैं। व्यापारी लोग सुंदर-सुंदर, रंग-बिरंगे, भारतीय सूती तथा रेशमी कपड़े मंगा कर पहनते हैं। उनके सर की टोपी चीन की जैसी सुंदर बनी होती है जो बहुत मुलायम और बालों से भरपूर होती है। भेड़ के बच्चे मेमने की खाल की टोपियाँ भी बड़ी ही सुंदर बनती है। यह बस्त्र पुरुष और स्त्री सब ही पहनते हैं। कटार रखना तो वहाँ नियम सा है। यहाँ के लोग भयानक प्रतीत होते हैं परंतु वे निर्दयी और कठोर नहीं होते। यह लोग मनुष्य का माँस नहीं खाते।...और नर बध अपनी शक्ति भर बचाते हैं। इन में एक विचित्र दयालुता पाई जाती है। वह अपने अधीनस्थ स्त्री और बच्चों को कभी भी डराते अथवा धमकाते नहीं हैं। यह परस्पर लड़ते-झगड़ते भी नहीं। इनका सामाजिक जीवन प्रायः शांतिमय है, वैसे चाहे संतोष-जनक भले ही न हो। इनमें कोई सामाजिक नियम और संगठन तो है ही नहीं यह तो एक प्रकार से स्वच्छद और उच्छृखल बन पशु समान विचरते हैं।
साधारण सामाजिक जीवन असंगठित और असंतोषप्रद है। एक स्त्री अनेकों विवाह कर सकती है। इसी प्रकार पुरुषों के जीवन, विवाह और मरण के विधान और विधिया, कोई विशेष आमोद प्रमोद या या दिखावट की वस्तु नहीं है। वह संतान-उत्पत्ति पर कोई विशेष आनंदतोस्व नहीं मनाते। विवाह ऐच्छिक होता है और वर व कन्या के माता पिताओं की अनुमति ले ली जाती है। परित्याग और पुनर्विवाह प्रचलित है। विवाह-संस्कार विशेष उत्साह और सजधज के साथ किया जाता है। मृतक को प्रायः गाड़ते हैं या नदी में बहा देते हैं, अथवा खुले मैदानों में फेंक देते हैं, परंतु हिंदुओं के समान जलाए नहीं जाते। संभवत: इसका कारण लकड़ियों का दुष्प्राप्य होना है। भोजन आदि में किसी प्रकार का बंधन नहीं है। छुआछूत का कुछ विचार नहीं करते। कुछ लोग अपनी जीवनवृत्ति अपनी ज्योतिष विद्या द्वारा कमाते हैं। एक तार पर मधुर तान गा-गा कर यात्रियों को प्रसन्न कर भी कोई कोई पुरस्कार लेता हुआ मिल जाता है। यह वास्तव में भारत में सांरगी पर गाकर भीख माँगने वालों का अनुकरण है।
बौद्ध धर्म का सर्वत्र एक तंत्र साम्राज्य है। यहाँ की प्रजा इस धर्म में असीम श्रद्धा रखती है। यह धर्म प्रजा का ही नहीं वरन् राजसत्ता का भी है। बौद्ध धर्म से पूर्व बाहर के निवासी बहुत निर्दयी थे और उनका एक अपना ही संप्रदाय था। इस संप्रदाय के अनुयायी पौन या बौन अर्थात् पवित्र कार्यकर्ता कहलाते थे। इनका ईश्वर में विश्वास न था और बहुत घृणास्पद व भयानक मूर्तियों की पूजा करते थे। धर्म के नाम पर यह लोग बहुत अत्याचार करते थे। नरमेध यज्ञ भी कर डालते थे जिसमें मनुष्य का हवन करने में भी न हिचकते थे। उस समय तिब्बती लोग नर घातक कहलाते थे। ऐसे पूर्व इतिहास पर बौद्ध मत का प्रचार हुआ। इसके आगमन पर पूर्व प्रचलित कुरीतियाँ और प्रथाएँ बंद हो गई। इसके साथ साथ ही दैत्य और दानवों की पूजा भी लुप्त हो गई। बौद्ध धर्म के विरुद्ध सब कृत्य पूर्णतया त्याग दिए गए। बौद्ध धर्म और बुद्ध की शिक्षाओं पर प्रचार किया गया। जिसके कारण यहाँ के लोगों का बुद्ध धर्म ही एक-मात्र धर्म हो गया और इनके विषय में यह बात चरितार्थ होने लगी कि
एकहि व्रत और एकहि नेमा,
मन बच काय धर्म में प्रेमा।
बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार के साथ ही बौद्ध भिक्षुओं की जिन्हें यहाँ की भाषा में लामा कहते है, संख्या बढ़ने लगी। तब इन लोगों ने अपने पृथक-पृथक मत स्थापित किए। इन मठों का संचालन इन में से ही चुने हुए लामा गुरु द्वारा होने लगा। पुनः सारे तिब्बत प्रदेश में लामा गुरु आदि के समूह का भिन्न-भिन्न स्थानों पर मठ स्थापित कर बसना धार्मिक जीवन को आचरण और प्रचार करना यह सब सुसंगठित रूप में दलाई लामा के नेतृत्व में स्थापित होगया। दलाई लामा इस प्रकार सारे तिब्बत का पूज्य धार्मिक नेता के साथ साथ यहाँ का एकतंत्र शासक भी माना जाने लगा। इस प्रकार तिब्बत में धर्म और शासन दोनों एक ही व्यक्ति के अधीन संचालित होते हैं। विभिन्न स्थानों में जहाँ जहाँ बौद्ध मठ और गुफाएँ स्थापित हैं वहाँ का धार्मिक व्यवस्थापक गुरु और पुजारी बना कर एक अनुभवी लामा ल्हाशा से केन्द्रीय दलाई लामा द्वारा भेजा जाता है। यह लामा मठ का संचालक और मठवासियों का अध्यापक तथा नागरिकों के प्रचारक और उपदेशक का कार्य करता है।
ऐसे प्रत्येक मठ में अनेकों मूर्तियाँ आराध्य देव, दैत्य और दानवों की स्थापित हैं। इनके साथ-साथ एक सुंदर पुस्तकालय भी संयोजित है। इनमें सामूहिक प्रार्थना आराधना और उपासना होती है। इनका भोजन भी सम्मिलित ही होता है। भोजन के पूर्व और पश्चात् विशेष मंत्रों का एक स्वर में नित्य प्रति गान करते हैं। मठ के मध्यस्थ विशाल हॉल में प्रधान मूर्ति के सम्मुख जहाँ घी के दीपक जलते रहते हैं ऐसे शांत और गंभीर स्थान में अपने सामने दो पंक्तियों में सब मठवासी बैठते हैं और मध्य में गुरुदेव विराजमान होते हैं। इस प्रकार बैठ कर धार्मिक मंत्रों व भजनों का एक स्वर में मंद-मंद गान सारे मठ के वायुमण्डल में एक विचित्र धार्मिक लहर उत्पन्न कर देता है।
सिद्धांत रूप में बौद्ध धर्म ही तिब्बत में सर्वमान्य और प्रचलित है। आप सत्य चतुष्ट और अष्टाशिक आदि मूल सिद्धांद सर्व श्रद्धेय हैं। इनका यह अटल विश्वास है। कि अष्टाङ्गिक मार्ग से सर्व दुखों का अंत हो जाता है। इसी धर्म का प्रतिपादन बुद्ध भगवान की दस आज्ञाओं द्वारा किया गया है। जन्म-मरण के दुख से मुक्ति लाभ करना अन्य धर्मों के समान बुद्ध धर्म का भी परम आदर्श है। जीवन के सब दुखों के तीन कारण भोग अज्ञान तथा क्रोध बताए गए हैं। इनसे छुटकारा पाया हुआ व्यक्ति ही सर्वोच्च निर्वाण पद प्राप्त कर सकता है।
बुद्ध धर्म का जन्म सर्वप्रथम भारत में हुआ। जिस समय भारत भूमि में यज्ञों में पशुवध तक किया जाना धर्म बन गया था, दया धर्म का भाव लुप्त हो गया था, अन्याय युक्त कर्म करते हुए भी मनुष्य धर्मात्मा समझा जाता था, उस समय भगवान बुद्ध ने जन्म धारण किया।
चाहे तिब्बत के जन साधारण बुद्ध धर्म के महान तत्वों को न समझते हों परंतु इसमें उनकी अपार भक्ति है। वे भूत प्रेतादि से सदा भयभीत रहते हैं। पाप के नाम पर काँप उठते हैं। वह लोग मुक्ति का मार्ग केवल दलाई लामा के द्वारा प्राप्त हो सकना मानते हैं। तिब्बत में सर्वत्र धर्म पाया जाता है। ल्हासा का महा गुरु लामा सारे प्रदेश का एक मात्र शासक है। तिब्बत का यह राजा, महागुरु सदा अल्प वयस्क रहता है। प्रौढ़ आयु का होने पर शासन की बाग डोर अपने हाथ में नहीं ले पाता। यह वास्तव में वहाँ के राज्यमंत्रियों का एक प्रकार से प्रपंच है। उनकी यही योजना है। कि लामा गुरु अल्प वयस्क ही रहे और उन पर कोई प्रभुत्व स्थापित न करने पावे।
एक लामा महागुरू की मृत्यु पर दूसरा उसी समय के उत्पन्न हुए बच्चों में से छाँटकर नियुक्त कर लिया जाता है। यह उसी बच्चे को अवसर प्राप्त हो सकता है। जो पूर्व जन्म में भी लामा रहा हो और उसकी स्मृति शेष हो। जिसके आधार पर वह प्रमाणित कर सके कि वह पूर्व जन्म में भी लामा था। पूर्व जन्म की स्मृति तो लामा गुरुओं में साधारण प्रवृत्ति और प्रचलित रीति सी जान पड़ती है।
तकलाकोट के समीप खोजरनाथ के प्रसिद्ध बौद्ध भठ के निकट ही एक और मठ है। जिसका गुरु लामा इस समय पंद्रह वर्षीय युवक है। इसके विषय में भी यही कहा जाता है कि यह जन्म के पाँच वर्ष पश्चात् ही अपने बाल्यकाल में ही इस स्थान पर आ गया था और इसने अपने आपको पूर्व जन्म का लामा होना सिद्ध कर कर दिया था। इसने अपने आपको यहीं का लामा सिद्ध कर दिया था।
तिब्बत में कोई व्यवस्थित या लिखित राज्य-नियम नहीं हैं। राज्याधिकारी अपनी मनमानी करते हैं। न कोई नियम हैं, न न्यायालय हैं और न वकील आदि हैं। समस्त राज्य अनियमित रूप में चलता है। राज्यशक्ति और बल प्रजा का अटल विश्वास ही है। राज्य संचालन कार्य को सुविधा पूर्वक चलाने के लिए इसे दो भागों में विभक्त कर रखा है। (1) राज्यकर प्राप्त करना और व्यापार चलाना तथा (2) साधारण व्यवस्था करना।
राज्यकर वसूल करने वाले अधिकारी तर्जुम व छस्युं कहलाते हैं। यह लोग भारत के तहसीलदारों के समान कर वसूल करने के अतिरिक्त सरकारी व्यापारिक मार्ग, व्यापार तथा डाक की देख-रेख करते हैं। सरकारी व्यापारी युङ्गचुङ्ग की सहायता करना भी इनका काम है। तर्जुम का निर्धारित हल्का होता है जिसमें वह अपने आधीन चौकीदार नियुक्त करके अपना कार्य चलाता है। उसका हल्का प्रायः इतनी दूर में होता है जितनी दूर में घोड़ा एक दिन में चलकर पहुँच सके। इसका कारण यह बताया जाता है कि तर्जुम डाक के कार्य भी चलाता है। डाक लेजाने वाला एक तर्जुम के पास से चलकर दूसरे के पास ही ठहरता है। इस प्रकार यहाँ बीस से ऊपर तर्जुम हैं।
तर्जुम सब से छोटा और नीचे का राज्याधिकारी है परंतु फिर भी किसी के अधीन नहीं।
इसके पश्चात् जुंगपन, करबन, रिम्मां, झिम्मां तथा सिफ़ै सिटै हैं। जुंगपन भारत के राज्य कर्मचारी डिप्टी कलक्टर या कलक्टर के समान है शेष सब इससे ऊँचे पद के राज्यकर्मचारी समझने चाहिए। जुंगपन कर वसूल करने के साथ-साथ चाय व नमक का व्यापार तथा साधारण राज्य-व्यवस्था के समस्त कार्यों का संचालन करता है।
नमक और चाय प्रत्येक तिब्बती को अवश्य ही मोल लेनी होती है। जुंगपन का आतंक प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में रहता है। यह जिसे चाहे अपने नौकर को भेज कर बुला लेता है। अपराधी को दंड देना इसका दैनिक कर्म है। यहाँ पर कोड़ों की सजा प्रायः प्रचलित है।
जुंगपन की नियुक्ति प्रायः तीन से पाँच वर्ष तक के लिए होती है परंतु विशेष प्रशंसनीय कार्य करने पर यह अवधि बढ़ा दी जाती है। यह ल्हासा से सीधा नियुक्त हो कर आता है। इस को वेतन के स्थान पर भूमि कर का कुछ भाग मिलता है। अपना कर प्राप्त करके शेष केन्द्रीय स्थान पर भेज देते है। कभी कभी पक्का भोजन ही कर स्वरूप मिलता है जिसे सुखा कर यह लोग रख लेते हैं।
इस ओर के सभी जुंगपनों में तकलाकोट के जुंगपन का विशेष स्थान है जिसका कारण तकलाकोट का विशाल मंडी होना है।
करबन या गरफ़न, जुंगपन से ऊपर का राज्याधिकारी है। यह तिब्बती वायसरॉय के समान है। इस भाग का वह सर्व स्वामी है। इसका मुख्य स्थान गरटक है। यहाँ शीत काल में विशेष शीत पड़ती है। करबन का एक सहायक अधिकारी होता है। इनका पद भी जुंगपन के समान तीन या पाँच वर्ष के लिए होता है। विशेष कारणों से अवधि बढ़ भी जाती है। इनको भी वेतन के स्थान में भूमि ही मिलती है इनके पास एक छोटी सी सेना भी रहती है। करबन से उच्च पदाधिकारी तो सिफ़ै-सिटै ही होते हैं। यह वास्तव में केन्द्र राज संचालक मंत्री हैं। इन्हीं के द्वारा ल्हासा से सारे राज्य का शासन किया जाता है। इस प्रकार यह नियम विहीन तिब्बती राज्य की राजपद्धति है जहाँ पर डकैत और अन्य धर्म भक्त दो विपरीत दिशाओं में बहने वाले महा अव्यवस्थित दल बसते हैं। एक हैं महा निशंक और निरंकुश और दूसरे महाभीरु।
इस अध्याय में तिब्बत प्रदेश का संक्षिप्त और साधारण मानचित्र मात्र खींचने का प्रयत्न किया गया है। वास्तव में तो इस अज्ञ स्थान का पूर्ण विवरण प्राप्त करना सरल कार्य नहीं। परंतु तिब्बत के इस भाग की जहाँ कैलाश मानसरोवर, तकलाकोट तथा ज्ञानिमा जैसे स्थान स्थित हैं उपेक्षा तो कदापि नहीं की जा सकती। साहसी विद्यार्थियों के लिए जिनकी पर्यटन प्रकृति हो ऐसे भू-भाग में भ्रमण करना भी आवश्यक है और वह संभवतः कष्टकर होते हुए भी मनोरंजक होगा।
- पुस्तक : कैलाश पथ पर (पृष्ठ 118)
- रचनाकार : रामशरण विद्यार्थी
- प्रकाशन : शारदा मंदिर लिमिटेड
- संस्करण : 1937
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