अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा

athato ghumakkaD jigyasa

राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन

अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा

राहुल सांकृत्यायन

और अधिकराहुल सांकृत्यायन

    संस्कृत से ग्रंथ को शुरू करने के लिए पाठकों को रोष नहीं होना चाहिए। आखिर हम शास्त्र लिखने जा रहें हैं, फिर शास्त्र की परिपाटी को तो मानना ही पड़ेगा। शास्त्रों में जिज्ञासा ऐसी चीज़ के लिए होनी बतलाई गई है, जोकि श्रेष्ठ तथा व्यक्ति और समाज सबके लिए परम हितकारी हो। व्यास ने अपने शास्त्र में ब्रह्मा को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसे जिज्ञासा का विषय बनाया। व्यास-शिष्य जैमिनी ने धर्म को श्रेष्ठ माना। पुराने ऋषियों से मदभेद रखना हमारे लिए पाप की वस्तु नहीं है, आखिर छ: शास्त्रों के रचयिता छ: आस्तिक ऋषियों में भी आधों ने ब्रह्मा को धत्ता बता दिया है। मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नही हो सकता कहा जाता है, ब्रह्मा ने सृष्टि को पैदा धारण और नाश करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया है।

    पैदा करना और नाश करना दूर की बाते हैं, उनकी यथार्थता सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण सहायक हो सकता है, अनुमान ही। हाँ, दुनिया को धारण की बात तो निश्चय ही ब्रह्मा के ऊपर है, विष्णु के और शंकर ही के ऊपर। दुनिया—दुख में हो चाहे सुख में—सभी समय यदि सहारा पाती है, तो घुमक्कड़ की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। खेती, बागवानी तथा घर-द्वार से मुक्त वह आकाश के पक्षियों की भाँति पृथ्वी पर सदा विचरण करता था, जाड़े में यदि इस जगह था तो गर्मियों में वहाँ से दो सौ कोस दूर।

    आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुराके उन्हें गला फाड़-फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया, जिससे दुनिया जानने लगी कि तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं।

    आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डार्विन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव-वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नही की, बल्कि सारे ही विज्ञानों को उससे सहायता मिली। कहना चाहिए, कि सभी विज्ञानों को डार्विन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन क्या डार्विन अपने महान अविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत नही लिया होता?

    मैं मानता हूँ, पुस्तकें भी कुछ-कुछ घुमक्कड़ी का रस प्रदान करती है, लेकिन जिस तरह फ़ोटो देखकर आप हिमालय के देवदार के गहन वनों और श्वेत हिम-मुकुटित शिखरों के सौंदर्य, उनके रूप, उनके गंध का अनुभव नही कर सकते, उसी तरह यात्रा-कथाओं से आपको उस बूंद से भेंट नही हो सकती जो कि एक घुमक्कड़ को प्राप्त होती है।

    अधिक से अधिक यात्रा-पाठकों के लिए यही कहा जा सकता है, कि दूसरे अंधों की अपेक्षा उन्हें थोड़ा आलोक मिल जाता है और साथ ही ऐसी प्रेरणा भी मिल सकती है, जो स्थाई नहीं तो कुछ दिनों के लिए उन्हें घुमक्कड़ बना सकती हैं। घुमक्कड़ क्यों दुनिया की सर्वश्रेष्ठ विभूति है? इसीलिए कि उसी ने आज की दुनिया को बनाया है। यदि आदिम-पुरुष एक जगह नदी या तालाब के किनारे गर्म मुल्क में पड़े रहते तो वह दुनिया को आगे नहीं ले जा सकते थे। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहाई हैं, इसमें संदेह नही, और घुमक्कड़ों से हम हर्गिज़ नही चाहेंगे कि खून के रास्ते को पकड़ें, किंतु अगर घुमक्कड़ों के काफ़िले आते-जाते तो सुस्त मानव-जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। आदिम घुमक्कड़ों में से आर्यों, शकों, हूणों ने क्या-क्या किया, अपने खूनी पथों द्वारा मानवता के पथ को किस तरह प्रशस्त किया, इसे इतिहास में हम उतना स्पष्ट वर्णित नहीं पाते, किंतु मंगोल-घुमक्कड़ों की करामातों को तो हम अच्छी तरह जानते हैं। बारूद, तोप, कागज़, छापाखाना, दिग्दर्शक, चश्मा यही चीज़े थी, जिन्होंने पच्छिम में विज्ञान-युग का आरंभ कराया, और इन चीज़ों को वहाँ ले जानेवाले मंगोल घुमक्कड़ थे। कोलंबस और वास्को-द-गामा दो घुमक्कड़ ही थे, जिन्होंने पश्चिमी देशों के आगे बढ़ने का रास्ता खोला। अमेरिका अधिकतर निर्जन-सा पड़ा था। एशिया के कूप-मंडूकों को घुमक्कड़-धर्म की महिमा भूल गई, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झड़ी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन और भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक़्ल नहीं आई कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते। आज अपने 40-50 करोड़ की जनसंख्या के भार से भारत और चीन की भूमि दबी जा रही है, और आस्ट्रेलिया में एक करोड़ भी आदमी नहीं हैं। आज एसियायियों के लिए आस्ट्रेलिया का द्वार बंद है लेकिन दो सदी पहले वह हमारे हाथ की चीज़ थी। क्यों भारत और चीन आस्ट्रेलिया की अपार संपत्ति और असित भूमि से वंचित रह गए? इसीलिए कि वह घुमक्कड़-धर्म से विमुख थे, उसे भूल चुके थे।

    हाँ, मैं इसे भूलना ही कहूँगा क्योंकि किसी समय भारत और चीन ने बड़े-बड़े नामी घुमक्कड़ पैदा किए। वे भारतीय घुमक्कड़ ही थे, जिन्होंने दक्षिण-पूरब में लंका,वर्मा,मलाया,यवद्वीप, स्याम, कम्बोज, चंपा, बोनिर्यों और सेलिबीज ही नहीं, फ़िलिपाईन तक धावा मारा था, और एक समय तो जान पड़ा कि न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया भी वृहत्तर भारत का अंग बनने वाले हैं ; लेकिन कूप-मंडूकता तेरा सत्यानाश हो ! इस देश के बुद्धुओं ने उपदेश करना शुरू किया, कि समुंद्र के खारे पानी और हिंदू-धर्म में बड़ा बैर है, उसके छूनेमात्र से वह नमक की पुतली की तरह गल जाएगा। इतना बतला देने पर क्या कहने की आवश्यकता है, कि समाज के कल्याण के लिए घुमक्कड़-धर्म कितनी आवश्यक चीज़ है? जिस जाति या देश ने इस धर्म को अपनाया, वह चारों फलों का भागी हुआ, और जिसने इसे दुराया, उसके लिए नरक में भी ठिकाना नही। आखिर घुमक्कड़-धर्म को भूलने के कारण ही हम सात शताब्दियों तक धक्का खाते रहे, ऐरे गैरे जो भी आए, हमें चार लात लगाते गए।

    शायद किसी को संदेह हो कि मैंने इस शास्त्र में जो नियुक्तियाँ दी है, वह सभी लौकिक तथा शास्त्र-बाह्य है। अच्छा तो धर्म से प्रमाण लीजिए। दुनिया के अधिकांश धर्मनायक घुमक्कड़ रहे। धर्माचार्यों में आचार-विचार, बुद्धि और तर्क तथा सह्रदयता में सर्वश्रेष्ठ बुद्ध घुमक्कड़-राज़ थे। यद्यपि वह भारत से बाहर नही गए, लेकिन वर्षा के तीन मासों को छोड़कर एक जगह रहना वह पाप समझते थे। वह अपने ही घुमक्कड़ नही थे, बल्कि आरंभ ही में अपने शिष्यों को उन्होंने कहा था—“चरथ भिक्खवे ! चारिकं” जिसका अर्थ है—भिक्षुओं ! घुमक्कड़ी करो। बुद्ध के भिक्षुओं ने अपने गुरु की शिक्षा को कितना माना, क्या इसे बताने की आवश्यकता है? क्या उन्होंने पश्चिम में मकदूनिया तथा मिश्र से पूरब में जापान तक, उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में थाली और बांका के द्वीपों तक को रौंदकर रख नहीं दिया? जिस वृहत्तर-भारत के लिए हरेक भारतीय को उचित अभिमान है, क्या उसका निर्माण इन्ही घुमक्कड़ों की चरण-धूलि ने नही किया? केवल बुद्ध ने ही अपनी घुमक्कड़ी से प्रेरणा नही दी, जिसके ही कारण बुद्ध जैसे घुमक्कड़-राज़ इस देश में पैदा हो सके। उस वक्त पुरुष ही नही, स्त्रियाँ तक जम्बू-वृक्ष की शाखा ले अपनी प्रखर प्रतिभा का जौहर दिखाती, वाद में कूपमंडूकों को पराजित करती सारे भारत में मुक्त होकर विचरा करती थी।

    कोई-कोई महिलाएँ पूछती हैं—क्या स्त्रियाँ भी घुमक्कड़ी कर सकती हैं, क्या उनको भी इस महावत की दीक्षा लेनी चाहिए? इसके बारे में तो अलग अध्याय ही लिखा जाने वाला है, किंतु यहाँ इतना कह देना है, कि घुमक्कड़-धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्थान नही हो। स्त्रियाँ इसमें उतना ही अधिकार रखतीं हैं, जितना पुरुष। यदि वह जन्म सफल करके व्यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती है, तो उन्हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए। घुमक्कड़ी-धर्म छुड़ाने के लिए पुरुष ने बहुत से बंधन नारी के रास्ते में लगाए हैं। बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए घुमक्कड़ी करने का आदेश नही दिया,बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका वही उपदेश था।

    भारत के प्राचीन धर्मों में जैन धर्म भी है। जैन धर्म के प्रतिष्ठापक श्रमण महावीर कौन थे? वह भी घुमक्कड़-राज थे। घुमक्कड़-धर्म के आचरण में छोटी-से-बड़ी तक सभी बाधाओं और उपाधियों को उन्होंने त्याग दिया था—घर-द्वार और नारी-संतान ही नहीं, वस्त्र का भी वर्जन कर दिया था। “करतलभिक्षा, तरुतल वास” तथा दिगंबर को उन्होंने इसीलिए अपनाया था, कि निर्द्वन्द विचरण में कोई बाधा रहे। श्वेताम्बर-बंधु दिगम्बर कहने के लिए नाराज़ नही। वस्तुतः हमारे वैशालिक महान घुमक्कड़ कुछ बातों में दिगम्बर की कल्पना के अनुसार थे और कुछ बातों में श्वेताम्बरों के उल्लेख के अनुसार। लेकिन इसमें तो दोनों संप्रदाय और बाहर के मर्मज्ञ भी सहमत है, कि भगवान महावीर दूसरी तीसरी नहीं,प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। वह आजीवन घूमते ही रहे। वैशाली में जन्म लेकर विचरण करते ही पावा में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। बुद्ध और महावीर से बढ़कर यदि कोई त्याग,तपस्या और सह्रदयता का दावा करता है, तो मैं उसे केवल दंभी कहूँगा। आज-कल कुटिया या आश्रम बनाकर तेली के बैल की तरह कोल्हू से बंधे कितने ही लोग अपने को अद्वितीय महात्मा कहते हैं या चेलों से कहलवाते हैं ; लेकिन मैं, तो कहूँगा, घुमक्कड़ी को त्यागकर यदि महापुरुष बना जाता, तो फ़िर ऐसे लोग गली-गली में देखे जाते। मैं तो जिज्ञासुओं और महापुरुषों के फेर से बचे रहें। वे स्त्रय तेली के बैल तो हैं ही, दूसरों को भी अपने ही जैसा बना रखेंगे।

    बुद्ध और महावीर जैसे सृष्टिकर्ता ईश्वर से इनकारी महापुरुषों की घुमक्कड़ी की बात से यह नहीं मान लेना होगा, कि दूसरे लोग ईश्वर के भरोसे गुफ़ा या कोठरी में बैठकर सारी सिद्धियाँ पा गए या पा जाते हैं। यदि ऐसा होता, तो शंकराचार्य, जो साक्षात् ब्रहमस्वरूप थे, क्यों भारत के चारों कोनों की खाक छानते फिरे? शंकर को शंकर किसी ब्रह्म ने नही बनाया, उन्हें बढ़ा बनाने वाला था यही घुमक्कड़ी धर्म। शंकर बराबर घूमते रहे, आज केरल देश में थे तो कुछ ही महीने बाद मिथिला में, और अगले साल काश्मीर या हिमालय के किसी दूसरे भाग में। शंकर तरुणाई में ही शिवलोक सिधार गए, किंतु थोड़े से जीवन में उन्होंने सिर्फ़ तीन भाष्य ही नहीं लिखे ; बल्कि अपने आचरण से अनुयायियों को वह घुमक्कड़ी का पाठ पढ़ा गए,कि आज भी उसके पालन करने वाले सैकड़ों मिलते हैं। वास्को-द-गामा के भारत पहुँचने से बहुत पहले शंकर के शिष्य मास्को और योरूप तक पहुँचे थे। उनके साहसी शिष्य सिर्फ़ भारत के चार धामों से ही संतुष्ट नहीं थे, बल्कि उनमें से कितनों ने जाकर बाकू (रूस) में धूनी रमाई। एक ने पर्यटन करते हुए वोल्गा तट पर निज्नीनो-वोग्राद के महामेले को देखा। फिर क्या था, कुछ समय के लिए वहीं डट गया और उसने ईसाईयों के भीतर कितने ही अनुयायी पैदा कर लिए, जिनकी संख्या भीतर-ही-भीतर बढ़ती इस शताब्दी के आरंभ में कुछ लाख तक पहुँच गई थी।

    रामानुज, मध्वाचार्य और दूसरे वैष्णवाचार्यों के अनुयायी मुझे क्षमा करे, यदि मैं कहूँ कि उन्होंने भारत में कूप मंडूकता के प्रचार में बड़ी सरगर्मी दिखाई। भला हो, रामानंद और चैतन्य का, जिन्होंने कि पक से पंकज बनकर आदिकाल से चले आते महान घुमक्कड़ धर्म की फ़िर से प्रतिष्ठापना की, जिसके फलस्वरूप प्रथम श्रेणी के तो नहीं किंतु द्वितीय श्रेणी के बहुत से घुमक्कड़ उनमें भी पैदा हुए।

    ये बेचारे बाकू की बड़ी ज्वालामाई तक कैसे जाते, उनके लिए तो मानसरोवर तक पहुँचना भी मुश्किल था। अपने हाथ से खाना बनाना, मांस अंडे से छू जाने पर भी धर्म का चला जाना, हाड़-तोड़ सर्दी के कारण हर लघुशंका के बाद बर्फीले पानी से हाथ धोना और हर महाशंका के बाद स्नान करना तो यमराज को निमंत्रण देना होता, इसीलिए बेचारे फूंक फूंककर ही घुमक्कड़ी कर सकते थे। इसमें किसे उज्र हो सकता है, कि शैव हो या वैष्णव, वेदांती हो या सदान्ती, सभी को आगे बढ़ाया केवल घुमक्कड़-धर्म ने।

    महान घुमक्कड़-धर्म, बौद्ध धर्म का भारत से लुप्त होना क्या था, तब से कूप-मंडूकता का हमारे देश में बोलबाला हो गया। सात शताब्दियाँ बीत गईं, और इन सातों शताब्दियों में दासता और परतंत्रता हमारे देश में पैर तोढकर बैठ गई, यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी। लेकिन समाज के अगुओं ने चाहे कितना ही कूप-मंडूक बनाना चाहा, लेकिन इस देश में माई-के-लाल जब-तब पैदा होते रहे, जिन्होंने कर्म-पथ की ओर संकेत किया। हमारे इतिहास में गुरु नानक का समय दूर का नहीं है, लेकिन अपने समय के वह महान घुमक्कड़ थे। उन्होंने भारत-भ्रमण को ही पर्याप्त नहीं समझा और ईरान और अरब तक का धावा मारा। घुमक्कड़ी किसी बढ़े योग से कम सिद्धिदायिनी नहीं है, और निर्भीक तो वह एक नंबर का बना देती है। घुमक्कड़ नानक मक्के में जाके काबा की ओर पैर फैलाकर सो गए, मुल्लों में इतनी सहिष्णुता होती तो आदमी होते। उन्होंने एतराज किया और पैर पकड़ के दूसरी ओर करना चाहा। उनको यह देखकर बढ़ा अचरज हुआ कि जिस तरफ घुमक्कड़ नानक का पैर घूम रहा है, कावा भी उसी ओर चला जा रहा है। यह है चमत्कार ! आज के सर्वशक्तिमान, किंतु कोठरी में बंद महात्माओं में है कोई ऐसा, जो नानक की तरह हिम्मत और दिखलाए?

    दूर शताब्दियों की बात छोड़िए, अभी शताब्दी भी नहीं बीती, इस देश से स्वामी दयानंद को विदा हुए। स्वामी दयानंद को ऋषि दयानंद किसने बनाया? घुमक्कड़ी धर्म ने। उन्होंने भारत के अधिक भागों का भ्रमण किया; पुस्तक लिखते, शास्त्रार्थ करते वह बराबर भ्रमण करते रहे। शास्त्रों को पढकर काशी के बड़े-बड़े पंडित महा-महा-मंडूक बनाने में ही सफल होते रहे, इसलिए दयानंद को मुक्त-बुद्धि और तर्क-प्रधान बनाने का कारण शास्त्रों से अलग कहीं ढूढंना होगा। और वह है उनका निरंतर घुमक्कड़ी धर्म का सेवन। उन्होंने समुद्र यात्रा करने, द्वीप-द्विपांतरो में जाने के विरुद्ध जितनी थोथी दलीलें दी जाती थीं, सबको चिद्दी-चिद्दी उड़ा दिया और बतलाया कि मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं है, वह जंगम प्राणी है। चलना मनुष्य का धर्म है, जिसने इसे छोड़ा वह मनुष्य होने का अधिकारी नहीं है।

    बीसवीं शताब्दी के भारतीय घुमक्कड़ की चर्चा करने की आवश्यकता नही। इतना लिखने से मालूम हो गया होगा कि संसार में यदि कोई अनादि सनातन धर्म है, तो वह घुमक्कड़ धर्म है। लेकिन वह सकुचित संप्रदाय नहीं है, वह आकाश की तरह महान है, समुद्र की तरह विशाल है। जिन धर्मों ने अधिक यश और महिमा प्राप्त की है, वह केवल घुमक्कड़ थे, जिन्होंने ईसा के संदेश को घुमक्कड़ थे, उनके अनुयायी भी ऐसे घुमक्कड़ थे, जिन्होंने ईसा के संदेश को दुनिया के कोने-कोने में पहुँचाया। यहूदी पैगम्बरों ने घुमक्कड़-धर्म को भुला दिया, जिसका फल शताब्दियों तक उन्हें भोगना पड़ा।

    उन्होंने अपने जान चूल्हे से सिर निकालना नहीं चाहा। घुमक्कड़-धर्म की ऐसी भारी अवहेलना करने वाले की जैसी गति होनी चाहिए वैसी गति उनकी हुई। चूल्हा हाथ से छूट गया और गति होनी चाहिए वैसी गति उनकी हुई। चूल्हा हाथ से छूट गया और सारी दुनिया में घुमक्कड़ी करने को मजबूर हुए, जिसने आगे उन्हें मारवाड़ी सेठ बनाया; या यों कहिए कि घुमक्कड़ी-धर्म की एक छींट की अवहेलना, की उसे रक्त के आँसू बहाने पड़े। अभी इस विचारों ने बड़ी कुर्बानी के बाद और दो हज़ार वर्ष की घुमक्कड़ी के तजर्बे के बल पर फ़िर अपना स्थान प्राप्त किया। आशा है स्थान प्राप्त करने से वह चूल्हे में सिर रखकर बैठने वाले नहीं बनेंगे। अस्तु। सनातन-धर्म से पतित यहूदी जाति को महान पाप का प्रायश्चित या दंड घुमक्कड़ी के रूप में भोगना पड़ा, और अब उन्हें पैर रखने का स्थान मिला। आज भारत तना हुआ है। वह यहूदियों की भूमि और राज्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जब बड़े-बड़े स्वीकार कर चुके हैं, तो कितने दिनों तक यह हठधर्मी चलेगी? लेकिन विषयांतर में जाकर हमे यह कहना था कि यह घुमक्कड़ी धर्म है, जिसने यहूदियों को केवल व्यापार-कुशल उद्योग-निष्णात ही नही बनाया, बल्कि विज्ञान, दर्शन, साहित्य, संगीत सभी क्षेत्रों में चमकने का मौका दिया। समझा जाता था कि व्यापारी तथा घुमक्कड़ यहूदी युद्ध-विद्या में कच्चे निकलेंगे; लेकिन उन्होंने पाँच-पाँच अरबी साम्राज्यों की सारी शेखी को धूल में मिलाकर चारों खाने चित्त कर दिया और सबने नाक रगड़कर उनसे शांति की भिक्षा माँगी।

    इतना कहने से अब कोई संदेह नहीं रह गया, कि घुमक्कड़ धर्म से बढ़कर दुनिया में धर्म नही है। धर्म भी छोटी बात है, उसे घुमक्कड़ के साथ लगाना महिमा घटी समुद्र की,रावण बसा पड़ोस” वाली बात होगी। घुमक्कड़ होना आदमी के लिए परम सौभाग्य की बात है। यह पंथ अपने अनुयायी को मरने के बाद किसी काल्पनिक स्वर्ग का प्रलोभन नही देता, इसके लिए तो कह सकते हैं—“क्या खूब सौदा नकद है, इस हाथ ले इस हाथ दे।” घुमक्कड़ी वही कर सकता है, जो निश्चित है। किन साधनों से संपन्न होकर आदमी घुमक्कड़ी बनने का अधिकारी हो सकता है, यह आगे बतलाया जाएगा, किंतु घुमक्कड़ी के लिए चिंताहीन होने के लिए घुमक्कड़ी भी आवश्यक है। दोनों का अन्योंयाश्रय होना दूषण नहीं भूषण है। घुमक्कड़ी से बढ़कर सुख कहाँ मिल सकता है? आखिर चिंता-हीनता तो सुख का सबसे स्पष्ट रूप है। घुमक्कड़ी में कष्ट भी होते हैं, लेकिन उसे उसी तरह समझिए, जैसे भोजन में मिर्च। मिर्च में यदि कडवाहट हो, तो क्या कोई मिर्च-प्रेमी उसमें हाथ भी लगाएगा? वस्तुत: घुमक्कड़ी से कभी-कभी होने वाले कडवे अनुभव उसके रस को और बढ़ा देते हैं, उसी तरह जैसे काली पृष्ठभूमि में चित्र अधिक खिल उठता है।

    व्यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई नकद धर्म नहीं है। जाति का भविष्य घुमक्कड़ी पर बढ़कर निर्भर करता है, इसलिए मैं कहूँगा कि हरेक तरुण और तरुणी को घुमक्कड़-व्रत ग्रहण करना चाहिए, इसके विरुद्ध दिए जाने वाले सारे प्रमाणों को भूल और व्यर्थ का समझना चाहिए। यदि माता-पिता के नवीन संस्करण हैं। यदि हित-बांधव बाधा उपस्थित करते हैं, तो समझना चाहिए कि वे दिवांध हैं। यदि धर्म-धर्माचार्य कुछ उलटा-सीधा तर्क देते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि इन्ही ढोंगो और ढोंगियों ने संसार को कभी सरल और सच्चे पथ पर चलने नहीं दिया। यदि राज्य और राजसी-नेता अपनी क़ानूनी रूकावटे डालते हैं, तो हजारों बार की तजर्बा की हुई बात, कि महानदी के वेग की तरह घुमक्कड़ की गति को रोकनेवाला दुनिया में कोई पैदा नही हुआ। बड़े-बड़े कठोर पहरेवाली राज्य-सीमाओं को घुमक्कड़ों ने आँख में धूल झोंककर पार लिया मैंने स्वयं ऐसा एक से अधिक बार किया है। (पहली तिब्बत यात्रा में अंग्रेजों, नेपाल-राज्य और तिब्बत के सीमा-रक्षकों की आँख में धूल झोंककर जाना पड़ा था।)

    संक्षेप में हम यह कह सकते हैं, कि यदि कोई तरुण-तरुणी घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है—यह मैं अवश्य कहूँगा, कि यह दीक्षा वही ले सकता है, जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है—तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, माता के आँसू बहने की प्रवाह करनी चाहिए, पिता के भय और उदास होने की, भूल से विवाह लाई अपनी पत्नी के रोने-धोने की फ़िक्र करनी चाहिए और किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की। बस शंकराचार्य के शब्दों में यही समझना चाहिए—“निस्त्रैगुणये पथि विचरत: को विधि: को निषेध.” और मेरे गुरु कपोतराज के वचन को अपना पथप्रदर्शक बनाना चाहिए—

    “सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिंदगानी फ़िर कहाँ?

    जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?”

    ज़िंदगी में मानुष-जन्म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और मनस्वी तरुण तरुणियों को इस अवसर से हाथ नही धोना चाहिए। कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों ! संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घुमक्कड़-शास्त्र (पृष्ठ 1)
    • रचनाकार : राहुल सांकृत्यायन
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन दिल्ली
    • संस्करण : 1949

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए