अपना मालवा खाऊ-उजाड़ू सभ्यता में

apna malava khau ujaDu sabhyata mein

प्रभाष जोशी

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अपना मालवा खाऊ-उजाड़ू सभ्यता में

प्रभाष जोशी

और अधिकप्रभाष जोशी

    उगते सूरज की निथरी कोमल धूप राजस्थान में रह गई। मालवा लगा तो आसमान बादलों से छाया हुआ था। काले भूरे बादल। थोड़ी देर में लगने लगा कि चौमासा अभी गया नहीं है। जहाँ-जहाँ भी पानी भरा हुआ रह सकता था लबालब भरा हुआ था, मटमैला बरसाती पानी। जितने भी छोटे-मोटे नदी-नाले दिख रहे थे, सब बह रहे थे। इससे ज़्यादा पानी अब यह धरती सोख के रख नहीं सकती थी। ऊपर से बादल कि कभी भी बरस सकते थे।

    नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घट-स्थापना की तैयारी। गोबर से घर-आँगन लीपने और मानाजी के ओटले को रंगोली से सजाने की सुबह। बहू-बेटियों के नहाने-धोने और सजकर त्योहार मनाने में लगने की घड़ी। लेकिन आसमान तो घऊँ-घऊँ कर रहा था। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी। मैं, उजली-चटक धूप, लहलहाती ज्वार—बाजरे और सोयाबीन की फ़सलें, पीले फूलोंवाली फैलती बेलें और दमकते घर-आँगन देखने आया था। लेकिन लग रहा था कि पानी तो गिर के रहेगा। ऐसा नहीं कि नवरात्रि में पानी गिरते देखा हो। क्वांर मालवा में मानसून के जाने का महीना होता है। कभी थोड़ा पहले भी चला जाता है। इस बार तो जाते हुए भी जमे रहने की धौंस दे रहा है।

    नागदा स्टेशन पर मीणा जी बिना चीनी की चाय पिलाते हैं। सारे ज़रूरी समाचार भी देते हैं। गई रात क्वालालंपुर में भारत के हारने से दुःखी थे। पूछने पर ही मौसम और खेती पर आए, “हाँ, अबकी पानी भोत गिर्यो। किसान कै कि हमारी सोयाबीन की फ़सल तो गली गई। पण अब गेहूँ-चना अच्छा होयगा। सार में उनने कहा और दुकान में लग गए। चाय और भजिया उनने अच्छा बनवा के दिया था। हम मियाँ-बीवी मज़े में खाते-पीते उज्जैन पहुँच गए। रास्ते में शिप्रा मिली। मैया ऐसी भरपूर और बहती हुई तो बरसों में दिखी थी। गए महीने टीवी पर लाइन पढ़ी थी कि उज्जैन में शिप्रा का पानी घरों घुस गया। भोपाल, इंदौर, धार, देवास सब में झड़ी लगी थी। सब जगह फ़ोन लगा के पूछा था। ख़तरा कहीं था, लेकिन सब को पुराने दिन याद गए थे।

    अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। इसलिए पहले का औसत पानी भी गिरे तो लोगों को लगता है कि ज़्यादा गिर गया। इस बार भी बरसात वही चालीस इंच गिरी है। कहीं ज़्यादा है कहीं थोड़ी कम। लेकिन लोग टीवी की समझ में अत्ति की बोलने लगे हैं। उज्जैन से देवास होते हुए इंदौर जाना मालवा के आँगन में से निकलना है। क्वांर की धूप होती तो भरी-पूरी गदराई हरियाली से तबीयत झक हो जाती, लेकिन कुएँ-बावड़ी और तालाब-तलैया के लबालब भरे, नदी-नालों को बहते और फ़सलों को लहराते देखो तो क्या ग़ज़ब की विपुलता की आश्वस्ति मिलती है! ख़ूब मनाओ दसेरा-दिवाली। अबकी मालवो ख़ूब पाक्यो है।

    इंदौर उतरते ही गाड़ी में सामान रखते दव्वा को कहा कि अपने को सब नदियाँ, सारे तालाब, सारे ताल-तलैया और जलाशय देखने हैं। सब पहाड़ चढ़ने हैं।

    उसने मुसकुराते हुए कहा—यहीं से?

    नी यार पेले माता बिठायंगा।

    माता तो बैठ गई, आरती भी हो गई ताऊजी, एक बजनेवाला है।

    बाद में पाया कि उमर भी अब सत्तर की हो जाएगी। पहाड़ चढ़े नहीं जाएँगे। नदी-नाले पार नहीं होंगे। सूखती सुनहरी घास बुलाएगी लेकिन उस पर लेटकर रड़का नहीं जा सकेगा। मन से तो किशोर हो सकते हो। शरीर फिर वैसा फुर्तीला, लचीला और गर्वीला नहीं हो सकता। उमर जो ले गई उसे ले जाने दो। उसका जो है, रखे। अपना जो है उसे जिएँ।

    इस त्रासदायी प्रतीति के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी। ओंकारेश्वर में उस पार से। सामने सीमेंट कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध उस पर बनाया जा रहा है। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी। मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचाकर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिंग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुर्राते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वांर की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ़ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी ख़ूब पानी और गति है।

    नेमावर के पास बजवाड़ा में नर्मदा शांत, गंभीर और भरी-पूरी थी। शाम हो जाने पर भी जैसे अपने अंदर के मंदे उजाले से गमक रही थी। चवथ का चाँद उस पर लटका हुआ था। मिट्टी की ऊँची कगार पर पेड़ों के बीच बैठे हुए हम चुपचाप उसे प्रणाम कर रहे थे। भेन जी ने जैसे उसे सहलाते हुए कहा—थक गई है। देखना अब रात को बहेगी।

    रातभर हम उसके किनारे ही सोए। सबेरे उठकर फिर जैसे उसके नमन में उसके किनारे बैठे। अब वह शांत बह रही थी। अपन घाट नीचे नर्मदा किनारे के लोग। भेन जी गंगा किनारे की। हम नदी को नदी नहीं माँ मानते हैं। नर्मदा मैया है। उससे हम बने हैं। उसके किनारे बैठना माँ की गोद में डूबना है।

    ओंकारेश्वर और नेमावर जाते हुए दोनों बार विंध्य के घाट उतरने पड़े। एक तरफ़ सिमरोल का घाट, दूसरी तरफ़ बिजवाड़। दोनों में सागौन के जंगल। पत्ते खाँखरे होते हुए, फिर भी फुनगियों पर फूल के झल्ले। सिमरोल के बीच से चोरल ख़ूब बहती हुई मिली। बिजवाड़ में हर नाला बह रहा था। हर पहाड़ी नदी की रपट पर पानी था। बचपन में पितृपक्ष और नवरात्रि पर ऐसा ही पानी मिलता था। सारे नदी, नाले ऐसे ही कलमल करते जीवित हो उठते थे। पहाड़ों के सीने में कितने स्रोत हैं। सब बहें तो नीचे की काली मिट्टी ख़ूब उमगकर फल-फूल और अन्न देती है। नेमावर के रास्ते पर ही केवड़ेश्वर है जहाँ से शिप्रा निकलती है। कालिदास की शिप्रा। बहुत बड़ी नदी नहीं है। लेकिन उज्जैन में महाकाल के पाँव पखारे तो पवित्र हो गई। चंबल विंध्य के जानापाव पर्वत से निकली और निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड, ग्वालियर होती हुई इटावा के पास जमना में मिली।

    चंबल को हमने घाटा बिलोद में देखा। काफ़ी पानी था। ख़ूब बह रही थी। उसमें नहाते लड़के को गर्व था कि यहाँ छोटी दिखती हो तो क्या! हमारी चंबल से गंगा ही बस बड़ी है। आगे बहुत बड़ा बाँध है। ख़ूब पानी है। इस बार गाँधी सागर के सब फाटक खोलने पड़े। इत्ता पानी भरा। गंभीर इतनी बड़ी नहीं है। लेकिन हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार फिर उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफ़न चलाने पड़े। सड़सठ साल में तीसरी बार ऐसा हुआ। पार्वती और कालीसिंध ने फिर रास्ता रोका। दो दिन उनके पुल पर से पानी बहता रहा। इस बार मालवा के पठार की सब नदियों में पूर आई। उसके पास से बहने वाली नर्मदा में भी ख़ूब पानी आया। बरसों बाद हज़ारों साल की कहावत सच्ची हुई—मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर। दक्षिण से उत्तर की ओर ढलानवाले इस पठार की सभी नदियों के दर्शन हुए। ख़ूब पानी, ख़ूब बहाव और ख़ूब कृपा। नदी का सदानीरा रहना जीवन के स्रोत का सदा जीवित रहना है।

    नदियों के बाद नंबर था तालाबों का। हमारे आज के इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले ज़माने के लोग कुछ नहीं जानते थे क्योंकि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया न! मालवा में विक्रमादित्य और भोज और मुंज रिनेसां के बहुत पहले हो गए। वे और मालवा के सब राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोक के रखना होगा। सबने तालाब बनवाए, बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात का पानी रुका रहे और धरती के गर्भ के पानी को जीवंत रख सकें। हमारे आज के नियोजकों और इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया और ज़मीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। नदी-नाले सूख गए। पग-पग नीरवाला मालवा सूखा हो गया। लेकिन इस बार बिलावली भर गया है। पीपल्या पाला भर गया है। सिरपुर में लबालब पानी है और यशवंत सागर के सभी साइफ़न तो चले ही थे, फिर भी इंदौर की खान और सरस्वती नदियों में उतना पानी नहीं है जितने में कभी मैं नहाया हूँ और नाव पर सैर की है।

    हाथीपाला का नाम इसलिए है कि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने और मिलने वाली ये नदियाँ कभी उसे हरा-भरा और गुलज़ार रखती थीं। आज वे सड़े नालों में बदल दी गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल सबके यही हाल हो रहे हैं। ये सदानीरा नदियाँ अब मालवा के गालों के आँसू भी नहीं बहा सकतीं। चौमासे में चलती हैं। बाक़ी के महीनों में बस्तियों के नालों का पानी ढोती हैं। नदियों ने सभ्यताओं को जन्म दिया। हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है। इस साल मालवा में सामान्य बारिश (35 इंच) से पाँच ही इंच ज़्यादा पानी गिरा है और इतने में ही नदी, नाले, तालाब, बावड़ियाँ और कुएँ चैतन्य हो गए हैं।

    अपने पहले अख़बार 'नई दुनिया' की लाइब्रेरी में अब भी पानी के सन् 1878 से रेकार्ड मौजूद हैं। 128 साल की यह जानकारी ही आँख खोलने के लिए काफ़ी है कि इनमें एक ही साल था, 1899 का, जब मालवा में सिर्फ़ 15.75 इंच पानी गिरा था। लोक में यही छप्पन का काल है। लेकिन राजस्थान के ठेठ मारवाड़ से तब भी लोग यहीं आए थे और कहते हैं कि तब भी खाने और पीने को काफ़ी था। इन 128 सालों में एक ही साल अतिवृष्टि का था। सन् 1973 में 77 इंच पानी गिरा था। तब भी यशवंत सागर, बिलावली, सिरपुर और पीपल्या पाला टूटकर बहे नहीं थे।

    28 इंच से कम बारिश हो तो वह सूखे का साल होता है। लेकिन ऐसे साल ज़्यादा नहीं है। छप्पन के काल ने देशभर में हाय-हाय मचाई हो लेकिन मालवा में लोग प्यासे मरे भूखे क्योंकि उसके पहले के साल ख़ूब पानी था और बाद के साल में भी। अपने नदी, नाले, तालाब सँभाल के रखो तो दुष्काल का साल मज़े में निकल जाता है। लेकिन हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है।

    ‘नई दुनिया' की ही लाइब्रेरी में कमलेश सेन और अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली इस खाऊ-उजाड़ू सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी हैं वे बताने को काफ़ी है कि मालव धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है और क्यों यहाँ डग-डग रोटी और पग-पग नीर नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघल रही है? क्यों हमारे मौसमों का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों लद्दाख में बर्फ़ के बजाय पानी गिरा और क्यों बाड़मेर में गाँव डूब गए? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। ये गैसें सबसे ज़्यादा अमेरिका और फिर यूरोप के विकसित देशों से निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि धरती के वातावरण के गर्म होने से सब गड़बड़ी हो रही है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा। लेकिन हम अपने मालवा की गहन गंभीर और पग-पग नीर की डग-डग रोटी देने वाली धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। हम अपनी जीवन पद्धति को क्या समझते हैं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतराल (भाग-2) (पृष्ठ 22-26)
    • रचनाकार : प्रभाष जोशी
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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