रमज़ान में मौत
ramzan mein maut
असद मियाँ की आँखें बंद थीं। एक पल के लिए मैंने सोचा, वापिस चला जाऊँ। दूसरे ही पल असद मियाँ आँखें खोले देख रहे थे। उन आँखों में कोहरा भरी सुबह-सी रौशनी थी।
—ख़ुदा के लिए अयाज़...सीना दर्द से टूटा जा रहा है।
सुहेला भाभी आइने के सामने खड़ी हुई डैबिंग करके चेहरे के धब्बे मिटा रही थीं। कमरे में जलते हुए बल्ब की रौशनी धीरे-धीरे बाहर फैलते अँधेरे के साथ उभरने लगी थी। सूरज डूबने में कुछ और देर थी।
—जमील! अरे, जमील! सुहेला भाभी ने आवाज़ दी।
असद मियाँ के पलंग की चादर सफ़ेद थी। पलंग के नीचे दो फटी हुई चप्पलों में उलझी हुई एक सलाबची थी, जिसे शायद वह पिछले कई घंटों से लगातार इस्तेमाल करते रहे थे। उनके पैर गंदे और एड़ियों की खाल चटख़ी हुई थी। बिस्तर पर चादर का वह हिस्सा जहाँ उनके पैर थे, दाग़दार हो चुका था।
—ज़फ़र भाई आ रहे हैं, मैंने असद मियाँ से आँखें बचाते हुए कहना चाहा, लेकिन फिर मैंने देखा आँखें तो वो ख़ुद ही बंद कर चुके थे। सुहेला भाभी ने मज़ाक उड़ाती हुई-सी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और फिर आवाज़ देने लगीं—जमील... अरे, कहाँ ग़ारत हो गया?
—अरे, आ रहा हूँ। कहीं बाहर से आवाज़ आई।
दूर आसमान में चमक-सी फैली। एक सकते के बाद धमाका हुआ।
असद मियाँ की आँखों के पपोटे हलके से हिले, लेकिन आँखें बंद ही रहीं।
...दो...तीन...चार तोपें चल रही थीं। इफ़्तार का वक़्त हो गया था।
—लेकिन यार तोपें ही क्यों? ये तो बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे किसी को सलामी दी जा रही हो। सायरन भी तो बजाया जा सकता है? एक बार मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा था और मैं हँसकर रह गया था।
—अगर ख़ुद साफ़ नहीं रह सकते तो दूसरों को तो चैन से करने दें! ख़ुद के पलंग पर नहीं लेट सके, सारी चादर का सत्यानाश कर दिया! सुहेला भाभी ख़ुद को एक ख़ूबसूरत सिंगार मेज़ में लगे आइने में देखते हुए बुदबुदा रही थीं—और अगर चाँद दिख गया तो कल ईद है। कोई धुली चादर भी न होगी।
मैंने देखा, आइना बिलकुल बेदाग़ था, लेकिन लकड़ी के बने मेज़ के फ़ेम की पॉलिश जगह-जगह से उड़ गई थी और कई जगह पड़े हुए गड्ढों से लकड़ी का अपना रंग झाँकने लगा था। आइने के नीचे बेगिनती शीशियाँ रखी हुई थीं—कॉस्मेटिक्स, परफ़्यूम्स और स्प्रेज़ की सुंदर शीशियाँ जिनमें से, मैंने अंदाज़ा लगाया, ज़ियादातर ख़ाली होंगी।
जमील तेज़ी से कमरे में दाख़िल हुआ। हाथ उठाकर उसने सलाम किया। फिर अजीब तरह से मुस्कुराकर अपने बाप असद मियाँ की तरफ़ देखने लगा।
—क्या कह रही थीं, अम्मी?-फिर जैसे मुझसे छुपाते हुए असद मियाँ की तरफ़ इशारा करके उसने आँखों-ही-आँखों में कोई सवाल अपनी माँ से पूछा।
सुहेला भाभी ने होंठ सिकोड़कर गर्दन हिला दी।
—बुलाने के लिए तुम्हें घंटों आवाज़ें देनी पड़ती हैं। उनके लहजे में तेज़ी थी।
—मुझे क्या मालूम, आप आ गईं? बग़ैर कहे तो चली गई थीं। जमील ने दूँबदूँ जवाब दिया।
—चाँद दिखा?
—ऊँहुँ।
—देखो, तुम कहीं जाना मत। अभी थोड़ी देर बाद तुम्हें मेरे साथ चलना है।
—अम्मी! जमील ने शिकायती स्वर में कहा—शन्नो और दूसरे लड़के मेरा इंतिज़ार कर रहे हैं। मुझे उनके साथ जाना है।
—जाना-वाना कहीं नहीं है, आप मेरा इंतिज़ार कीजिए। कहते हुए सुहेला भाभी भीतरी कमरे में चली गई।
केवल असद मियाँ के साँस लेने की आवाज़! जफ़र मियाँ अभी तक नहीं आए थे। क्या वह आएँगे?
—यार! तुम चलो, मैंने इफ्तार पर कुछ दोस्तों को बुलाया है। असद मियाँ के तीसरे बुलावे पर उन्होंने मुझसे कहा था। मैं शहनाज़ आपा के पास बैठा ईद के शीर-ख़ुर्मा की लिस्ट बना रहा था। तुम चलो, मैं आता हूँ।
असद मियाँ के सिरहाने कैलेंडर के पन्ने कई महीनों से नहीं बदले गए थे। कमरे के एक हिस्से में काली अपहोलस्ट्री के गहरे सोफ़े बिछे हुए थे। कोने में लंबे-से बुकशेल्फ़ पर तरतीब और बेतरतीबी के साथ बहुत-सी किताबें थीं-इंसाइक्लोपीडियाज़? बिज़नेस डायरेक्ट्रीज, दाईं तरफ़ दीवार पर एक बिदकते घोड़े की पेंटिंग टॅगी हुई थी। सेंटर टेबल के नीचे का क़ालीन फट चुका था। वैसे भी क़ालीन का डिज़ाइन ज़ियादा इस्तेमाल की वजह से डल हो गया था। केवल कुछ उड़े-उड़े से रंग थे जिनमें बुनियादी यक्सानियत शायद धूल की शिदत्त की वजह से थी।
—ज़फ़र नहीं आए अब तक? असद मियाँ की झिलमिलाती-सी आँखें मेरी तरफ़ देख रही थीं।
—कुछ दोस्तों को खाने बुलाया है, आते ही होंगे। मैंने धीरे से कहा—कब से तबीअत ख़राब है?
—ऐं...? तबीअत...? चार-पाँच दिन से ख़राब है। सीने में सख़्त दर्द है, दिल बिलकुल बैठा जा रहा है, उनकी साँस ऊपर-नीचे हो रही थी।
—तमशाबाज़ी है! निरी ऐक्टिंग! और सारे मर्ज़ों की एक ही दवा है—पैथिडीन! असद मियाँ के दूसरे बुलावे पर ज़फ़र मियाँ ने झुंझलाकर कहा था। कुछ और काम भी करने हैं! चाँद दिख गया तो कल ईद है। मज़ाक़ बना लिया है उन्होंने तो-फिर घड़ी खोलकर यूँ ही झटका देने के बाद वह उसे कान से लगाकर सुनने लगे थे। उस समय मुझे गाँव से आए कोई एक घंटा हुआ था।
—किसी डॉक्टर को दिखाया? मैंने असद मियाँ की कलाई थामते हुए पूछा।
सब कुछ फिर ख़ामोशी में डूब गया। असद मियाँ छत की तरफ़ मुस्कुराती-सी नज़रों से देख रहे थे। उनकी निगाहें जाने या अनजाने छत के उसी हिस्से पर टिकी थीं जहाँ पंखा लगाने का हुक था। बिजली की फिटिंग वहाँ तक बक़ायदगी से जाकर एकदम दो नंगे वायरों की आँखों से झाँकने लगी थी।
—तुम मेरा एक काम कर दो। उनकी आवाज़ और आँखें पहली बार मेरी ओर मुड़ीं।
—जी।
—मेरी तबीअत ठीक नहीं है, और मैंने कल से इंजेक्शन भी नहीं लिया है। कल दोपहर से। शायद उससे तबीअत कुछ बेहतर हो जाए। उनके स्वर में बला की मिन्नत थी—तीन इंजेक्शन पैथिडीन के। मदन के यहाँ मिल जाएँगे।
मैंने धीरे से ठंडी साँस ली। असद मियाँ बिना पलकें झपकाए उन्हीं मिन्नत भरी नज़रों से मेरी ओर देख रहे थे। उसी समय हाथ में काले चमड़े का बैग थोमे, प्याज़ी रंग की साड़ी पहने सुहेला भाभी कमरे में दाख़िल हुईं।
—मुझे ज़रा बाहर जाना है। जैसे उन्होंने अपने-आपसे कहा—ये जमील कहाँ चला गया? फिर बिना किसी जवाब की प्रतीक्षा किए वह पर्दा उठाकर बाहर निकल गई।
असद मियाँ उसी तरह मेरी तरफ़ देख रहे थे।
सीढ़ियाँ उतरते-उतरते मैं न चाहते हुए ज़फ़र मियाँ के घर की ओर मुड़ गया। फ़लक मंज़िल के बाहरी हिस्से में ज़फ़र मियाँ और इसके पीछे उनकी छोटी बहन शाहिदा रहती थी। पिछले टुकड़े में सबसे बड़े भाई असद मियाँ का ख़ानदान था। घूमकर मैं ज़फ़र मियाँ के कमरे में पहुँचा।
शहनाज़ आपा तन्नू को उसका ईद का जूता दिखा रही थीं।
—मामूँ आ गए। देखिए मामूँ, अब्बू हमारा नया जूता लाए। तन्नू बहुत ख़ुश था।
—और बेटा, मामूँ को नहीं बताया कि तुमने शेर कैसे मारा था? और तुम्हारी बंदूक़ कहाँ है?
ज़फ़र मियाँ बाहर के कमरे से अंदर आ गए थे। तन्नू नक़ल करके बता रहा था कि झाड़ी में से 'हाऊँ' करता कैसे शेर निकला और कैसे उसने अपनी कॉर्क वाली बंदूक़ से उसे ढेर कर दिया। फिर दीवान पर बिछी शेर की खाल की तरफ़ इशारा करके उसने ठेठ शिकारियों वाले लहजे में कहा— उसी की खाल है। जफ़र मियाँ हँस-हँसकर लोटे जा रहे थे।
—भई खाना तैयार हो गया? रियाज़? का तो रोज़ा था, सूख गए होंगे। उन्होंने शहनाज़ आपा से कहा और दोनों बावर्चीख़ाने की तरफ़ चले गए।
तन्नू अपनी बंदूक़ लटकाए शायद दादी माँ को शेर का शिकार सुनाने चला गया और मैं अकेला दीवान पर बैठा रह गया। कमरे के दो कोनों में रखे लैम्प्स के शेड्स में से रौशनी छन-छनकर अँधेरे में घुल रही थी और कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था कि सूरज निकलने के थोड़े पहले या डूबने के बिलकुल बाद का समय हो। बीच में महोगनी के सिरहाने की ख़ूबसूरत दोहरी मसहरी थी जिसके लिए ऊपर छत में मच्छरदानी के स्ट्रिंग्स लटक रहे थे। बाज़ू में दीवार से लगी हुई गहरे काले रंग की वार्डरोब्ज़ थी और उसके बाद लगभग कोने में लैम्प के पास ड्रेसिंग टेबिल। बिलकुल वैसी ही जैसी असद मियाँ के घर में थी। इसमें पॉलिश की चमक अब भी बाक़ी थी। दूसरी तरफ़ जूते रखने का स्टैंड या जिसमें बहुत से ज़नाने और मर्दाने जूते रखे हुए थे। पलंग से अटेच्ड, सिरहाने एक छोटा-सा बुक-रैक था जिसमें क़ायदे से किताबें जमी हुई थीं। पूरे कमरे में ब्लड-रैड और ब्लैक के मिले-जुले पैटर्न का क़ालीन बिछा हुआ था।
नहीं! ज़फ़र मियाँ भूल नहीं सकते थे। फिर क्या जानकर वह असद मियाँ के ज़िक्र को टाल गए थे? पंद्रह दिन पहले भी जब मैं गाँव से आया था, असद मियाँ की तबीअत ख़राब चल रही थी। बल्कि रमज़ान से पहले तो एक दिन उनकी हालत नाज़ुक हो गई थी। तब मैंने ज़फ़र मियाँ से कहा था—किसी डॉक्टर को दिखा दें?
—तुम भी यार कमाल करते हो! हर तीसरे दिन किस डॉक्टर को दिखाया जा सकता है? फिर कुछ बीमारी हो तब ना। सड़क पर कोई पहचानवाला मिल जाए तो टाँग में चोट लगने से फ्रेक्चर तक ही कहानी उसे सुना देते हैं। दवा के पैसे माँग लेते हैं और जाकर वही पैथिडीन! किसी जान-पहचानवाले के यहाँ अगर मुर्ग़ियाँ पली हैं तो जाकर कहेंगे बच्चों ने बहुत दिन से अंडे नहीं खाए हैं। जो कुछ मिल गया सिंधी को बेच देंगे और फिर वही पैथिडीन! जीना हराम कर दिया है। इंशोरेंसवालों से जो कुछ मकान का किराया मिलता है, वह भी इन्हीं घपलों में उड़ाते हैं। ज़मील चोरी के अलावा अब सट्टे से भी शौक़ करने लगे हैं। इधर भाभी की हरकतें देखो! नसरीन भी उन्हीं के रास्ते पर जा रही है। पता नहीं किन-किन हरामज़ादों के साथ खुली हुई जीपों में घूमती-फिरती है। यही सब दोनों छोटी बेटियाँ भी करेंगी। वह तो बहुत ग़नीमत है कि सारा और समीना की शादियाँ हो गईं। मियाँ, हमने तो उधर फटकना भी छोड़ दिया। अम्मी की ज़िंदगी तो हराम हो ही गई।