Font by Mehr Nastaliq Web

इस्लामाबाद : एक अलग तरह की राजधानी

islamabad ha ek alag tarah ki rajdhani

कमलेश्वर

कमलेश्वर

इस्लामाबाद : एक अलग तरह की राजधानी

कमलेश्वर

और अधिककमलेश्वर

    पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के बारे में बड़ा मज़ा लेकर पाकिस्तानी कहता है इस्लामाबाद में तो इस्लाम है और आबादी! मगर हम उसे इस्लामाबाद कहते हैं। इस्लामाबाद वाक़ई बहुत ख़ामोश शहर है, देश की राजधानी होने की वजह से यहाँ सरकारी अमला तो रहता है पर कोई भीड़-भाड़, शोर-शराबा नहीं है। वैसे इस्लामाबाद फुलवारी की तरह लगता है, फूलों का शहर! बेहद ख़ूबसूरत और आधुनिक। इसे योजनाबद्ध तरीक़े से बसाया गया है। यूनानी वास्तुविदों ने इसकी बस्तियाँ और बाज़ार तैयार किए हैं, लगभग उसी तरह से जैसे कर्बूज़िए ने अपना चंडीगढ़ प्लान किया है। इस क्षेत्र को ख़ासतौर से राजधानी बनाने के लिए चुना गया था। कुदरती रूप में भी यह बड़ी ख़ूबसूरत जगह है। पाकिस्तान का यह उत्तर-पश्चिमी इलाक़ा है। एक तरह से यह रावलपिंडी का उप-नगर है, लेकिन पाकिस्तान की राजधानी होने के कारण इसे मुख्य शहर और रावलपिंडी को इसका उपनगर मानना पड़ता है। इस्लामाबाद का हवाई अड्डा रावलपिंडी में ही है, और यह दुनिया की राजधानियों का अकेला ऐसा शहर है जो रेलवे लाइन से नहीं जुड़ा है। इस्लामाबाद में रेल या उसका स्टेशन है ही नहीं। मुल्क के दूसरे शहरों से यह सड़क और हवाई रास्ते से जुड़ा है।

    कुदरत ने इसे बहुत ख़ूबसूरती बख़्शी है। इस्लामाबाद की पहाड़ियाँ बहुत ख़ूबसूरती हैं। उतने ही ख़ूबसूरत पठार और वादियाँ भी हैं। जंगल बड़े मनमोहक हैं। यहाँ गुलाब और चमेली के बग़ीचे तो महकते ही हैं, बरसात में जंगल भी महकते हैं। इस्लामाबाद इलाक़े में कई नदियाँ और ख़ूबसूरत झीलें भी हैं। इसके उत्तर में पेशावर है और सीमा के उस पार, नज़दीक ही, अफ़गानिस्तान की राजधानी काबुल है। यों कहा जाए तो यह फ़ौजी शहर है, पर यहाँ का फ़ौजी वर्दी नहीं पहनता। वह सिविलियन काम करता है और उन्हीं की पोशाक पहनता है, पर यह जानकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि यहाँ के अकादमिक संस्थानों और शोध की मशहूर संस्थाओं के लगभग सारे प्रमुख फ़ौज से आए हुए या सैनिक सेवा से निवृत्त लोग हैं। वैसे मैंने बहुत से देश देखे हैं, ऐसे देश जिनमें फ़ौजी तानाशाही हावी रही है, पर पाकिस्तान का इस्लामाबाद ऐसा एकमात्र फ़ौजी शहर है, जहाँ उच्च शोध और अकादमिक संस्थानों को वह बड़े क़ाबिल लोग चलाते हैं, जिन्होंने बंदूक़ छोड़ दी है और फ़ौजी वर्दी उतार दी है। इस तरह के प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों को यहाँ देखा जा सकता। है। उनसे मिलकर किसी गंभीर विषय पर घंटों विचार-विमर्श किया जा सकता है। अगर उनके कमरे के दरवाज़े पर नेम प्लेट लगी है तब, या बातचीत के लंबे दौर के बाद यों ही बातों-बातों में पता लग सकता है कि आप जिनसे इतिहास या पुरातत्व पर गंभीर बातें कर रहे थे, वे सज्जन सेना के कर्नल, ब्रिगेडियर या मेंजर जनरल रह चुके हैं। शायद इसीलिए इस्लामाबाद चुस्त-दुरुस्त और अनुशासित राजधानी है।

    इस राजधानी का दूसरा अजूबा है यहाँ के बुक स्टोर। शहर में लोग तो हैं नहीं, पर किताबों की बड़ी-बड़ी दुकानों में ख़ासी भीड़ दिखाई देती है और दुनिया की नई से नई किताब यहाँ उपलब्ध है। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यहाँ किताबों की किसी किसी दुकान में भारतीय क्लैसिक्स के अँग्रेज़ी अनुवाद मिल ही जाएँगे। रामायण, गीता, महाभारत वग़ैरह के अनुवाद तो सामने ही नज़र जाते हैं। तीसरा अजूबा यह है कि पुस्तकों की दुकान की एक श्रृंखला को पाकिस्तान के जाने-माने अँग्रेज़ी पत्रकार नज़म सेठी चलाते हैं जो 'फ्राइडे टाइम्स' के संपादक हैं और भारत में बख़ूबी जाने-पहचाने जाते हैं। वैसे पाकिस्तान की फ़ौजी सरकारें जो भी रही हों, वे भी नज़म सेठी साहब को बख़ूबी पहचानती हैं और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें गिरफ़्तार करने में क़तई नहीं हिचकिचातीं। मौजूदा फ़ौजी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की फ़ौजी खुफ़िया पुलिस नज़म सेठी साहब को उनके दफ़्तर से उठा ले गई थी और कई दिनों तक मुल्क के पत्रकारों, दूसरे मुल्कों के दोस्तों और उनके घरवालों को भी उनका हाल-हवाल नहीं मिल सका था।

    यों इस्लामाबाद में इस्लाम तो नहीं है लेकिन यहाँ बड़ी ही ख़ूबसूरत और आधुनिक वास्तुकला के नमूने के तौर पर फैसल मस्जिद देखने लायक़ है। इसमें आधुनिकता का इस्लामीकरण और इस्लामी वास्तुकला का आधुनिकीकरण किया गया है। इसी मस्जिद की बग़ल में अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक यूनिवर्सिटी है। यह मस्जिद सऊदी अरब के सुलतान शेख़ फ़ैसल ने पाकिस्तान को धार्मिक उपहार के रूप में दी है।

    सन् 1963 तक इस्लामाबाद बन गया था और सरकारी लोगों ने वहाँ आना और बसना शुरू कर दिया था। इस्लामाबाद से सन् 1966 में विधिवत सरकार चलने लगी। कराची से सारे दफ़्तर वग़ैरह वहाँ पहुँच गए थे। और किसी बात के लिए हम जिन्ना साहब की तारीफ़ करें या करें, पर मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी बेहद तारीफ़ करूँगा कि उन्होंने उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा और राजभाषा बना दिया। वहाँ के अन्य भाषा वालों ने ख़ास तौर से पंजाबी वालों ने इसका बहुत विरोध किया था, पर सन् 1947-48 में जिन्ना साहब की इस पेशकश को मानना संभव नहीं था। हालाँकि उर्दू को राष्ट्रभाषा राजभाषा बनाए जाने के कारण ईस्ट पाकिस्तान (बंग्लादेश) अलग हुआ, पर वैस्ट पाकिस्तान को उर्दू ने एक धागे में बाँध दिया। हिन्दुस्तान में उर्दू को पार्टीशन की भाषा कहा गया, पर इस ऐतिहासिक तथ्य को याद रखना ज़रूरी है कि इधर पिछले पाँच-सात वर्षों से भारत-पाक संबंधों में जो सुखद परिवर्तन आया है उसका बहुत ज़्यादा श्रेय उर्दू को है। उर्दू है भी ऐसी सहज और विचित्र भाषा, जो बिना पढ़े सुनने वालों तक अपने अर्थ पहुँचा देती है। उर्दू शेरो-शायरी और ख़ास तौर से ग़ज़ल की महफ़िलों के सफल और लोकप्रिय होने का यही रहस्य है।

    और यह देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बोलचाल में पाकिस्तान की उर्दू और भारत की हिंदी में कोई अंतर नहीं है। मात्र बोलचाल में ही नहीं, अपने मुहावरों और कहावतों में भी दोनों क़रीब-क़रीब एक ही है। लेकिन यहाँ मुझे यह दर्ज़ करने में दिक़्क़त नहीं है कि पाकिस्तान की उर्दू और भारत की उर्दू में ख़ासा फ़र्क़ है। भारतीय उर्दू ने अपना अरबी-फारसीकरण कुछ ज़्यादा ही किया है। लेकिन यह फ़र्क़ पाकिस्तानी उर्दू और भारत की हिंदी में कम से कम है। भारत में भी साझा संस्कृति वालों ने हिंदी वालों से हिंदी को बचाया है, उसी तरह पाकिस्तान के समझदार लोगों ने इस्लाम की चपेट में गई उर्दू को उर्दू वालों से बचाया है।

    ताज्जुब मुझे एक बात से और हुआ। इस्लामाबाद की किताब की एक दुकान में मुझे पाकिस्तान के एक कश्मीर विशेषज्ञ से मिलवाया गया। कश्मीर को लेकर उनका सोचना सचमुच परिपाटी से अलग था। वे बोले—देखिए जनाब! आज़ाद कश्मीर और कश्मीरी में बहुत फ़र्क़ है। आप लोगों के पास जो कश्मीर है वह कल्चर के लिहाज़ से आज़ाद कश्मीर से बहुत अलग है। वह सारा हिस्सा जिसकी देखभाल आज पाकिस्तान करता है, वहाँ एथनिक (विशुद्ध) कश्मीरी बहुत कम हैं। ज़ुबान भी वहाँ की पंजाबी है, कश्मीरी नहीं। आज़ाद कश्मीर पहले कश्मीर रियासत का हिस्सा नहीं था, इसे तो महाराज हरी सिंह ने अपने ज़माने में जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा बनाया, अँग्रेजों की मर्ज़ी से और एकदम उत्तर का जो हिस्सा है, उस गिलगित इलाक़े के लोग ख़ुद को कश्मीरी मानना अपनी हतक समझते हैं। गिलगित के मुसलमान शिया-इस्माइली हैं, वे कश्मीरियों की तरह सुन्नी नहीं है। बहरहाल, कश्मीर को लेकर हमारा मुल्क पाकिस्तान अजीब सी ख़ुशफ़हमी में है। उसे अब समझना और मान लेना चाहिए कि कश्मीर उसकी क़ौमी पहचान का हिस्सा नहीं बन सकता क्योंकि कानूनी तौर पर वह भारत का हिस्सा बन चुका है। ख़ुद कश्मीरियों ने उसे भारत में मिलने दिया नहीं तो उस वक़्त कश्मीरियों ने भारत में विलीन होने का, महाराजा हरी सिंह के फैसले का विरोध क्यों नहीं किया? हथियार क्यों नहीं उठाए? उस वक़्त तो कश्मीरी लोग हालात का भरपूर फ़ायदा उठा सकते थे, क्योंकि हथियारबंद कबाइली कश्मीर वैली में पहुँच चुके थे, उनकी मदद से कश्मीरी आज़ाद भी हो सकते थे और चाहते तो पाकिस्तान में मिल सकते थे। शेख अब्दुल्ला इतने बड़े और एकछत्र कश्मीरी लीडर नहीं थे कि उनकी मुख़ालफ़त करना मुश्किल होता। एक तरह से जिन्ना साहब ने जो यूनाइटेड हिंदुस्तान के साथ किया था, वही शेख अब्दुल्ला ने जिन्ना साहब और पाकिस्तान के साथ किया।

    बहरहाल, अब पाकिस्तान को समझना चाहिए कि कश्मीर को भारत के कानूनी और फ़ौजी जबड़ों से निकाल सकना मुमकिन नहीं है। दुनिया के सियासी हालात का नक़्शा भी बहुत बदल गया है, इसलिए पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे को कम से कम ख़र्च पर ज़िंदा रखना चाहिए और उस वक़्त का इंतज़ार करना चाहिए जब दुनिया का राजनीतिक संतुलन फिर बदले। हमारे क़ाज़ी हुसैन अहमद (जमाते इस्लामी के प्रमुख) भी यही सोचते हैं। वे मेरी राय से सहमत हैं। असल में हम अमेरिका के पाले में चले तो गए हैं, वैसे हमारी इकॉनमी को अमेरिका ने बहुत सँभाला है, अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत फ़ौजों को बेदख़ल करने के लिए अमेरिका ने जो आर्थिक और हथियारों की मदद दी थी, उससे हमारी इकॉनामी बहुत सुधर गई थी और हम कश्मीर में मुज़ाहिदों की हथियारबंद कार्रवाई भी चला सकते थे, पर अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत फ़ौजों के पलायन के बाद अब अमेरिकी मदद क़रीब क़रीब बंद हो गई है इसलिए हमारी आर्थिक हालत अब उतनी तंदरुस्त नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। हमने अमेरिका के लिए अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए मुल्ला उमर और तालिबानों का जो संगठन तैयार किया, उसको मैनटेन करने का खर्च़ा तो उतना ही है, या पहले से बढ़ा ही है, लेकिन अमेरिकी मदद में कटौती की वजह से अब तालिबानों की हथियारबंद जमात को सँभालना भारी पड़ रहा है। मुल्ला उमर की जो अफ़गानी सरकार हमने स्थापित की थी, उसका खर्च़ा अफ़ग़ानिस्तान में लगाए गए टैक्स वग़ैरह और आमदनी के परंपरागत दीगर ज़रियों से अब नहीं निकल पा रहा है...इसलिए ज़रूरी है कि हम अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को फिर तय करें, नहीं तो पाकिस्तान की इकॉनमी की कमर बहुत जल्दी टूट जाएगी और हमें अमेरिका की 'नौकरी' करनी पड़ेगी। इसीलिए जमाते इस्लामी के सदर साहब का पाकिस्तान के प्रेसीडेंट परवेज़ मुशर्रफ़ साहब से यह कहना मुनासिब है कि अमेरिका की ग़ुलामी करने से बेहतर होगा इंडिया से सुलह करने का सौदा करना!

    मैं समझता हूँ कि इतनी खुली बात वही कर सकता है जिसके मन में मैल नहीं है। नहीं मालूम कि जमाते इस्लामी के सदर ने यह बात प्रेसीडेंट मुशर्रफ़ से कही या नहीं कही, पर भारत-पाक अदावत को अब पाकिस्तानी बहुत ग़लत समझ रहे हैं। भारत में तो इस अदावत को ग़लत समझने वालों की बहुतायत है। पाकिस्तानी दिमाग़ के इस रुझान की ज़मीन तैयार करने की भूमिका वहाँ के पत्रकारों ने बड़े धीरज और साहस से निभाई है। इसके लिए उन्हें ग़लत भी समझा गया और तब तक़लीफ़देह बातें भी सुननी पड़ीं और फिर ऐसा भी नहीं था कि हिंदुस्तान में पाकिस्तान को समझने और उसकी ख़ुशियाँ चाहने वाले लोग हों। पार्टीशन के शिकार हुए बहुत से ऐसे लोग आज भी भारत में बहुसंख्या में हैं जो पाकिस्तान की ख़ुशहाली के लिए आज भी दुआ करते हैं, और दोनों देशों की जनता के बीच सोच और एकता का यह पुल उस हिंंदी और उर्दू ने बनाया है, जो इन दोनों भाषाओं को अमीर ख़ुसरो से विरासत में मिली थी।

    इस्लामाबाद में बड़ी अलग-सी फ़ौजी कल्चर है, जिसने वर्दी उतारकर एक अनुशासित और खुली हुई नागरिक कल्चर को जन्म दिया है, ऐसी कल्चर मैंने किसी और देश में नहीं पाई। यहाँ तक कि भारत में भी नहीं। इसका एक ज़बरदस्त प्रसंग यहाँ याद आता है, उस प्रसंग पर आने से पहले मैं पाकिस्तानी लेखकों और शायरों की एक ख़ासियत यहाँ दर्ज़ कर देना चाहता हूँ। सच पूछिए तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी मैंने पाकिस्तानी अदीबों को फ़ौजियों के सामने कभी भी घबराते या रिरियाते नहीं देखा। बाघा बार्डर पर भी जब हमारा सामान कस्टम के फ़ौजी जवान चैक कर रहे थे तो किश्वर नाहीद साहिबा को मैंने एक सीनियर अफ़सर से कहते सुना था—क्या तलाश रहे हैं? दारू! उसकी बोतलें इन मेहमानों के सामान में नहीं मिलेंगी। हमने इन्हें पहले ही बता दिया है कि दारू लाने की ज़रूरत नहीं है। हम इन्हें दारू से नहला देंगे। जब किश्वर जी ने यह कहा तो पास खड़े इंतज़ार हुसैन साहब धीरे-धीरे मुस्करा रहे थे। बहरहाल...

    और अब सुनिए उस खुली हुई कल्चर का प्रसंग सम्मेलन में शामिल सारे अदीबों को पंजाब के फ़ौजी गर्वनर ख़ालिद महमूद ने डिनर दिया था। फ़ौजी गर्वनर साहब नागरिक पोशाक में हम लेखकों को रिसीव कर रहे थे। मेरे आगे अहमद फ़राज़ साहब थे। ज़रा उस शायर का रुतबा देखिए। नागरिक पोशाक में हम लोगों को रिसीव करते फ़ौजी गवर्नर ने अहमद फ़राज को देखा और एक क़दम आगे बढ़कर उन्हें रिसीव करते हुए कहा—जनाब फ़राज अहमद साहब! आज तो हाथ मिला लीजिए...आपको हमारी वर्दी से नाराज़गी है...आज हम वर्दी पहन कर नहीं आए हैं।

    और उस अजीम शायर अहमद फ़राज़ ने हाथ मिलाते और मुस्कराते हुए कहा—जनाब, क्या पता आप वर्दी कब पहन लें!...

    और इस्लामाबाद में एक अलग तरह का बड़ा ज़बरदस्त म्यूज़ियम है—लोक संस्कृति का संग्रहालय। उसका नाम ही 'लोक विरसा' है। यहाँ बलोचिस्तान, नार्थ-वैस्ट फ्रंटियर, सिंध के साथ-साथ गिलगित, स्थिति और चित्राल की संस्कृति के बेजोड़ नमूने मौजूद हैं। इन प्रदेशों की लोक-संस्कृति इस्लाम से क़तई प्रभावित नहीं है। लोक विरसा में काली लकड़ी की उत्कीर्ण बड़ी शानदार मूर्तियाँ मौजूद हैं। सूफ़ी साहित्य का भी यह केंद्र है। लोक साहित्य के अलावा सूफ़ी साहित्य का प्रकाशन भी यहाँ से होता है। और वैसे तो पाकिस्तान के इतिहासकारों ने सिंधु-सभ्यता, मोहनजोदड़ो, हडप्पा, तक्षशिला आदि को अपनी विरासत से ख़ारिज कर रखा है लेकिन यहाँ मोहनजोदड़ो-हड़प्पा-तक्षशिला आदि इतिहास के रूप में मौजूद नहीं है, पर उन्हें लोक-विरसा माना गया है।

    वैसे बहुत पहले, सन् 1981 में मैंने तक्षशिला के संग्रहालय म्यूज़ियम से भारत के दूरदर्शन के लिए रिपोर्टिंग भी की थी और तीस-पैंतीस मिनट की डॉक्यूमेंट्री भी तैयार की थी, जो तत्कालीन प्रेसीडेंट जिया-उल-हक साहब की फ़ौजी सरकार की इजाज़त के बिना, म्यूज़ियम के आम कर्मचारियों की मदद से बनाई जा सकी थी। तो उस वक़्त भी अवाम के स्तर पर हालात ख़राब नहीं थे। माहौल तो राजनेताओं और उस दौर के फ़ौजी अमले ने ख़राब कर रखा था।

    और एक बहुत ही मज़ेदार कमेंट। एक हँसमुख पाकिस्तानी कहता है कि पाकिस्तान में इस्लामाबाद तो है लेकिन इस्लामाबाद में पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान यदि देखना है तो इस्लामाबाद से चौदह किलोमीटर दूर रावलपिंडी में देख सकते हैं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आँखों देखा पाकिस्तान
    • रचनाकार : कमलेश्वर
    • प्रकाशन : राजपाल
    • संस्करण : 2015

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY