अंधेर-नगरी
समर्पण
मान्य योग्य नहिं होत कोऊ, कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल पर हित जाए॥
जे स्वारथ रत धूर्त, हंस से काक-चरित-रत।
ते औरन हति बंचि, प्रभु नित होहि समुन्नत॥
जदपि लोक की रीति यही, पे अंत धर्म जय।
जौ नाहीं यह लोक तदपि, लछियन अति जम भय॥
नर शरीर