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डेनमार्क के आलस्टेड गाँव में एक रात

Denmark ke alasteD ganw mein ek raat *

रामनारायण मिश्र

रामनारायण मिश्र

डेनमार्क के आलस्टेड गाँव में एक रात

रामनारायण मिश्र

और अधिकरामनारायण मिश्र

    मैं जन्म से दिहाती नहीं हूँ, पर मैंने दिहात की ख़ूब खाक छानी है। सन् 1900 से 1910 तक जब मैं जौनपुर, बस्ती, बनारस तथा बरेली ज़िलों के स्कूलों के निरीक्षण का काम करता था, दिहाती भाइयों से मेरा हेल-मेल हो गया था। उनके गुण-दोष उस समय से मुझ पर प्रकट हो गए। उनकी सादगी, सहृदयता और शारीरिक कष्ट सहने की शक्ति आदि गुणों ने मुझ पर बड़ा प्रभाव डाला।

    डेनमार्क कृषि-प्रधान देश है। उसके एलसिनार नगर में, अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-महासभा में, जब गत वर्ष मैं गया और वहाँ के 'इंटर-नेशनल पीपुल्स कालेज के प्रिंसपल मानीके महोदय (Manniche) ने सभासदों को एक रात दिहात में चलकर रहने का निमंत्रण दिया, तब हम लोगों ने सोचा कि ग्रामीण जीवन देखने का यह अवसर हाथ से जाने देना चाहिए। अतएव, 20 अगस्त की दुपहर को यात्रा के लिए हम लोग उक्त कालेज में पहुँच गए। प्रिंसिपल महोदय ने अन्य यात्रियों के साथ हम लोगों को भी भोजन (Lunch) कराया।

    यूरोप के प्रायः सभी देशों में दिन के बारह और दो बजे के बीच में सब लोग भोजन के लिए बैठ जाते हैं, जैसा हमारे देश में भी व्यापारी, खेतिहर और पंडित लोग करते हैं और पहले सभी लोग किया करते थे। दफ़्तरों और स्कूलों में, भरपेट खाना खाकर जाना और काम करना, यह हानिकारक प्रथा हमारे देश में नई चली है।

    अस्तु, भोजन के उपरांत हम लोग लारी पर बैठे और आलस्टेड (Olsted) गाँव की ओर रवाना हुए। मार्ग का दृश्य बड़ा ही रमणीक था। सड़क के दोनों तरफ़ की हरियाली बड़ी सुहावनी थी। कुछ दूर तक जंगल मिला, जिसमें एक क़स्बा भी देखा। तीसरे पहर हमारी लारी आलस्टेड पहुँच गई। इस गाँव में आठ सौ मनुष्यों की आबादी है। इन लोगों को प्रिंसिपल मानीके से बड़ा प्रेम है, क्योंकि इनके पिता यहाँ की ग्रामीण पाठशाला के मुख्याध्यापक थे और यहीं प्रिंसिपल महोदय का जन्म हुआ था। यूरोप में यात्री होटलों में ठहरते और भोजन करते हैं, इसलिए होटलों की सब जगह भरमार है।

    इस गाँव के निवासियों ने किसी यात्री को होटल में नहीं ठहरने दिया सब सज्जनों और देवियों को उन्होंने आपस में बाँट लिया। पंडित श्रीराम वाजपेयी और श्री प्यारे लाल रस्तोगी को दो खेतिहर अपने-अपने घर ले गए। बाबू गौरीशंकर प्रसाद स्थानीय को-आपरेटिव स्टोर में ठहरे। मुझे पाठशाला के अध्यक्ष (Rector) एंडरसन महोदय (Anderson) ने अपने यहाँ ठहराया। यह स्कूल-भवन में ही सपत्नीक रहते हैं। स्कूल-भवन छोटा सा है, परंतु बड़ा सुंदर बना हुआ है। उसके पीछे की तरफ़ उपवन है, जिसमें ट्यूब द्वारा पाताल से पानी निकाला जाता है। इस स्कूल में लड़कियाँ लड़कों के साथ पढ़ती हैं, जिनकी अवस्था सात से चौदह वर्ष तक की है। इस समय स्कूल में 83 लड़के-लड़कियाँ हैं। एंडरसन महोदय के साथ एक अध्यापिका भी काम करती हैं।

    उन देशों में पढ़नेवालों की अवस्था के अनुसार कक्षाएँ होती हैं। हम लोगों से प्रायः लोग पूछा करते थे कि आपके यहाँ प्राइमरी, मिडिल तथा हाई स्कूलों में किस अवस्था से लेकर किस अवस्था तक लड़के-लड़कियाँ पढ़ती हैं। वहाँ शिक्षा अनिवार्य है। छः वर्ष की अवस्था में हर बालक और बालिका को स्कूल में पढ़ना आरंभ कर देना आवश्यक है।

    इस अनिवार्य शिक्षा की अवधि किसी देश में बच्चों की 14 वर्ष की अवस्था तक है, किसी में 16, तथा किसी में 18 है। जब प्रत्येक बालक छः वर्ष की अवस्था में पढ़ना शुरू करेगा तब देश के सब बच्चे प्रत्येक कक्षा में प्रायः एक ही उम्र के होंगे। इसलिए प्रत्येक कक्षा में प्रायः एक ही उम्र के लड़के-लड़कियाँ मिलती हैं, चाहे उनके डील-डौल में कुछ भेद हो। हमारे देश में अनिवार्य शिक्षा होने के कारण हज़ारों लड़के पढ़ने ही नहीं आते और थोड़े जो पढ़ने आते भी हैं, अपनी स्थिति और रुचि के अनुसार जब चाहते हैं पढ़ना आरंभ करते हैं, जिसका भयंकर परिणाम यह है कि एक ही दरजे में आठ वर्ष के लड़के भी मिलेंगे और सोलह वर्ष के भी।

    अब फिर चलिए आलस्टेड गाँव में। एंडरसन महोदय और उनकी धर्मपत्नी, अँग्रेज़ी नहीं बोल सकती थी, और मैं उनकी भाषा नहीं बोल सकता था। यही हाल हमारे सब साथियों का हुआ। गाँव वालों ने अतिथियों का सत्कार करने के लिए सूअर और ख़रगोश कटवाए थे। वहाँ के खेतिहर सूअर पालते हैं, उनको अच्छा खाना देते हैं और साफ़-सुथरा रखते हैं। ये अनाज, आलू, गोभी के पत्ते, रोटी आदि खाते हैं और मक्खन निकला हुआ दूध पीते हैं। सूअर का माँस यहाँ के लोग विदेश में, विशेषकर इंग्लैंड में, भेजते हैं। यहाँ के सूअर सफ़ेद और बहुत बड़े होते हैं।

    हमारे मित्र बहुत कठिनाई से यह समझा सके कि हम लोग माँस नहीं खाते। यह कठिनाई मुझे और वाजपेयी जी को नहीं हुई। वाजपेयी जी माँस खा लेते हैं। मेरे सौभाग्य से मेरे साथ मिस्टर औसवल्ड-बी-पावल (Mr. Oswald B. Powell) आकर ठहर गए। यह अँग्रेज़ हैं, परंतु फ़्रेंच और जर्मन बोल सकते हैं। मेरे कहने पर इन्होंने श्रीमती एंडरसन को समझा दिया कि मैं माँस, मछली तथा अंडा नहीं खाता और चाय पीता हूँ। वे बड़ी घबराई। बार-बार पूछने लगी कि तब मैं तुम्हारा सत्कार कैसे करूँ। जब मैंने बतलाया कि मैं दूध पीता हूँ और उबाली हुई तथा मक्खन में तली हुई सब तरकारियाँ खाता हूँ, तब वे थोड़ी देर में मेरे लिए बहुत अच्छा दूध और मुरब्बा ले आई। मैंने उस समय थोड़ी रोटी और भाजी खा ली। भाजी में आलू, मटर, गाजर और खीरे का सलाद था। यह सलाद भी सारे यूरोप में मिलता है। इसमें कच्चा खीरा, मूली इत्यादि के कच्चे पत्ते होते हैं। यह बड़ा ही स्वादिष्ट और लाभदायक भोजन है।

    जब हम लोग घूम-फिर कर लौटे, तब श्रीमती एंडरसन ने हमें डेनमार्क का सबसे स्वादिष्ट भोजन (Rodgrod) खिलाया। इस शब्द का उच्चारण देवनागरी अक्षरों में भी ठीक-ठीक लिखना कठिन है। यह करेंट, रैस्पबेरी आदि फलों और दूध से बनता है।

    मैं पहले लिख चुका हूँ कि हमारे साथ मिस्टर पावल ठहरे थे। ये इंग्लैंड के बिडेल्स (Bedales) स्कूल के अध्यापक हैं। यहाँ 5 वर्ष से लेकर 19 वर्ष तक के लड़के और लड़कियाँ साथ ही रहती और पढ़ती हैं। इंग्लैंड के लोग पहले लड़के और लड़कियों को एक साथ पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे, इसलिए 1893 में जब यह स्कूल खुला तब यहाँ केवल 3 लड़के थे, इस समय 240 लड़के-लड़कियाँ हैं। इस स्कूल के संचालक भारतवर्ष से बड़ा प्रेम करते हैं। यहाँ के कुछ अध्यापक और छात्र निरामिष-भोजी हैं। एक बार यहाँ श्री रवींद्रनाथ ठाकुर भी गए थे। मिस्टर पावल वृद्ध हैं, परंतु अपने को नवयुवक कहते हैं। इनको गाने का बहुत शौक़ है। रात को हम दोनों स्कूल की दूसरी मंज़िल में एक ही कोठरी में ठहरे।

    यूरोप में बिछौना अपने साथ ले जाने की प्रथा नहीं है। जहाँ लोग ठहरते हैं, बिछौना मिल जाता है। चारपाई के नीचे अथवा उसके पास छोटी आलमारी में लघुशंका करने के लिए एक पात्र रखा रहता है। 6 महीने की यात्रा में मैं इस पात्र को एक दिन भी काम में नहीं लाया। लघुशंका करने के बाद कमरे में इस पात्र का पड़ा रहना मुझे घृणित मालूम पड़ता है, यद्यपि वह ढका रहता है। इस विषय पर मिस्टर पावल के विचार वही हैं, जो मेरे। उन्होंने मुझे बतलाया कि उनके स्कूल में छात्रों के बिस्तर के नीचे यह पात्र नहीं रखा जाता।

    एक बात और रह गई। इस गाँव में एक पहाड़ी टोला है। इसके एक ओर झील है और दूसरी ओर उत्तर-सागर का एक टुकड़ा (kattegat)। सायंकाल हम सब लोग इस टीले पर जमा हुए। उसके ऊपर से जो दृश्य देखा वह चित्त को आकर्षित करनेवाला था। टीले पर और जल के किनारे सब जगह बड़ी सफ़ाई थी। ऐसे स्थानों को हमारे देश के लोग गंदा कर देते हैं। वहीं शौच जाते हैं और वहीं दतुअन फेंक देते हैं। हमने यूरोप में गाँवों के खेत, नाले, नदियाँ, पहाड़ और पहाड़ियाँ देखीं, पर कहीं भी किसी को इन स्थानों को गंदा करते नहीं पाया। उन देशों में सड़कों पर या खेतों में थूकने की बुरी आदत भी नहीं है, इसलिए हर एक जगह साफ़ रहती है। हमारे देश में लोग गंगा-तट तक को साफ़ नहीं रहने देते। जहाज़ों आदि के कारण जिन नदियों का पानी ख़राब हो जाता (River Pollution) है उनके सुधार के लिए सभाएँ बन गई हैं।

    अब चलिए टीले पर चलें। सब लोगों के जमा होने पर ग्रामीण पाठशाला के मुख्याध्यापक ने अपनी मातृभाषा में सब लोगों का स्वागत किया। जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों के प्रतिनिधियों ने अपनी अपनी मातृभाषा में उत्तर दिया। उन सबका अनुवाद मानिके महोदय ने किया। वाजपेयीजी ने हिंदी में व्याख्यान दिया और दिहाती गीत गाया। एक जापानी ने जापानी गीत गाया। अतिथियों में एक चीनी भी थे। भिन्न-भिन्न जातियों का इस टीले पर मिलना एक अद्भुत दृश्य था। अँधेरा होने पर ख़ूब नाच-गाना और कसरत हुई। थक जाने पर सब लोग अपने अपने स्थान पर लौटे।

    दूसरे दिन 21 अगस्त को सबेरे ही से पानी बरसने लगा, जिसके कारण बहुत सर्दी मालूम होने लगी। तिस पर भी हम लोग यहाँ का गिर्जा और डेयरी (dairy) देखने गए। डेयरी में हमने देखा—किस प्रकार मक्खन. क्रीम और पनीर बनाया जाता है। यूरोप में लोग मक्खन, क्रीम और पनीर बहुत खाते हैं। डेनमार्क और हालेंड से पनीर (cheese) बहुत दूर-दूर तक बाहर भेजा जाता है। इन देशों में मक्खियाँ कम हैं, फिर भी एक मक्खीमार यंत्र प्रायः सब स्थानों में लटका रहता है, जिस पर मक्खी आकर फँस जाती है। डेनमार्क में पंचायती डेयरियाँ (co-operative dairies) बहुत हैं जिनके लिए यह संसार में प्रसिद्ध है।

    इसके अनंतर हम लोग यहाँ के खेतों को देखने गए। वह देखिए—वहाँ की गायें। उनकी पीठ पर कूबड़ नहीं होता। हिंदुस्तान में भैंस के कूबड़ नहीं होता। कुछ लोगों का ख़याल है कि जिस प्रकार यूरोप के आदमी गोरे होते हैं, उसी प्रकार भैंस भी गोरी होती हैं और जिनको यूरोप में गाय कहते हैं वे असल में भैंसें हैं। जो कुछ हो, यूरोप में दूध अच्छा मिलने के कई कारण हैं। एक तो वहाँ दूध में कोई पानी नहीं मिलाता; दूसरे उसमें से मलाई नहीं निकालता; जिसको वहाँ क्रीम (cream) कहते हैं वह एक प्रकार की गाढ़ी निमिस या तरावट है; तीसरे वहाँ के लोग गाय की बड़ी सेवा करते हैं, गोशाला में गोबर इत्यादि जमा नहीं होने पाता; चौथे गाय को चारा बहुत अच्छा दिया जाता है; पाँचवें गाय की सेवा करनेवाले ग्वाले पढ़े-लिखे होते हैं, वे अपने विषय के पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते रहते हैं। 18 जून को जब हम लोग लंदन के बाहर फेंशम हाइट स्कूल के पास गोशाला देखने गए थे तब ग्वाला हम लोगों से बातचीत करता हुआ कृषि संबंधी एक अख़बार उठा लाया था।

    डेनमार्क का दूध हम लोग आजन्म नहीं भूलेंगे। कहा जाता है कि सम्राट् जार्ज के लिए, उनकी बीमारी की अवस्था में, कुछ दिनों तक डेनमार्क से दूध मँगाया जाता था। इन खेतवालों ने अपने अतिथि-सत्कार का परिचय दिया और चाय, रोटी, मक्खन आदि से सबका सम्मान किया। अंत में नर-नारियों ने एक दूसरे का हाथ पकड़कर मंडल One page missing इनको अच्छा फ़ायदा हो जाता है। ये अपने मकानों, खेतों और सड़कों को बहुत साफ़ रखते हैं। हमारे देश के दिहातियों की तरह ये लोग शहरवालों से बातचीत में डर नहीं जाते, उनकी तरह इनमें बोदापन है। स्त्री-पुरुष सब पढ़े-लिखे हैं; समाचार-पत्र और पुस्तकें पढ़ने का सबको शौक़ है। इनकी रहन-सहन से मालूम होता था कि ये बड़े संपन्न हैं, जैसे हमारे देश में ज़मींदार होते हैं।

    जब हम खेतिहर भाइयों से जुदा हुए तब फ़ोटो लिया गया। यूरोप के लोग बिदाई के समय जब तक अतिथि दिखलाई देता है, अपनी दाहनी बाँह को ऊपर उठाकर रूमाल हिलाते हैं या हाथ नचाते हैं, यहाँ तक कि जब कभी आपकी रेलगाड़ी या मोटर या लारी गाँव में से गुज़रेगी, छोटे छोटे बच्चे भी बिना जान-पहचान के ऐसा ही करते दिखलाई देंगे। यह बात हमने यूरोप भर में देखी। भला बतलाइए तो सही, हमारे देश में बच्चे ऐसी अवस्था में क्या करते दिखलाई देते हैं।

    (मार्च सन् 1930 की सरस्वती से उद्धृत-परिवर्तन सहित।)

    स्रोत :
    • पुस्तक : योरप यात्रा में छः मास (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : रामनारायण मिश्र, गौरीशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1932

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