एक थी सीता

ek thi seeta

पॉल थॉमस मन

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    कर्म से ग्वाले, क्षत्रिय कुल के सुमंत्र की सुगठित सुंदरी सीता और उसके दोनों पतियों (अगर पति कहना ही अपरिहार्य हो तो) की कहानी ऐसी है कि श्रोता से श्रेष्ठ मानसिक बल माया के विविध रूपों की प्रतिक्रिया में अविचलित रहने की माँग करती है।

    स्मृति के अंतर्गत आने वाले एक काल में जगद्धात्री के वक्ष पर अंतरंग मैत्री के कोमल बंधनों में दो नवयुवक रहा करते थे। भवभूति का बेटा श्रीदामा कुल से ब्राह्मण, कर्म से वणिक् और आयु में अपने सखा गर्ग के बेटे नंद से तीन वर्ष बड़ा था। यादववंशी, अठारह वर्षीय नंद कुलीन नहीं था, किंतु व्यवसाय करता था। श्रीदामा के लिए ब्राह्मणमार्गी संस्कारों को तजना कर्म बदलने के बावजूद कठिन था, अतः वह अध्ययन, गांभीर्य, सुसंस्कृत भाष्य से अलंकृत था, जबकि नंद को शूद्र होते हुए भी इन वस्तुओं से कुछ ज़्यादा लगाव नहीं था।

    दोनों के शरीर भी इसी भाँति विभिन्न थे। नंद श्यामकाय महाबली था, श्रीदामा ओजमंडित मुखश्री चंद्रवर्ण से विभूषित था, किंतु कृषकाय था। कोशल भूमि के गोपुरम ग्राम में दोनों रहते थे और दोनों की आमूल विभिन्नता ही अभिन्न मित्रता का मूल थी—ऐतद् वेतद् के सिद्धांतानुसार सहचारिता एकानुभूति को जन्म देती है, एकानुभूति अंतर की ओर ध्यान आकर्षित करती है, अंतर से तुलना उद्भूत होती है, तुलना असहजतापूर्ण विचार उपजाती है, असहजता अचरज की ओर ले जाती है, अचरज शंसा का मार्ग प्रशस्त करता है और शंसा से अंततः हम परस्पर विनिमय के उद्योग द्वारा संयुक्त हो जाते हैं। दोनों मित्रों में दारुण भिन्नता के कारण वैसी नोक-झोंक होती रहती थी, जो ऐसी मैत्री का भावमय अलंकार होती है।

    नंद को व्यावसायिक दृष्टि से एक योजना बनानी पड़ी, जिसमें उसने अपने परम बंधु श्रीदामा को भी संग ले लिया, ताकि यात्रा आनंदपूर्ण रहे। तदनुसार दोनों मित्र यमुना के तट पर बसे इंद्रप्रस्थ के उत्तर की ओर कुरुक्षेत्र के निकट पहुँचे। गंतव्य से कुछ इधर ही माँ काली के एक निवास स्थान के निकट, दोनों मित्रों ने विश्राम हेतु पड़ाव डाला। स्नान भोजन से निवृत्त होकर एक मीठी-सी विद्या संबंधी झड़प की और वृक्षों के झुरमुट में अपराह्न वेला में आकाश का सौंदर्य निहारते लेट गए। नंद के बदन से उठती सरसों के तेल की महक से मच्छर इत्यादि भुनभुनाने लगे तो दोनों मंद-मंद मुस्कराते हुए उठकर बैठ गए। तत्काल झुरमुट के पार नंद की दृष्टि गई। और सीता के अवतरण का कारण जुटा...जो उस समय स्नान-स्थली के तीर पर खड़ी जल को शीश नवाए धारा में उतरने को थी। अर्धवसना युवती की सर्वांग श्रेष्ठ, सुकुमार सुंदरता के आलोक से चौंधियाकर दोनों विस्मित रह गए। निश्चल निर्वाक् रहकर उस प्राणमयी रूपयष्टि का प्रभाव-पान करने लगे। दोनों के लिए इस अवलोकन-प्रक्रिया से मुक्त होना तब तक असंभव रहा, जब तक सुंदरी सीता नहाकर, बदन पोंछकर, अपनी चोली साड़ी पहनकर चली नहीं गई, तब तक दोनों ने उसकी स्नानलीनता में व्याघात पड़ने की शंका से पत्ता तक नहीं खड़कने दिया। यहाँ तक कि उस बीच किसी नभचर, किसी वायु का कलरव तक नहीं सुना! ...नंद ने यह उद्घाटित किया कि वह उस अनिंद्य रूपाँगना को जानता था। भीष्म ग्राम के सुमंत्र की बेटी थी वह और उसने उसे अपनी बाँहों पर उठाकर सूर्यस्पर्शी भी कराया था—पिछले बसंत में, जब एक उत्सव में वह यहाँ आया था। सीता के प्रभाव में रमी-रमी चर्चाएँ करते नंद और श्रीदामा पूर्व योजनानुसार तीन दिन बाद मिलने का स्थान समय निश्चित करके अलग-अलग हो गए। विलगने से पूर्व श्रीदामा ने प्रवाहित होकर कहा—”सौंदर्य का अपनी छवि के प्रति कर्तव्य भी होता है। इस कर्तव्य को पूरा करके वह एक ऐसी ईहा जगाता है जो उसकी आत्मा तक पहुँचने का मार्ग दर्शाती है...मैं भी, बंधु, उस रूप को देखकर तुम्हारी ही तरह प्रभावित हूँ। यह उन्मादावस्था इस दर्शन का कार्य है...”

    तीन दिन बाद निश्चित स्थान समय पर जब श्रीदामा नहीं पहुँचा तो नंद विकल हो उठा। अंत में जब वह आया तो नंद यह देखकर बिंध गया कि उसके मित्र के मुखमंडल पर विषाद और निराशा के घटाटोप बादल हैं। उसने भोजन के लिए क्षमा चाही और बताया कि वह अस्वस्थ रहा है। नंद ने उसकी बाँह पकड़ी अकुलाकर पूछा, “मेरे भाई, तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?”

    श्रीदामा ने आत्मस्वीकार किया और कहा कि वह सुंदरी सीता की अदमनीय कामना से जूझ रहा है और संसार में कहीं कुछ भी रुचिकर नहीं दीख रहा। अतः उसका रोग मृत्युपर्यंत है, “नंद, मेरे लिए चिता तैयार कर दो! तिल-तिल जलकर मरने से अच्छा होगा कि मैं अपने प्राणों की आहुति दे दूँ।”

    नंद ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “तो मैं भी चिता में तुम्हारे साथ ही पड़ जाऊँगा। क्योंकि तुम्हारे बिना मेरा जीवन अपूर्ण है। देखते हो, मेरी यह बलिष्ठ देह केवल आहार के बल पर नहीं पनपी। तुम्हारे ओजस्वी मानस की गरिमा भी उसके अंतःसंचार का आधार है।”

    श्रीदामा ने कहा कि क्योंकि नंद ने भी उसके साथ ही इस रूपसुधा के पान का श्रेय बाँटा था, अतः वह जैसा चाहे कर सकता है। चाहे तो दोनों के लिए चिता तैयार कर सकता है।

    सुनकर नंद ने कहा, “मित्र, मैं समझ गया, तुम तीव्र संवेदनशील कुशाग्र मस्तिष्क के हो। अतः तुम प्रेम का शिकार होकर रह गए। आज्ञा दो तो मैं मृत्यु की बजाय तुम्हारी प्रेम की इच्छा पूरी करने के लिए उद्योग करूँ। सीता सुंदरी से तुम्हारे विवाह के लिए बात चलाऊँ। मुझे विश्वास है कि वह तुम जैसे विद्वान् कुलीन युवक को पाकर धन्य होगी।”

    “कर सकोगे ऐसा नंद प्रिय?” श्रीदामा ने क्षीण आभा संदेह से पूछा।

    'क्यों नहीं दाऊ जी?”

    और नंद ने कर दिखाया।

    सीता से केवल श्रीदामा का तुरंत विधिवत् विवाह हो गया, अपितु वह ऐसे पति को पाकर मुग्ध भी हो गई, जिसका सर्वांग विद्वत्ता के ओज से प्रद्युमित था। पति-पत्नी के दिन-रात आलोक, नाद और विस्मृति के पुष्पों से सजे-ढके रहने लगे। घोर ग्रीष्म के बाद वर्षा आई। और जब वह भी जाने को हुई, तब श्रीदामा की माता ने सीता को एक बार पीहर हो आने की आज्ञा दी, वह छह मास गुज़रते गुज़रते, अब अपने गर्भ में श्रीदामा के विवाह का फल धारण कर चुकी थी।

    अभिन्न नंद गाड़ी हाँक रहा था। पीछे दंपति मौन मग्न थे। नंद धुन में था। वह ऊँचे स्वर में एक गीत अलापता, बीच में गुनगुनाहट पर उतर आता और अंत में उसकी बुदबुदाहट-भर सुनाई देती। तब वह पीछे घूमकर देखता तो दोनों को अपनी ओर देखता पाता। यह क्रम मौन मात्र में परिवर्तित हो गया और तीनों की साँसें-भर सुनाई देती रहीं। कई बार तीनों ने एक-दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दृष्टि से देखा, तब जाकर उन्हें चेत हुआ कि वे रास्ता भटक गए हैं और वाहन एक बिरल स्थल पर बंद मार्ग के सामने खड़ा है। नंद ने साहस जुटाकर राह बदली। देर हो चुकी थी, फिर भी रास्ता उसने ढूँढ़ निकाला। मार्ग पर जब माँ दुर्गा का मंदिर पड़ा तो श्रीदामा ने कहा, ‘‘नंद, ज़रा रोकना! मैं देवी का दर्शन करके तुरंत आता हूँ।”

    अंधकार में, जिसमें तीनों में से कोई भी एक-दूसरे की स्तब्धमति को देख नहीं पा रहा था, श्रीदामा उतरा और मंदिर के अंदर चला गया। मंदिर में, देवी के सान्निध्य में आते ही उसे चहुँ ओर जीवित वासनाओं के नाना बिंब-प्रतिबिंब दिखे! संसार उसे तृष्णा, ऐष्णा और काम लोभ और अविश्वास आदि का आगार प्रतीत होने लगा...

    बड़ी देर तक जब श्रीदामा नहीं आए तो सीता ने नंद से कहा, “नंद प्रिय, जाओ और ध्यान में भूले अपने कोमल सखा को अपनी बलिष्ठ भुजाओं से चेताओ कि विलंब हो रहा है, अंधकार सता रहा है।”

    नंद ‘शिरोधार्य' कहकर वाहन से उतरा और मंदिर में चला गया, किंतु वह भी लौटा।

    विचलित होकर स्वयं सीता जब मंदिर में गई तो देवी की मूर्ति के सामने का दृश्य देखकर चीत्कार कर उठी...धरती पर पति श्रीदामा और नंद के शीश कंधों से अलग पड़े थे, सर्वत्र रक्त फैला था और उस ओर पड़ी एक तलवार चमक रही थी।

    “हे देवी, तूने मुझे लुट जाने दिया! दिग्गज मस्तिष्क वाले मेरे आदरणीय पति का, जो रातों में मेरा आलिंगन किया करते थे, जिन्होंने मुझमें काम-ज्वर जगाया था और जिन्हें मैंने कौमार्य भेंट किया था, तूने अपनी देख-रेख में उनका प्राणांत हो जाने दिया और नंद, जिसने उनके लिए मुझे माँगा था...उसकी बलिष्ठ बाँहें और छाती पर गुदे गो चिह्न, जिन्हें मैं अब छू नहीं सकती। किंतु देवी, मैं मुक्त हुई, रक्त और मृत्यु ने मित्रता मर्यादा के वे बंधन तो हटा लिए, जो मेरे और उसके बीच नित भड़कती बढ़ती हुई इच्छा के आड़े आते थे...मैं यह भेद नहीं छिपा सकती अब कि नंद ने ईर्ष्यावश मेरे पति का सर उड़ा दिया होगा और फिर पश्चात्ताप में अपना भी अंत कर लिया होगा। पर यहाँ तलवार एक है और वह नंद के हाथ में है...कैसे संभव हुआ होगा...मैं अभागी बची रह गई!”

    नाना विलाप करती सीता बाहर दौड़ गई और एक वृक्ष के साथ फंदा बनाकर अपना गला उसमें डालने जा रही थी कि तत्काल आकाशवाणी हुई और माँ ने उसे आज्ञा दी—”ठहर मूर्ख! मुझसे कह! मुझसे सुन!”

    सीता ने माँ दुर्गा के सामने क्षमा-याचनापूर्वक स्वीकार किया कि उसने नंद की इच्छा की थी, किंतु स्पर्श नहीं। और उसकी यह इच्छा पति पर एक रात अचेतावस्था में उसने उद्घाटित कर दी थी। उसी दिन से उसके पति का हृदय बिंध गया था। सर्वनाश की जड़ में यह गुत्थी थी।

    माँ ने उसकी भर्त्सना की और वचन माँगा कि अगर वह भविष्य में कभी भी वैवाहिक पावनता को लांछित नहीं होने देगी तो वह उन दोनों निर्दोष पुरुषों को जीवनदान देकर उसका जीवन सुखमय बना सकती है। सीता ने वचन दिया। माँ ने कहा, “जा, दोनों के कंधों पर यथास्थान उनके सिर रख दे, उन्हें पूर्ववत् जीवन मिल जाएगा। किंतु वचन भंग हो।”

    माँ की आज्ञा शिरोधार्य कर सीता मंदिर में लौटी और यथाविधि दोनों कंधों पर सिर रखकर अपने संसार के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। जब दोनों में प्राण संचार हुए तो वह अपनी भूल पर स्तब्ध रह गई। उसने श्रीदामा की कृष देह पर नंद का और नंद की महाबली देह पर श्रीदामा का सिर रख दिया था। यह क्या हो गया? अब वह पति माने तो किसे? श्रीदामा मस्तिष्क धारी नंद की देह के आलिंगन में उसे समाना था या श्रीदामा की देह वाले नंद के सिर का वरण करना था? विवाद इतना बढ़ा, भ्रम इतना उपजा कि फ़ैसला करने के लिए एक पंच की आवश्यकता पड़ गई। “क्षमा करो!” वह रोती हुई चीख़ी “देवी, यह मुझसे क्या हो गया?”

    नंद की देह पर प्राणित श्रीदामा के मस्तिष्क संपन्न मुख से सुझाव आया कि धनुष्कोटि के ऋषि कामदमन के पास चला जाए! जैसा वह कहें, मान्य होना चाहिए। शेष दोनों सहमत हो गए।

    वाहन तक आए तो समस्या उठी कौन हाँकेगा? धनुष्कोटि की राह और ऋषि कामदमन का पता तो श्रीदामा के मस्तिष्क को ही मालूम था। अत: नंद के सर वाली श्रीदामा की देह के साथ सीता अंदर बैठ गई और नंद की देह के साथ श्रीदामा कोचवान बने।

    पूरी बात सुनकर ऋषि कामदमन ने कहा, “देह गौण है, आत्मा का विचार अस्तित्व मस्तिष्क में होता है और मस्तिष्क की प्रक्रिया यंत्र सिर में होते हैं। इस प्रकार नंद की देह पर मंडित श्रीदामा ही सीता के पति होने चाहिए।”

    निर्णय होते ही सीता उमगकर श्रीदामा की उस देह में अवगुंठित हो गई। जिसकी बाँहों की इच्छा ने उसके हृदय में, अतीत में, अदम्य लालसाओं का संचार किया था। वह परम प्रसन्न थी और परम-प्रसन्न था श्रीदामा भी, जिसने नंद के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त की, “तुम्हारी देह पाकर मैं तुम्हारा आभार अनुभव करता हूँ। मेरे पास अब मानसिक दैहिक, दोनों ही तरह की शक्तियाँ हैं। मित्र, न्याय तुम्हारे पक्ष में नहीं रहा। मुझे खेद है...अपनी मित्रता वापस माँगना।”

    नंद खिन्न तो था, किंतु मस्तिष्क से चूँकि गहरा नहीं था, अतः न्याय को उसने सहज रूप में ही लिया। एकांत में जाकर उसने संन्यास धारण कर लिया।

    पति-पत्नी जब अपने सामान्य जीवन में लौटे तो सीता की ख़ुशी का पारावार था। उसके गर्भ में 'नंद' का बीज पनप रहा था। यथासमय उसने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम उसके ससुर सास ने समाधि रखा।

    समाधि का जन्म हालाँकि बहुरंगी उत्सवों के अभिनंदन के साथ हुआ था, फिर भी कुछ काल पश्चात् उसकी दृष्टि के विकार का तथ्य सामने आया। उसे दूर की वस्तुएँ साफ़ नहीं दिखाई देती थीं और यह दोष तीव्रता से विकसित होता गया।

    दिन बीतते रहे। श्रीदामा का मस्तिष्क भी सक्रिय रहा। उसकी विद्वत्ता अपनी जगह रही। परिणाम यह हुआ कि देह से अधिक उद्यम करने के कारण वह क्रमशः दुबला होने लगा।

    समाधि जब चार वर्ष का हुआ तो उसकी दृष्टि पिता की देह की भाँति ही उतनी क्षीण हो गई कि लोग उसे 'अंधक' कहने लगे।

    सीता का ज्वर अब, शुरू-शुरू के दिनों की भाँति ही, नंद-देह संपन्न पति श्रीदामा के सहवास से निरंतर अतृप्त रहने लगा। एक ओर यह ग्लानि, दूसरी ओर पुत्र की विकलांगता, सीता सुंदरी के दिन अब घोर दुःख में बीतने लगे।

    एक दिन श्रीदामा ने पाया कि उसकी पत्नी पुत्र अंतर्धान हो गए हैं।

    लंबी यात्रा, विविध रास्तों ढेरों अनुभवों के बाद सीता जब गोमती नदी के तट पर बसे उस आश्रम में पहुँची जहाँ नंद साधु-जीवन व्यतीत कर रहा था तो उसे यह देखकर अगाध हर्ष हुआ कि नंद की श्रीदामा देह रूपांतरित होकर अत्यंत बलिष्ठ नितांत नंदमयी हो उठी है।

    “नंद, मेरे प्रिय!” उसने हर्ष-चीत्कार किया और उसकी ओर लपकी।

    “मेरी प्रतीक्षारत, मेरी प्रिये!” नंद ने उसे बाँहों में लेते हुए कहा, “मैं जानता था, तुम मेरे बिना रह सकोगी, तुम्हारे गर्भ में मेरा बीज था। कैसी है मेरी संतान?”

    सीता ने अंधक की ओर संकेत किया और उसके पहलू की गंध में डूबी डूबी उसे नन्हें जीव की व्यथा-कथा बताने लगी।

    “जो भी है, जैसा भी है, मेरा रक्त-मांस है। मुझे स्वीकार है,“ अंधक को दुलार करते हुए नंद बोला।

    अंधक को एक तो कम दिखता था, दूसरे उसे खेलने को खिलौने दिए गए। वह उधर पड़ा रहा, जबकि सीता अपने प्रिय की शैया में पड़ी सुख की अनुभूति में सीत्कार छोड़ती रही।

    कहानी के अनुसार यही कहना है कि प्रेमी युगल का यह सुख-सम्मिलन एक दिन और एक रात ही चल सका। पौ फटने से पहले ही श्रीदामा का आगमन हुआ। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी ईर्ष्या विकृति सामान्य स्तर की नहीं थी।

    सीता ने साभिवादन झुककर कहा, “श्रीदामा, मेरे आदरणीय पति, तुम्हारा स्वागत करना चाहिए था, पर विश्वास जानो, तुम्हारा यहाँ आना स्वागतयोग्य वांछित नहीं है। क्योंकि हममें से दो जहाँ भी रहेंगे, तीसरे का अभाव सताता ही रहेगा।”

    “मैं'' तुम दोनों को क्षमा करता हूँ,” श्रीदामा बोला, “नंद, कोई भी प्राणी ऐसा न्याय होने पर यही करता जैसा तुमने किया है...मैं सब तजकर एक ओर हो भी सकता हूँ, पर तुम्हीं कहो, हममें से कौन है, कब तक, कितना सुखी अनुभव कर सकेगा?”

    “काश, ऐसा होता!” सीता ने कहा।

    “तुमने उचित ही कहा है, भ्राता!” नंद ने कहा, “हम दोनों ही इसके बिना अपूर्ण रहे। हम दोनों ने ही इसका संभोग किया, पर मैंने तुम्हारी और तुमने मेरी चेतना में। और यह भी हम दोनों में से किसी चेतना का अभाव सह नहीं सकेगी। संभवत: मैंने जो विधि-भंग किया है, उसका भी दोष प्रकारांतर से हम दोनों को लगेगा, क्योंकि हम दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं। ये रहीं तुम्हारी वे बाँहें, जिन्हें मैंने खूब बलिष्ठ कर लिया है, और यह रहा वह 'मैं' जिसे तुमने कभी अपने लिए चिता बनाने का आदेश दिया था...माँ के चरणों में मैंने भी तब अपना बलिदान अर्पित कर दिया था, जब तुमने किया था। मैंने विश्वासघात तुम्हारी उसी देह के माध्यम से किया है, जिसका पुत्र समाधि है और जिसका पिता अनिवार्यतः मैं हूँ। मानसिक रूप से मैं सदैव यह अधिकार तुम्हारा समझूँगा।”

    “अंधक है कहाँ?”

    “ठीक समय पर ही हमने उसका ज़िक्र किया है,” सीता ने कहा, “प्रश्न यह है कि उसके लिए रहे कौन? क्या मैं उसके लिए रहूँ? क्या उसे अनाथ जीवन जीने दूँ? सतियों के दृष्टांत का अनुगमन करूँ? मेरे बिना उसका जीवन संभवतः सम्मानित रह सकेगा। पुरुषों की सद्भावनाएँ उस पर बरसेंगी। अतः मैं, सीता, सुमंत्र की पुत्री, माँग करती हूँ कि चिता मेरे लिए भी तैयार की जाए।”

    “कदापि नहीं!” श्रीदामा ने कहा, “मैं तुम्हारे अभिमान और उच्च विचारों की अभ्यर्थना करता हूँ देवी, किंतु तुम विधवा नहीं हो सकतीं। मुझमें नंद में से एक भी जीवित रहेगा तो तुम्हें वैधव्य नहीं लगेगा। इसके लिए नंद को भी प्राण होम करने होंगे। हम दोनों को एक-दूसरे को मारना होगा। वे दो तलवारें हैं...

    “लाओ, मैं तैयार हूँ” नंद बोला।

    “सिर्फ़ तलवारें 'दूसरी' हैं, हम दोनों एक हैं। हम दोनों स्वयं को मारेंगे। हमें सीता को नहीं पाना। हमें ऐहिक वार करने और सहने का दोहरा कर्तव्य निभाना है।”

    “मुझे प्रसन्नता होगी। पर तुम्हें अपने वार से मेरा हृदय बेधना होगा, देह नहीं। अन्यथा सीता प्रेम के अभाव में रह जाएगी।”

    सीता इस व्यवस्था से संतुष्ट हुई। विधिपूर्ण हुई। दोनों जीवों की चिता पर जो समाधि बनी, उसमें सीता ने अपना स्थान पाया। इस समाधि का नाम भक्तों ने 'अंधक' रखा।

    सीता की संतान इसी धरती पर पली बढ़ी। वह अंधक ही कहलाई। उसे महासती की संतान कहलाने का सौभाग्य भी मिला, लोगों ने इसी कारण उसके व्यक्तित्व को निर्दोष सौंदर्यमय माना। रूप शक्ति में वह गंधर्व समझा गया।

    दृष्टि की कमज़ोरी की वजह से वह बहुत दूर तक नहीं देख पाता था। निकट देखता आत्मकेंद्रित रहता। इससे उसका अपने मानस से सीधा पर्याप्त संबंध रहा। उसने इन्हीं गुणों के कारण गहन विद्यार्जन किया। बीस वर्ष की आयु में जब वह महाराजा बनारस का गुरु नियुक्त हुआ तो लोग उसे बारजे पर बैठा देखते : दिव्य मुद्रा आकर्षक सादी भूषा से मंडित पुस्तक को क़रीब से देखता हुआ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 99-106)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : थॉमस मन
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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