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हीरामंडी और पार्टीशन का असली ज़िम्मेदार

hiramanDi aur partition ka asli zimmedar

कमलेश्वर

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हीरामंडी और पार्टीशन का असली ज़िम्मेदार

कमलेश्वर

और अधिककमलेश्वर

    एक बातचीत से बात शुरू करूँ। इक़बाल हुसैन कौन हैं, यह तो बाद में मालूम पड़ेगा, पर उनकी एक बात यहाँ पहले ही नोट कर दूँ। इक़बाल हुसैन के एक दोस्त बोले—देखिए जनाब, सीधी-सी बात है, और मैंने देखी और महसूस की है। जब आदमी ग़रीब होता है और वह ख़ुद को शोषण का शिकार पाता है, तब वह मज़हब की तरफ़ भागता है और देखते-देखते कट्टर मज़हबी हो जाता है और जब वह कट्टर मज़हबी आदमी सरकारी ताक़तवरों के बीच अपनी मन मुआफ़िफ़ जगह नहीं बना पाता तो वही फैनेटिक जेहादी हो जाता है!...भाईजान, मैंने तो यहाँ हीरामंडी में सब तरह के लोग आते देखें हैं...कौन है जो यहाँ नहीं आता।

    यह बताने की ज़रूरत तो शायद नहीं है कि हीरामंडी लाहौर का ही नहीं, बल्कि एशिया का सबसे बड़ा वेश्या-बाज़ार है। जानने वाली बात यह है कि इस वेश्या बाज़ार में बहुत-से ख़ानदान ऐसे हैं जो पुश्तों से इसी धंधे में हैं। वेश्याओं का यह पुश्तैनी सिलसिला एशिया के अन्य शहरों या भारत-पाक के अन्य सैक्स बाज़ारों में नहीं मिलता। यहीं के एक वेश्या ख़ानदान के बेटे हैं इक़बाल हुसैन! उनका ख़ानदान पुश्तों से इसी धंधे में है। उनसे हमारी मुलाक़ात होनी ही थी क्योंकि सार्क देशों के सारे लेखकों का तो नहीं, पर मेज़बानों ने हिंदुस्तानी लेखकों की एक शाम का खाना 'कुक्कूज़ नेस्ट' में रखा था। इक़बाल हुसैन साहब इसी मशूहर होटल के मालिक हैं। यह होटल हीरामंडी इलाक़े में बादशाही मस्जिद के ऐन सामने हैं। रात को रोशनियों से सजी, जगमगाती बादशाही मस्जिद का नज़ारा भुलाया नहीं जा सकता। वैसे भी पाकिस्तान में कुदरती गैस और बिजली की इफ़रात है। सिर्फ़ लाहौर ही नहीं, पाकिस्तान का हर शहर बिजली से जगमग करता रहता है। तो हम 'कुक्कूज़ नेस्ट' होटल में पहुँचे, वहीं मेंरी मुलाक़ात उसके मालिक इक़बाल हुसैन के एक नज़दीकी जानकार और दो-तीन अन्य पाकिस्तानी दोस्तों से हुई। सबके नाम लिखना मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि कुछ ऐसी बातें भी इन्होंने कही, जो लिख देना तो आसान है, पर इत्तफ़ाक़ से कभी कहीं किसी सिर-फिरे द्वारा पढ़ ली गई तो बबाल खड़ा हो सकता है।

    तो हीरामंडी में बादशाह मस्जिद के सामने खड़ी है यह 'कुक्कूज़ नेस्ट' वाली हवेली। यह पाँच मंज़िली है। हम भारतीय लेखकों के लिए खाने का इंतज़ाम पाँचवीं मंज़िल पर किया गया था। रसोई नीचे है और खाने का सारा सामान उसी तरह आता था। जैसे कुएँ से रस्सी के ज़रिए पानी खींचा जाता है। वहाँ घुसते ही खाने की महक आई, ज़बरदस्त मुग़लई खाना था। छत से बादशाही मस्जिद और हीरामंडी का काफ़ी इलाक़ा दिखाई देता था। यह पुरानी हवेली है। पतले ज़ीनों से ऊपर जाना होता है। यह जानकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि हर मंज़िल पर सजावट के लिए हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मौजूद हैं। दूसरी या तीसरी मंज़िल पर हनुमान की संगमरमर की चार फुट की मूर्ति मौजूद है। हनुमान के अलावा लक्ष्मी और अन्नपूर्णा की मूर्तियाँ भी यहाँ मौजूद हैं। और उन पर सूखी या आधी सूखी मालाएँ भी चढ़ी हैं और ताज़े फूल भी। यानी वह फूल हमारी वजह से दिखावे के लिए नहीं चढ़ाए गए थे।

    इक़बाल हुसैन की उम्र लगभग पचास साल है, वे पेशे से होटल वाले नहीं, पेंटर हैं। उनका ख़ानदान वेश्याओं का है। उनकी माँ पेशे में थीं और अब उनकी बहनें भी पेशे में ही हैं। उनके ख़ानदान की औरतों का यह पुश्तैनी पेशा है। उनकी बड़ी बहन उन्हें आर्ट स्कूल में पढ़ाना चाहती थीं। वे पेशे में हैं, उन्होंने ही इक़बाल को मनाया कि वह नेशनल कॉलेज ऑफ़ आर्ट में दाख़िला ले लें। फ़ीस वग़ैरह का खर्च़ा बहन ही उठाती थीं। पेंटर के रूप में इक़बाल हुसैन ने हीरामंडी की वेश्याओं की ज़िंदगी को लेकर ही सारी पेंटिंग्स बनाई हैं। पहली बार जब वह अपनी पेंटिंग्स की नुमाइश करना चाहते थे तो तत्कालीन फ़ौजी तानाशाह जिया-उल-हक ने सरकारी हुक्मनामा जारी करवा दिया था कि नुमाइश के लिए उन जैसे गिरे हुए पेंटर को कोई गैलरी नहीं दी जाए। पेंटर इक़बाल हुसैन को किराए पर कोई गैलरी नहीं मिली, तो उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की नुमाइश पटरी पर लगाई, जिसे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। उसके बाद पेंटर के रूप में इक़बाल हुसैन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पिछले साल वर्ल्ड बैंक इस्लामाबाद ऑफ़िस ने उनकी पेंटिंग्स की नुमाइश अपने कार्यालय में लगाई और हीरामंडी की वेश्याओं की देखभाल के लिए 480 लाख डॉलर का कर्ज़ा मंज़ूर किया, जोकि वर्ल्ड बैंक ने पाँच साल के लिए पाकिस्तान सरकार को दिया है ताकि हीरामंडी की पेशेवर तवायफ़ों की ज़िंदगी में सुधार हो सके। हालाँकि इक़बाल हुसैन का बहुत प्रोफ़ेशनल विरोध हुआ पर अब वे उसी नेशनल कॉलेज ऑफ़ आर्ट में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।

    यह 'कुक्कूज़ नेस्ट' होटल इक़बाल साहब ख़ास तौर से उन वेश्याओं की आर्थिक मदद के लिए चलाते हैं जो बूढ़ी हो गई हैं। वैसे उनका यह होटल चलता भी अच्छा है। यों पाकिस्तानी खाने-पीने के बहुत शौक़ीन हैं। सिर्फ़ लाहौर के होटल, ढाबे या फूड-स्ट्रीट ही नहीं, इस्लामाबाद और कराची के होटल-रेस्तरा-ढाबे भी ख़ूब चलते हैं। एक तरह से कहें तो पाकिस्तान का मध्यवर्ग रात का खाना बाहर खाना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य समझता है।

    मैं खाना खाकर पाँचवीं मंज़िल से काफ़ी पहले उतर आया था। दोस्त लोग क़ुल्फ़ी और फिरनी का मज़ा ले रहे थे, मैं दो-तीन पाकिस्तानी दोस्तों की बेलाग बातों का मज़ा ले रहा था। वे बातें बहुत अहम थीं। सामने बादशाही मस्जिद थी इसलिए चर्चा शाही हरम और हरम की औरतों पर चल पड़ी। एक दोस्त कह रहे थे—जनाब! औरत के लिए यह जो कहा जा रहा है कि वेश्यागीरी उसका सबसे पुराना पेशा है, यह क़तई ग़लत है। सच्चाई यह है कि यह पेशा तब से चल पड़ा, जब पुराने वक़्तों में सल्तनत और हुकूमत के लिए लड़ाइयाँ हुआ करती थीं। औरतें बेवा हो जाती थीं तो उन्हें जीने के लिए यह पेशा करना पड़ता था। वैसे भी हमेशा से मर्द बिना किसी ज़िम्मेदारी के सैक्स का मज़ा लेना चाहता रहा है। असल में वेश्यागीरी का रिवाज़ बादशाहों और सुल्तानों के हरम के रिवाज़ से फला-फूला। हरम में चाहे रखैलों को जितना महफ़ूज़ रखने की बातें की जाएँ, पर असल में शाही हरम चकलाघरों के अलावा कुछ नहीं थे। ख़ुद हीरामंडी का वह इतिहास मौजूद है जो बताता है कि दूर-दूर तक के सुलतानों-नवाबों-बादशाहों-ज़मींदारों के हरमों में यहीं से लड़कियों जाती थीं और अधेड़ होने पर यहीं लौटा दी जाती थीं। इसी से जिस्म फ़रोशी की मंडियों की आबादी बढ़ती रही...जी और रही औरंगज़ेब जैसे बादशाह के कारनामें...तो यह जो कहा जाता है कि वह पाक कुरान की कापियाँ बनाकर और टोपियाँ सिलकर अपना निजी खर्च़ा चलाता था। यह सब निहायत बकवास है। औरंगज़ेब बेहद अय्याश बादशाह था। उसके हरम की लड़कियाँ हर महीने बदली जाती थीं और सैकड़ों लड़कियाँ-औरतें हर महीने शाही हरम से बेदख़ल करके शहरों की सेक्स मंडियों में रोज़ दी जाती थीं। हीरामंडी जैसे जिस्म के बाज़ार शाही हरमों की रवायत का ही सिलसिला हैं...और जानते हैं, यह हरामी लफ़्ज़ कहाँ से आया? यह हरम से ही निकला हैं...

    इन और ऐसी कई रेडिकल बातों के बाद आख़िर में मसला भारत-पाक पार्टीशन पर गया तो एक भाई ने बड़े मार्के की बात कही—आप हिंदुस्तान जाके अपने हिंदुओं (उनका मतलब हिंदुत्ववादियों से था) से पूछिएगा कि भारत-पाक पार्टीशन क्यों हुआ? वैसे तो सदियों से हिंदुस्तान की मशहूर और मालामाल सरज़मीं पर क़रीब-क़रीब हर मुल्क का कोई कोई हमलावर आया, उसने हिंदुस्तान को लूटा। आने वालों में सबसे ज़्यादा तादाद तो तुर्कें-पठानों की रही, इसके अलावा बाहरी मुल्कों से यूनानी, ईरानी, तूरानी भी आए। यह बाहरी लोग बहुत बड़ी तादाद में हिंदुस्तान में बस गए। उसे अपना मुल्क मान लिया। बाबर ख़ुद आगरा में दफ़न किया गया और यह तमाम बाहरी लोग यूनानियों को छोड़कर मुसलमान थे, इस्लाम इनका मज़हब था। कहा जाता है कि तलवार के ज़ोर पर इन तमाम बाहरी मुसलमानों ने हिंदुस्तान में इस्लाम फैलाया। हो सकता है कि मेरे पुरखे भी हिंदू रहे हों और तलवार के डर से उन्होंने इस्लाम मंज़ूर किया हो...यह तमाम बाहरी मुसलमान लोग अँग्रेज़ों और पार्टीशन के वक़्त तक अनडिवाइडेड मुल्क में मौजूद थे। अब भाई जान! सोचिए और अपने हिंदुओं (हिंदुत्ववादियों-कट्टरपन्थियों) से पूछिए कि क्या बाहर से आए और पीढ़ियों से इसी मुल्क में बस गए किसी बाहरी मुसलमान के ख़ानदान या वारिस ने पार्टीशन-पाकिस्तान माँगा था? उनका तो ख़ून बाहरी था, वो माँगते तो बात दूसरी थी, पर पाकिस्तान की माँग तो कनवर्टेड मुसलमानों ने की थी, जो सदियों से पुश्तैनी तौर पर हिंदू ख़ून और समाज का हिस्सा रहे थे।

    दो क़ौमों का सिद्धांत देने वाले और उसे पार्टीशन के तौर पर लागू करने वाली दोनों शख़्शियतें अल्लामा इक़बाल और मुहम्मद अली जिन्ना, दोनों ख़ानदान कनवर्टेड मुसलमानों के ख़ानदान थे, जो सिर्फ़ तीन पीढ़ी पहले मुसलमान बने थे। अल्लामा इक़बाल के पुरखे कश्मीर के पंडित थे और जिन्ना साहब के पुरखे राजस्थान-पंजाब बार्डर के राजपूत थे। तीन पीढ़ी पहले जब इन दोनों के ख़ानदानों ने इस्लाम मंज़ूर किया था, तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मुसलमान बनाए जाने का दौर ख़त्म हो चुका था। मुग़ल बादशाह हर तरह से बहुत कमज़ोर पड़ चुके थे। अल्लामा इक़बाल के ख़ानदान ने जब इस्लाम मंज़ूर किया, उस वक़्त कश्मीर में मुसलमानों का राज नहीं था। तब सिखों के महाराजा रंजीत सिंह के हाथों से निकलकर जम्मू-कश्मीर अँग्रेज़ों के क़ब्ज़े में चुका था। जब अल्लामा इक़बाल के तीन पीढ़ी पहले के पुरखों ने इस्लाम क़बूल किया था, तब जम्मू कश्मीर का राज्य या तो महाराज गुलाब सिंह के अधीन आने वाला था। या गया था। मुहम्मद अली जिन्ना के राजपूत घरवालों ने जब इस्लाम मंज़ूर किया, उस वक़्त राजस्थान या पंजाब में किसी मुसलमान सूबेदार या मनसबदार का राज नहीं था, कि धर्म परिवर्तन के लिए जोरज़बरदस्ती हुई हो।

    इसलिए जब वापस भारत जाएँ तो ज़रा अपने हिंदुओं (हिंदुत्ववादियों) से पूछिएगा कि पार्टीशन की माँग कनवर्टेड मुसलमानों ने क्यों उठाई? अगर आनी ही थी तो यह माँग बाहरी ओरिजन के मुसलमानों की तरफ़ से आती! तो ज़रा हिंदुओं (हिंदुत्ववादियों) से कहिए कि ईमानदारी से अपने दिल, दिमाग़, और इतिहास को टटोलें, तो इस सच्चाई का उत्तर मिल, जाएगा कि पार्टीशन क्यों हुआ और किनकी वजह से हुआ!...आख़िर सदियों के दौरान हिंदुओं में से ही तो बौद्ध, जैनी, मुसलमान और सिख टूटते रहे हैं, वह क्यों टूटे...? सच पूछिए तो पार्टीशन का तिहरा नुक़सान कांटिनेंट के मुसलमान ने उठाया है!

    अगली बातचीत यों शुरू हुई यह माना कि जम्मू-कश्मीर का मामला सियासी बिसात में फँस गया है। भारत कहता है कि कश्मीर उसके सेकुलर सिद्धांत का मुकुट है, कश्मीर घाटी को मुसलमानों की अक्सरियत की बिना पर पाकिस्तान को दे दिया जाए, यह भारत को मंज़ूर नहीं है, क्योंकि वह तो दो क़ौमों के सिद्धांत को मान लेना होगा। भारत के इस तर्क में कोई दम नहीं है। पाकिस्तान ने कभी नहीं कहा कि कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडित निकले जाएँ, तब घाटी हमारी होगी। वह तो पूरे कश्मीर की माँग करता है, जिसमें जम्मू के हिंदू भी हैं और लद्दाख के बौद्ध भी शामिल हैं। पाकिस्तान यह कह ही नहीं सकता कि जम्मू-लद्दाख से उसका लेना-देन नहीं है और फिर उस तर्क को भूल जाइए जो पाकिस्तान के पहले प्राइम मिनिस्टर लियाक़त अली साहब ने दिया था कि हम पहाड़ों और चट्टानों (यानी जम्मू-कश्मीर) को लेकर क्या करेंगे? हमें असल में हैदराबाद मिलना चाहिए (तब तक हैदराबाद रियासत भारत का हिस्सा नहीं बनी थी) क्योंकि वहाँ के निजाम साहब पाकिस्तान समर्थक थे और उनकी रियासत किस मुल्क का हिस्सा बनेगी, यह उस रियासत का सदर तय करने वाला था!...तो भाईजान, अब तो हालात वह नहीं हैं। जिन्ना साहब ने तो जोधपुर और उदयपुर रियासतों को पाकिस्तान में शामिल होने की ज़बरदस्त पेशकश की थी, वहाँ के महाराजाओं से उन्हें कोई उल्टी प्रतिक्रिया भी नहीं मिली थी...बहरहाल...तो अब तो ख़ैर जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में शामिल होना नामुमिकन है, पर अगर यह मुमकिन भी होता है तो पाकिस्तान को सामरिक और महत्वपूर्ण ज़रूरतों के लिए कश्मीर घाटी से ज़्यादा लद्दाख की ज़रूरत है।

    ...और फिर सवाल पानी का भी तो है। कश्मीर-लद्दाख से होकर बहने वाली नदियों पर भारत का क़ब्ज़ा है। भारत चाहे तो पाकिस्तान को प्यासा मार सकता है...पाकिस्तान के लिए जम्मू-कश्मीर का मसला सिर्फ़ मुसलमान अक्सरित का नहीं, पानी का भी है, जो घाटी के मुसलमानों से कहीं ज़्यादा बड़ा मसला है। इस सच्चाई को अगर समझें तो कश्मीर का मसला मात्र दो क़ौमों के सिद्धांत का मसला नहीं रह जाता, जिससे आप लोग चिढ़ते हैं। पाकिस्तान के कुछ लोग कश्मीर घाटी में मुसलमान अक्सरियत का हवाला देकर यह जो कहते हैं कि दो क़ौमों के सिद्धांत के तहत कश्मीर को हासिल करना पाकिस्तान की पहली ज़रूरत है। वे निहायत ग़लत बात करते हैं। उन्हें मालूम होना चाहिए कि हमारा पाकिस्तान बन तो गया लेकिन हमें जीना भी है। इसके अलावा दो क़ौमों के सिद्धांत के आधार पर जम्मू-कश्मीर रियासत का बँटवारा हो ही नहीं सकता क्योंकि कश्मीर में सवाल इस्लाम का उतना नहीं, जितना कश्मीरियत का है! पानी का है!

    तीसरा दोस्त बोला, एक बात आप लोग भूल जाते हो...आज जो पाकिस्तान है, यह इलाक़ा सदियों से हमलावरों का रास्ता रहा है। सिकंदर से लेकर बाबर तक सब यहीं से आए या गुज़रे, इसलिए यह क्षेत्र हमेशा अशांत और युद्ध के लिए तैयार रहा है। इस इलाक़े के लोगों के ख़ून में गोला-बारूद शामिल रहा है। इसलिए पाकिस्तान में जब भी फ़ौजी तानाशाही आई तो लोगों ने, अवाम ने पसंद तो नहीं किया, पर हम हमेशा यह मानकर चलते रहे हैं कि ठीक है, फ़ौजी आए हैं तो आने दो, इनसे निपट लेंगे...वैसे भाईजान! यहाँ का सिविलियन रूल इतना नाकारा था कि अवाम ने परवेज़ मुशर्रफ़ के आगमन पर अगर ख़ुशियाँ नहीं मनाई तो गहरा सदमा भी नहीं सहा। अब हम फ़ौज के आने-जाने के सदमें को सहने के आदी हो गए हैं...हमारे अवाम, अदीबों पत्रकारों में फ़ौजी हमलावरों का सामना करने की वह ज़बरदस्त ताक़त है जो हमें सदियों के अनुभव ने दी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आँखों देखा पाकिस्तान
    • रचनाकार : कमलेश्वर
    • प्रकाशन : राजपाल
    • संस्करण : 2015

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