खेल-खिलौने

khel-khilaune

राजेंद्र यादव

राजेंद्र यादव

खेल-खिलौने

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    बड़े आदर के साथ जैसे ही हमने दोनों हाथ माथे तक उठाकर नमस्कार किया, कार घुर्रघूँ करके हमारे बीच से चल दी। एक ओर मैं खड़ा था, दूसरी ओर बाबू जी। दरवाज़े पर झुंड का झुंड बनाए वे लोग झाँकती हुई कार की ओर हाथ जोड़ रही थी। जब वे उधर कार की ओर देखतीं तो बड़ी शिष्टता और नम्रता से मुस्कुरा देतीं, जैसे वे इसी की अभ्यस्त हैं, और जब ज़रा पीछे हटकर दरवाज़े से बाहर निकल आते किसी बच्चे को झिड़कतीं या क्रुद्ध होकर पीछे धकेलतीं तो उनकी भवें लपकती तलवार की तरह माथे पर तन जातीं। कार के स्टार्ट होते ही इतनी देर से लगाए हुए शिष्टता के सारे अनुशासन टूट चुके थे और उन कारवालियों की मुखर आलोचनाएँ प्रारंभ हो गई थीं—जिनका विषय था, चश्मे की कमानी, पाउडर, दाँत, मुँह, बाल काटने का ढंग, ब्लाउज़ की डिज़ाइन और कट, साड़ी की किनारी इत्यादि। नए आदमियों के सामने ज़बर्दस्ती चुप किए गए और स्वतः डरे हुए बच्चे अब और ज़ोर से चीज़ें माँगने लगे थे।

    पृथ्वी पर पड़े हुए कार के निशानों को देखता हुआ मैं लौटने ही को था कि मेरी निगाह सामने से आते हुए सुधींद्र भाई पर पड़ गई। शेरवानी, ढीला पाजामा, सैंडल और हाथ में अटैची लिए वह धूल में सने चले रहे थे। मैं पूछने को ही था “लौट आए?” तभी स्वयं उन्होंने ही पूछ लिया—“कहो भाई क्या हल्ला है? आप सब लोग क्यों यहाँ जमा हो रहे हैं।” एक विचित्र प्रकार का बुझा हुआ उनका स्वर था।

    इससे पहले कि मैं जवाब दूँ छोटी वीराने उछल-उछल कर बता दिया—“सुधींद्र भाई साहब, आज नीरजा जीजी को देखने आई थी उनकी सास” ओर बच्चो ने ख़ूब उछल-कूद कर एक साथ ही इस बात को दुहराया—“सास देखने आई थी।”

    फिर भी मैंने पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रखकर गंभीरता से बताया “नीरजा की सुसराल से कुछ स्त्रियाँ देखने आई थी उसे, अभी तो गई है आपके आगे-आगे। हम लोग उन्हें विदा करने आए थे। आप सीधे स्टेशन से ही रहे है न, लाइए अटैची मुझे दीजिए। नलिनी के घर सब ठीक-ठाक है न, तार देकर क्यों बुलाया था?” अटैची मैंने उनके हाथ से ले ली, लेकिन मुझे लगा सुधींद्र भाई के चेहरे पर उत्साह नहीं था।

    “हाँ तो नीरजा को देखने को आए थे, फिर क्या हुआ? उन्होंने सिर झुका कर ओठों की पपड़ी को उँगलियों से टटोलते हुए पूछा। हम लोग एक-एक क़दम भीतर चल रहे थे। बरामदा पार करके अब हम ड्राइंग-रूम में गए थे। बाबू जी अपने कमरे में चले गए, जीजी, माता जी, भाभी, बुआ, चाची और छोटे-छोटे बच्चे सब हमसे पहिले ड्राइंग-रूम में चुके थे। सोफ़े और कोच पर अब वे लोग बैठ गई थीं। बीच की मेज़ पर उन देखने वालों के लिए लाए गए नाश्ते के बर्तन—कप, प्लेटे, चम्मच, चायदानी, गिलास, ट्रे इत्यादि रखे थे। किसी प्लेट में बाक़ी बची दाल-मोठ पड़ी थी, किसी में बंगाली मिठाई को काटता चम्मच। प्यालों के तलों में थोड़ी-थोड़ी चाय बच गई थी। एक बड़ी प्लेट में केलों के छिलके, लुकाट और सेब के बीज, संतरे की जाली और टोस्ट में लगाने के मक्खन की टिकिया के काग़ज़ पड़े थे। मेज़ पर चारख़ाने का मेज़पोश था।

    आओ भाई सुधींद्र, आओ। सभी ने हमें देखकर उत्साह से बुलाया—तुम कब आए? अभी रहे हो? अरे, ज़रा देर पहिले आते। अपने पास बैठने की जगह छोड़कर बुआ ने आपस में बड़े उत्साह से होती हुई बातों का सिलसिला एकदम तोड़कर कहा। मैंने अटैची कोने में रख दी और बीच की मेज़ एक ओर दीवाल के सहारे हटाकर उस जगह एक आरामकुर्सी खींच लाया। सुधींद्र भाई उसी पर बैठ गए, मैं हत्थे पर बैठ गया। बच्चे इधर-उधर घेरकर खड़े उस बचे हुए नाश्ते-चाय, फल इत्यादि की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ने धीरे-धीरे अपनी माँओं से माँगना भी शुरू कर दिया था। बुआ ने जैसे बिलकुल नई बात हो, सुधींद्र भाई को सूचना दी—“नीरजा को देखने आए थे उसकी सुसराल से, जहाँ रिश्ता हो रहा है न।”

    तभी जीजी ने एकदम कहा—“मैं यहाँ आई कमरे में कंघा लेने, देखा एक चश्मेवाली औरत खड़ी है। मैं एकदम झक्क रह गई—हाय राम है कौन यह, यों घुस आई है। उसके पीछे एक और लड़की-सी, फिर एक तेरह-चौदह साल का लड़का। पूछा, तो उसने बताया—हम लोग बनारस से आए है, मेरी समझ में नहीं आया, क्या करूँ। सबसे पहिले जाकर बाबू जी को जगाया, वे झट तहमद बाँधे ही दौड़े। और जब भाभी को बताया, तो चूल्हे में रोटी डालकर वह भागी कि बस! और भैया, बुआ ने तो तमाशा ही कर दिया, कभी इस धोती को उठाएँ कभी उस ब्लाउज़ को पहन, ‘मैं क्या पहनूँ मैं क्या पहनूँ’ कहती-कहती सारे घर में ऐसी नाची-नाची फिरी है कि देखते ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते।”

    “और अपनी नहीं बताएँगी। भाभी ने हाथ बढ़ाकर कहा—‘धोबी मेरा कपड़ा नहीं दे गया, कहाँ तो परसो ही दे जाने को रो रहा था। लो, कंघा भी उसी कमरे में छोड़ आई-आग लगे ऐसे घर में। कोई चीज़ ठीक जगह पर रखी हुई पाती ही नहीं। बिंदी की शीशी अभी यहाँ रखी थी, जाने कौन निगल गया। अपने काम की चीज़ हो या हो बच्चों को उससे खेलना। नाक में दम है।’ और भी बीस बातें। रोई पड़ती थी बीबीजी।—अरे हाँ हाँ री! क्या है, क्यों जान खाए जा रही है।”

    और जीजी की बात कहती-कहती भाभी ने वीरा के दोनों हाथ झटक दिए, क्योंकि बिना उनकी बातों में रुचि लिए हुए, वह बार-बार उनका मुँह अपने दोनों हाथों से अपनी ओर करके ठिनकती हुई दुहराए जा रही थी—“भाभी केला दिलवाओ एक, बेबी ने बंगाली मिठाई खा ली, हम भी लेंगे।”

    झिड़की खाकर वह भी अब शेष तीनों बच्चों के पास चली गई। वे सब नाश्ते की उसी मेज़ के चारों ओर घिरे, बाक़ी बची चीज़ों का हिस्सा बाँट कर रहे थे—“तूने अपने 'कप' में ज़्यादा चाय कर ली, इतनी ही हमें भी दें। आप तो दाल-मोठ की तश्तरी लेकर अलग बैठ गए, कल हमारे पास पटाखे माँगने कैसे गए थे, तब तो 'अमें बी दो पताके'। अम्मा देखो इस उमा ने चायदानी फोड़ी।”

    अच्छा हल्ला मत मचाओ।” माता जी ने उन्हें झिड़क कर कहा। उनके आते ही सारे घर में ऐसी भगदड़ मची कि बस क्या बताए, कोई इधर भाग रहा है, कोई उधर। हमारे तो भाई, बच्चे भी ग़ज़ब के हैं, घर झाड़ो, साफ़ करो, एक मिनट बाद फिर वही घूरा-सा करके रख दें। लोगों के यहाँ जाने कैसे सजे-सजाए घर रहते है। और बैठक तो ये समझो, इस कैलाश ने (मैंने) झाड़-पोछ दी थी, कबाड़ख़ाने-सी पड़ी थी, कहाँ बैठाते, कहाँ उठाते।

    मुझे इस समय अपनी बहादुरी जतानी बड़ी आवश्यक लगी, फ़ौरन ही बोला—बैठक मैंने दुपहर को ही झाड़-पोंछ दी थी। तस्वीरों के चौखटे साफ़ कर दिए थे, मैंटलपीसपर ये सारे खिलौने ठीक-ठाक रख दिए नहीं तो आनंद आता।” और मैंने सब खिलौनों-तस्वीरों इत्यादि पर दृष्टिपात किया।

    जीजी, बच्चा।” इस बार जीजी का बच्चा नाश्ते की चीज़ें ख़त्म हो जाने पर फिर जीजी के पास गया था और खिलौनों का नाम सुनकर मैंटलपीस पर रखे चीनी के भगवान् बुद्ध की ओर उँगली उठाकर कह रहा था।

    “हाँ बच्चा, जाओ, तुम सब लोग जाओ-बाहर खेलो, देखो सुधींद्र भइया आए है—बातें करने दो। जाओ, बेबी, विभास, जाओ सब बाहर जाओ, इसे भी ले जाओ।” और जीजी स्वयं उठकर सब बच्चों को बाहर कर आईं।

    हमने तो समझा था, 'नीरा की सास कोई बुड्ढी-सी होगी, पुराने ख़यालों की; पर वह तो ख़ूब जवान है। फ़ैशन में रहती है। उल्टे पल्ले की धोती, चश्मा और लड़के की भाभी तो फ़ैशन के मारे मरी जा रही थी, देखा नहीं लिपस्टिक कैसी गाढी-गाढी पोत रखी थी, बार-बार पर्स खोलकर रूमाल निकालती, कभी तह-की-तह होठों पर लगाती, कभी माथे-गालों पर—पाउडर तो बोरी भर लगाया था—मुझे तो बड़ी भद्दी लगी। लड़का सीधा था। छोटा भाई है।” जीजी ने बैठते ही बताया।

    “और देखा, कितना छोटा है, मैट्रिक कर चुका है, और एक ये है कैलाश, ऊँट का ऊँट अभी बी. ए. में ही पढ़ता है।” माता जी ने कहा।

    मैं और सुधींद्र भाई चुपचाप बैठे थे। यहाँ कोई किसी की सुनना ही नहीं चाहता था। एक ही बात को अपने-अपने शब्दों में कहने को सभी उत्सुक। समझ में नहीं आता था किस की बात को सुना जाए। इन बातों के समाप्त होने की कोई आशा ही नहीं लग रही थी। तभी अचानक बातों के प्रवाह को पलटने के लिए मैंने कहा—“आप लोग तो यहाँ बैठी बातें बना रही है, नीरजा कहाँ है, उसे भी बुला लीजिए न। सुधींद्र भाई आए है, चाय पानी।”

    “वह तो भीतर वाले कमरे में मुँह ढके पड़ी है—सिसक रही है। अब बीस बार तो में समझा आई हूँ—मानती ही नहीं है।” चाची बोलीं। “क्यों?” इस बार सुधींद्र भाई ने अचानक चौंककर मुँह उनकी ओर घुमाया।

    “कहती है, मैं शादी नहीं करूँगी, मुझे पढ़ने दो, अभी मेरी इच्छा नहीं है। ख़ूब समझाया कि सभी लड़कियों की शादी होती है, तू क्या अनोखी है, और हम लोग क्या हमेशा ऐसी ही हैं। पर उसने तो मानने की जैसे क़सम ही खा ली है।” चाची ने फिर बताया।

    “और वहाँ लड़का ज़िद किए बैठा है कि शादी करूँगा तो 'इसी से करूँगा—बाप से साफ़ कह दिया है। फ़ोटो देखने के बाद यहाँ चुपचाप आकर स्कूल जाते हुए देख गया कहीं, बस तभी से ज़िद किए है। तभी तो ये सब आई थीं देखने।” माता जी ने कहा, कुछ चिंतित स्वर में।

    नीरजा के रोने की बात सुनकर बातों का उत्साह मंद पड़ गया। तभी बाहर से जीजी का बच्चा फिर उनके पास गया—सबके मुँह की ओर देखकर धीरे-धीरे बोला—“जीजी, वह बच्चा लेंगे।” उसकी निगाह मैंटलपीस पर रखी उस बुद्ध-मूर्ति पर थी।

    “बात क्यों नहीं करने देता, सब बच्चे बाहर खेल रहे हैं और तू यहाँ जमा है।” इस बर उसे माता जी ने फटकारा, वह सहमकर चुपचाप खड़ा हो गया, गया नहीं। जीजी उसके सिर पर सांत्वना से हाथ फेरने लगी। “ज़िद नहीं करते मुन्नी।”

    “अब नीरजा बेचारी रोये नहीं तो क्या हो।” मैंने नीरजा का पक्ष लेकर माता जी से कहा—“आप तो इस बुरी तरह पीछे पड़ जाती हैं कि ऐसा ग़ुस्सा आता है कि फ़ौरन लड़ पड़े। नए आदमियों के सामने अधिक हठ भी तो नहीं कर सकती, और आप है कि उन्हीं के सामने पीछे पड़ गई, यह दिखाना, वह दिखाना। सच, सुधींद्र भाई, माता जी ने नीरजा की कोई चीज़ ऐसी नहीं छोड़ी जो दिखा दी हो उन्हें। क्लास में कराए गए कटाई-मिलाई के कामों से लेकर मेज़ पोश, स्वेटर—सब। यहाँ तक कि हाईजीन में बनाए गए शरीर के विभिन्न अंगों के डायग्राम्स तक। अब उन्हीं के सामने ज़िद करने लगी कि ‘गाना सुना, गाना सुना’, मुझे सच बड़ा ग़ुस्सा आया।”

    “सुनाया उसने? सुधींद्र भाई ने पूछा। दोनों घुटनों पर अपनी कुहनी रखे, वे धीरे-धीरे अपनी माथे की सलवटे टटोल रहे थे—बड़े चिंतित, उदास-से।

    “सुनाना पड़ा, सुनाए नहीं तो क्या करे। वहाँ पीछे पड़ने वाले तो ऐसे-ऐसे ज़बर्दस्त हैं, हमारी माता जी, बुआ है, चाची है।” वास्तव में मुझे नीरजा के दिखाने के ढंग पर बड़ा क्रोध रहा था।

    “अब, भई, ये तो समझते नहीं हैं” माता जी ने अपनी सफ़ाई बड़े गंभीर स्वर में दी—“लड़कियों की शादी का कितना बोझ माँ-बाप पर चढ़ा रहता है इसें तो उनकी ही छाती जानती है, तुम्हारा क्या है, तुमने तो उठाई ज़बान और दे मारी। लड़कियाँ तो सब मना किया ही करती हैं। हमने अपनी शादी की बात सुनी थी तो हम भी रोए थे।”

    “नीरजा ऐसी लड़की नहीं है—वह वास्तव में अभी पढ़ना चाहती है।” मैं अड़ा रहा।

    “तो पढ़ने को कौन मना करता है, अब हमारी तरफ़ से चाहे ज़िंदगी भर पढ़ो। क्यों भई सुधींद्र?” माता जी ने सुधींद्र भाई का समर्थन प्राप्त करने के लिए उनकी ओर पजा फैलाकर पूछा।

    पर माथे की सलवटें उँगलियों से टटोलते हुए वे जाने कब से क्या सोच रहे थे। जब से आए थे, उनकी यह उदासी मुझे अखर रही थी। जीजी का बच्चा (उसे प्यार में वह ‘पापा’ कहती थी।) अब भी भगवान् बोधिसत्त्व की मूर्ति के लिए हठ कर रहा था। मुझे उसका यह हठ करना बुरा लग रहा था। हम सब लोग बातें कर रहे थे पर उसे जैसे वही धुन। इस मूर्ति को ग्यारह रुपए की मैं विशेष रूप में प्रदर्शनी से लाया था। वास्तव में उसकी चीनी बहुत बढ़िया थी। माता जी की बात पर कोई कुछ नहीं बोला—थोड़ी देर सब चुप रहे आख़िर मुझ में नहीं रहा गया, मैंने पूछ ही लिया—“क्यों सुधींद्र भाई, जब से तुम आए हो, बहुत उदास और सुस्त से हो। क्या बात है?”

    “हाँ रे, तू जब से चुप ही है, सब लोग ऐसे ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे है।” माता जी ने एकदम इस प्रकार कहा जैसे विषय बदलकर बोल रही हो, पर वह वास्तव में इतनी देर से उनकी बात का समर्थन करने की सफ़ाई माँग रही थी।

    “मैं?” बड़े भर्राए-से गले से उन्होंने कहा, फिर एकदम गला साफ़ करके संयत स्वर में बोले—“मैं! नहीं, कोई ख़ास बात नहीं है।”

    “तो भी?” मैंने पूछा “आपने बताया नहीं नलिनी के यहाँ कैसे हैं—तार क्यों दिया था?”

    “कौन नलिनी?” जीजी ने धीरे से पूछा बुआ से, “मुझे तो नहीं मालूम।” कहकर उन्होंने प्रश्न-मुद्रा से चाची की ओर देखा, चाची ने माता जी की ओर।

    “सुधींद्र की धर्म-बहिन है एक, मुरादाबाद में।” माता जी ने बताया, फिर स्वयं जानने की इच्छा से सुधींद्र की ओर देखा।

    सुधींद्र भाई एक ओर मुँह घुमाए दरवाज़े मे से अन्यमनस्क से बाहर देख रहे थे, उसी प्रकार बिना हिले-डुले उन्होंने कहा, “नलिनी मर गई।”

    ‘झन’ से जैसे हम लोगों के बीच में थाली गिर पड़ी हो। एक-साथ सबके मुँह से निकला—“नलिनी मर गई?—कैसे?” हम बुरी तरह चौंक उठे।

    सुधींद्र भाई उसी प्रकार अविचलित रहे, एकदम झटके से उन्होंने गर्दन घुमाकर माता जी की ओर मुँह किया—फिर सूनी आँखो से देखते हुए बोले—“हाँ, नलिनी कल साढे नौ बजे मर गई। तार देकर उसने मुझे बुलाया था।”

    “कैसे?” एक बार सबके मुँह से निकला। जीजी ने माता जी से पूछा, “क्या उमर थी।” माता जी ने हाथ से उन्हें चुप रहने का इशारा किया, और मुँह पर सारी उत्सुकता लाकर सुधींद्र भाई के मुँह की ओर देखने लगी।

    “कैसे मर गई?—जैसे सब मर जाते है।” धीरे से वह हँसे—कितनी व्यथा-भरी उनकी वह हँसी थी, जैसे मेरे हृदय में जाकर ज़ोर से वह लरज उठी। उनका सिर झुक गया था। दोनों हाथों की उँगलियों को एक दूसरे में फँसा, उन्हें जोड़े हुए वे कुछ क्षण सोचते रहे। एक गहरी साँस छोड़कर उन्होंने झटके से सिर उठाया। “कैसे मर गई, एक लंबी कहानी है। क्या कीजिएगा सुनकर।”

    अब वातावरण एकदम बदल गया था। अभी होने वाली बहस और आलोचनाएँ जाने कहाँ चली गई। सुधींद्र भाई की उदासी का ऐसा कोई कारण होगा मैंने सोचा भी था। “क्या उम्र थी?” जीजी ने सीधे ही पूछ लिया।

    “उम्र?—पूरे इक्कीस की नहीं थी। यह मेरे पास फ़ोटो है।” उन्होंने अचकन के भीतर हाथ डालकर पर्स निकाल लिया—उसे खोलकर उन्होंने जीजी की ओर बढ़ा दिया—उसमें एक पासपोर्ट साइज़ का किसी लड़की का फ़ोटो लगा था।

    बड़ी उत्सुकता से जीजी ने फ़ोटो लिया—चाची, बुआ, माता जी सभी उस पर झुक गईं। “लड़की बड़ी सुंदर है। मुँह पर कैसा भोलापन है। आँखे बड़ी प्यारी हैं। सीधी सी लगती हैं।” सभी ने अपनी-अपनी राय दी। ख़ूब देखने के बाद जब वह पर्स उन्हें लौटाया गया तो इत्मीनान से देखने के लिए मैंने ले लिया। लड़की वास्तव में बड़ी सुंदर और आकर्षक थी।

    “कैसे मर गई? क्या क़िस्सा है, सुनाओ तो सही ज़रा।” जीजी ने आग्रह से पूछा। सभी लोग इसी आशा से उनकी ओर देख रहे थे।

    “क्या करोगी, पूरा क़िस्सा है—लंबा”, सुधींद्र भाई ने टालना चाहा।

    “हमें अब क्या करना है, पूरा सुनाओ, तुम उसे कैसे जानने लगे।” जीजी ने पास खड़े अपने पापा के दोनों हाथ पकड़कर कहा, क्योंकि हाथ पैरों से उसकी खिलौना लेने की मूक ज़िद जारी थी। मुझे बड़ा बुरा लग रहा था। ऐसे ज़िद्दी बच्चे मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है। मैंने कहा—“पूरा तो सुनाओ—इस पापा को तो सँभालिए जब से अड़ा हुआ है, यह ज़िद मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है।”

    “नहीं-नहीं अब कहाँ ज़िद कर रहा है।” जीजी ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए थे, लेकिन पैरों को ज़मीन पर क्रम-क्रम से पटकता हुआ वह मचल रहा था।

    बात कहाँ से शुरू करें शायद सुधींद्र भाई यही बड़ी गंभीरता से सोच रहे थे। लोग सुनने के लिए उत्सुक है या नहीं उन्होंने अपने उदास-से नेत्रों से चारों ओर देखा। सिवा उस बच्चे के जो अब डरकर चुप हो गया था किंतु गया नहीं था, सभी लोग उनकी ओर देख रहे थे। उन्होंने माता जी की ओर देखकर कहना प्रारंभ किया—“भाभीजी, जिन दिनों आप बदायूँ थी न, सन् पैंतीस की बात है, शायद मैं पिताजी के पास गाँव में ही था। तभी का क़िस्सा है, लीजिए अब आप नहीं मान रही तो सुनिए—शुरू से बता रहा हूँ। हाँ तो होऊँगा कोई छः सात साल का। तभी शहर से पिताजी के दोस्त देवनारायण वकील आए उनके पास। पिताजी ने बुलाया था। पिकनिक का प्रोग्राम था। तभी मैंने पहिली बार नलिनी को देखा था। बालों में रिबन बाँधती थी। रंग-बिरंगे फ़्राक पर हल्के हरे रंग का छोटा-सा चेस्टर पहिने वह बिलकुल गुडिया-सी लगती थी। मैं लाख ज़मीदार का लड़का सही, लेकिन था तो गाँव का ही। गेलिस लगाकर एक ढीला-ढाला हाफ़-पेंट और एक कोट पहिने था। उससे बोलने की बड़ी इच्छा होती थी, पर संकुचित होकर रह जाता। सुबह छः बजे ही वे लोग कार से गए थे, वकील साहब भीतर थे, पिताजी से बातें कर रहे थे। हम दोनों नाश्ता इत्यादि करके बाहर धूप में दूर-दूर ही घूम रहे थे, शायद संकोच यह था कि कौन पहिले बोले। हमारे घर के सामने ही थोड़ी सी जगह छोड़कर आम रास्ता था उसके दूसरी ओर एक छोटा-सा कच्चा तालाब—पोखर। उसमें आठ-दस बतख़ें तैर रही थीं, हम लोग थोड़ी देर उन बतख़ों को देखते रहे, कभी-कभी कनखियों से एक-दूसरे को भी आपस में देख लेते। अचानक अपने हाथों को अपनी जेबों में और भी अधिक धंसाकर वह बोली, “देखो, कितना जाड़ा है, बतख़ों को जाड़ा ही नहीं लग रहा।” मैंने धीरे से कहा, “ये तो ऐसे ही तैरती रहती है।” इसके बाद तो वह बिल्कुल मेरे पास आकर दुनिया भर की बातें करने लगी। उसके बोलने के बेझिझक ढंग को देखकर तभी मैं चकित रह गया। दुनिया भर की तो उसे बातें याद थीं; और बड़ी बातूनी। उसने सब बताया जिस स्कूल में वह पढ़ती है उसमें कौन टीचर अच्छी है कौन बुरी; किस-किस लड़की से उसकी अधिक मित्रता है। जिस ‘बस’ में वह जाती है उसका नंबर क्या है। ख़ैर उस दिन उसने ख़ूब बातें की। मैं बिल्कुल चुप रहा क्योंकि मेरे पास कुछ भी नहीं था। फिर भी हम दो दिनों में ख़ूब घुल मिल गए थे। कैरम वह बड़ा अच्छा खेलती थी। और ताश, लूडो, स्नेकलैंडर, ट्रेड, ओम्नीवस जाने क्या-क्या तो वह खेल लेती थी। एक दिन बैठकर उसने मुझे शतरंज की चालें समझाई। पर भई, मेरी समझ में तो कुछ आया नहीं। ख़ैर पिकनिक के पश्चात् जब वे लोग चले गए तो अचानक मुझे लगा जैसे दुनिया में कोई काम करने को ही नहीं रह गया है। फिर तो जब भी पिताजी के साथ शहर जाते उनके यहाँ ज़रूर जाते। लेकिन थोड़े दिन घर रहकर वह अपने किसी संबंधी के यहाँ चली गई।

    “मेरी पढ़ाई भी चलती रही।” सुधींद्र भाई कुछ रुके। तभी मैंने देखा, धीरे-धीरे कुनमुनाता हुआ वह पापा रह-रहकर जीजी को नोचता हुआ अपनी ज़िद को चाल रखे हुए है। अदम्य इच्छा हुई, ज़ोर से एक चाँटा मारकर धकेल दूँ। बातें करने देता है, कुछ सुनता है। बड़े लाडले आए। पर जैसे-तैसे अपनी इस इच्छा को दबाया। निश्चय कर लिया कि इस बार इसने बातों में ज़रा भी विघ्न डाला तो कान पकड़कर बाहर निकाल दूँगा फिर चाहे जीजी जो बकती रहे।

    “मैट्रिक कर लेने के पश्चात् वकील साहब से और पिताजी में यह एक अच्छा ख़ासा विवाद उठ खड़ा हुआ कि कॉलेज में पढ़ाई जारी रखने के लिए मैं हॉस्टल में रहूँ या वकील साहब के यहाँ। पिताजी हॉस्टल के पीछे पड़े हुए थे क्योंकि दो-चार महीने की बात होती तो कुछ नहीं था। ख़ैर मैं यहाँ हॉस्टल में आया। वकील साहब ने आज्ञा दे दी कि दिन में एक बार यहाँ ज़रूर आओगे। हॉस्टल में अच्छी तरह जम लेने के बाद मैं वकील साहब के यहाँ जाने लगा। एकाध घंटा बैठता और चला आता। वकीलनी (जिन्हें मैं चाची कहता था) और वकील साहब से ही बातें करता था। बातों में वह नलिनी की तारीफ़ करते, हमारी नलिनी ऐसी है, वैसी है, यूँ पढ़ने में तेज़ है, यो खेलने में होशियार है। एकाध बार तो मेंने सुना, फिर तो मुझे झुँझलाहट आने लगती। क्योंकि उसकी प्रशंसा करते वह थकते नहीं थे और मुझे लगता था जैसे उनके कहने का बस इतना ही मतलब है—तुम चाहे जितने होशियार हो, नलिनी तुमसे लाख दर्जे इंटेलिजेंट है। अक्सर वह पूछते, कुछ तकलीफ़ तो नहीं है। रोज़ ही कुछ कुछ खिला देते। मैंने वहाँ सैकेंड-ईयर किया, और छुट्टियों के पश्चात् जब मैं वहाँ गया तो बताया गया कि नलिनी अब वहीं गई है। मैट्रिक में फ़र्स्ट पास हुई है, सैकेंड पोज़ीशन है। यहीं पढ़ेगी। कभी-कभी मैं उसके विषय में सोचा करता, जाने कैसी होगी। हम लोग सन् छत्तीस में मिले थे और अब था पैंतालीस। नौ-दस वर्ष का अंतर बहुत होता है। तभी वकील साहब ने उसे बुलाया, “चाय ले आओ नलिनी।” और नलिनी चाय का ट्रे लेकर आई। मैं बुरी तरह चौंक गया, पहिली जो कुछ धुँधली नलिनी मेरे मानस-पटल पर थी उसकी इससे कोई तुलना नहीं थी। हमने सज्जनता में नमस्कार किया। नलिनी ने चाय का ट्रे रखकर नमस्कार का उत्तर दिया, मुस्कुरा कर, और बे-झिझक वकील साहब के पास बैठ गई।

    “भाई साहब, फ़र्स्ट डिवीज़न में पास होने की मिठाई तो खिलवाइए।” मैं चकित रह गया, लाख बचपन में मिले सही लेकिन मैं तो एकदम किसी लड़के से भी इस तरह नहीं बोल सकता। फिर वह तो पंद्रह वर्ष की एक लड़की थी जो धोती में सिमटी-सिमटाई-सी अपने में ही लीन हो जाने की चेष्टा किया करती है। पर तो उसकी वाणी में, व्यवहार में, किसी प्रकार की झिझक, संकोच या लज्जा मुझे लगी, इसके विपरीत में स्वयं ही सोच में था कि क्या उत्तर उसे दूँ। चाय बन गई थी तभी अपना कप उठाकर वकील साहब ने कहा—“तुम तो इसे भूल-भाल गए होगे, यह तो वही नलिनी है जो तुम्हारे यहाँ गई थी, यह चुड़ैल कुछ भी नहीं भूलती—न मालूम बचपन से ही ऐसी याद्दाश्त लेकर पैदा हुई है। छोटी-से-छोटी बात सब इसे याद है।”

    “इन्हें क्यों याद होगा—हारते थे न, जिस खेल को देखो उसी में गोल रखे थे। मिठाई चाहे जब खिलवाइए लेकिन चाय क्यों ठंडी किए डालते हैं?” और वह कुटिलता से मुस्कुराकर कप पर झुक गई। मैं उसकी ओर सीधा देखने का साहस नहीं कर सका। इधर-उधर भागती दृष्टि को समेट कर उस ओर लाने की चेष्टा करता, पर जैसे वह वहाँ पहुँचकर किसी शक्ति से छिटक उठती। उसके इस उत्तर पर भी मैं कुछ नहीं बोला।

    “भाई साहब। आप तो बहुत ही शर्माते हैं।” उसने फिर कोंचा। इस बार मेरा सारा संकोच जैसे इस वाक्य की प्रतिक्रिया से क्षोभ बन उठा। बड़ी असभ्य लड़की है, मन में सोचा, जब से आई है कुछ-न-कुछ बोले ही जा रही है। जब मैं नहीं बोलना चाहता तो मेरे पीछे क्यों पड़ी है। मैंने कहा—“आप तो मुझसे अच्छी तरह पास हुई है आप पहिले, खिलाइए न।”

    “या तो बिल्कुल ही नहीं बोल रहे थे, और अब बोले तो ऐसी शिष्टता से बोले कि छोटे बड़े सबका ध्यान भुला दिया।” जल्दी से चाय की घूँट को घूँटकर वह बुरी तरह हँस पड़ी। हाथ का कप काँप गया और चाय छलक गई। वकील साहब इस सारे वातावरण का आनंद ले रहे थे। बनावटी क्रोध से बोले—“क्या कर रही है, तमीज़ से बात कर, सारे कपड़े ख़राब किए लेती है?” मुझे वकील साहब पर क्रोध रहा था यह तो नहीं कि ठीक से डाँटे, तभी तो इतनी बेशर्म हो गई है। लड़कियों के इतने निर्लज्ज होने के में ख़िलाफ़ हूँ। यही चीज़ तो उनमें अन्य चारित्रिक दुर्बलताओं को जन्म देती है…और भी मैंने उसके विषय में जाने क्या-क्या उलटा सीधा सोच डाला। बातों का उत्तर तो मैंने उस समय दिया, पर मुझे उसका बे-झिझकपन अधिक पसंद नहीं आया, और वकील साहब थे कि अपनी बेटी की इस बहादुरी पर फूले पड़ते थे। माँ-बाप ऐसा लाड़-प्यार करते हैं तभी तो लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं। सामने तो बड़ी इतराती रहेगी...और सैकड़ों सिनेमा-उपन्यासों के दृश्य उस समय मेरे सामने आए। जब वही इतनी बे-शर्म है तो मैं ही क्यों हयादार बना रहूँ—सोचकर मैंने सारा संकोच छोड़ दिया। उसकी ओर देखा, वह सुंदर थी पर स्त्रियों में एक स्वाभाविक लज्जा, हलका-सा संकोच रहता है, वह असुंदर को तो सुंदर बनाता ही है, वह जैसे सुंदर पर भी क़लई कर देता है—पर वहाँ कुछ नहीं, वहीं सपाट मुँह। हाथ में केवल दो सोने की चूड़ियाँ। ऊपर से नीचे तक कुछ नहीं। उल्टे पल्ले की धोती, सो भी कंधे पर झूल रही थी—नए आदमी के सामने जाते हैं तो थोड़ा सिर पर रख लेते है। मैं सोचने लगा इस लड़की को इतना निर्लज्ज बना देने में इसके इस सौंदर्य का कितना हाथ है। जब चलने लगा तो बोली—“देखिए भाई साहब, मुझे इस बार तीन इम्तहान देने हैं। कालिज में इंटर का तो है ही, एक विशारद और दूसरा एक संगीत का। कहिए कैसा रहेगा?”

    “बड़ा अच्छा रहेगा।” कहा हमने, पर सोचा शायद यह दिखाना चाहती है कि मैं कितनी पढ़ाकू हूँ।

    “संगीत के लिए हमने एक ट्यूटर लगा लिया है, सत्तर रुपए लेगा। विशारद हमें आप कराएँगे।” उसने एक बार वकील साहब की ओर देखा। मैं इस अप्रत्याशित बोझ में जैसे अचकचा उठा। वकील साहब बोले—“हाँ दिलवा दो भई, पास तो यह हो ही जाएगी, लेकिन तुम तैयारी करा दोगे तो ज़रा अच्छी तरह पास हो जाएगी। हिंदी के तुम विद्वान् भी हो, सब जानते हो। ठीक रहेगा। संध्या को चाय यहीं पिया करो।”

    “हाँ-हाँ।” करके मैंने स्वीकृति दी। उस समय तो मुझे यह विश्वास हो गया था, इस लड़की को अपने सौंदर्य का गर्व है। इसीलिए यह इतनी निर्लज्ज है। उसे गर्व है तो रहा करे—गर्व करने वालों के लिए यहाँ भी गर्व कम नहीं है। दो-एक दिन तो पढ़ाऊँगा, ठीक से पढ़ी तो ठीक है, ज़रा भी तीन-पाँच की तो उसी दिन छोड़ दूँगा, कोई बहाना बना दूँगा। ज़्यादा-से-ज़्यादा वकील साहब बुरा ही तो मानेंगे। इस क्षोभ और द्वंद्व के भीतर कभी मुझे लगता जैसे कोई बड़े मृदुल स्वर में पूछता—‘किंतु यह नलिनी है कैसी लड़की?’ ख़ैर उस दिन, दिन-भर मैंने उसके विषय में जो भी सोचा वह अधिक अच्छा नहीं था। उसको लेकर मैंने जाने किन कुकृत्यों की कल्पना की।

    “और संध्या के समय मैं उसके पास जाने लगा, उसे पढ़ाने। भाभीजी, जब आज भी उन बातों को सोचता हूँ तो शर्म से गर्दन झुक जाती है। किसी के विषय में इतनी जल्दी सम्मति बना लेना कितना ख़राब है, ख़तरनाक है। सच कहता हूँ मैं, उस जैसी बद्धिवाली लड़की मैंने ज़िंदगी में एक भी नहीं देखी। ओफ़! क्या दिमाग़ पाया था उसने। किसी भी बा तको एक बार समझा दो, कम-से-कम इस ज़िंदगी में दूसरी बार समझाने की ज़रूरत ही नहीं। कभी कापी में मीनिंग या नोट्स नहीं लेती थी। और इतनी सुंदर लिखाई कि क्या कहूँ। एक किताब पढ़ लेती तो शब्द प्रतिशब्द वह उसे महीनों याद रहती, बहुत-से स्थानों पर वह मुझे पढ़ाती थी या मैं उसे, यह मैं आज तक नहीं जान पाया। मैं उसे बड़े ध्यान और गंभीरता से पढ़ाता और वह बड़े आनंद से पेंसिल से खेलती या पेन से नाख़ून रंगा करती। मैं झुँझलाकर एकदम पूछ बैठता “बताओ मैंने क्या बताया?” और वह मेरा प्रत्येक शब्द दोहरा देती। मैं आश्चर्य करता यह लड़की है या आफ़त। पन्त, प्रसाद, निराला, महादेवी, और भी जाने कितने कवियों की सैकड़ों कविताएँ उसे याद! मैं कठिन-से-कठिन काम उसे करने को देता और वह बड़ी आसानी से सिर हिलाकर स्वीकार कर लेती, यह तो रही उसकी कुशाग्र बुद्धि। लेकिन मैं बताना यह चाहता हूँ कि वह लड़की असाधारण प्रतिभा संपन्न थी। उसके निबंध देखकर उसके मनन पर सिर खुजाना पड़ता था। उसकी कहानियाँ देखकर आँखे फटी रह जाती थी। मैंने उसे तीन वर्ष पढ़ाया। इस बीच में उसकी प्रत्येक अच्छी-बुरी बात देखने का मौक़ा मुझे मिला। अब इसे आप चाहे जो कुछ भी कहिए—मेरी दुर्बलता या बुद्धिमानी—मैं उसकी एक-एक बात का भक्त बन गया। उसका संगीत देखा तो दाँतो तले उँगली दबानी पड़ी, केवल यही नहीं कि बाजे को पीट-पाट लिया, और उलटे-सीधे सिनेमा के गीत गा लिए। वास्तव में उसका स्वर था, उसे संगीत का ज्ञान था। महादेवी के गीत इस तरह सुनाती थी कि बस, तबियत झूम उठे।” कहकर सुधींद्र भाई कुछ देर के लिए रुके कि उनकी यह प्रशंसा अति पर तो नहीं पहुँच गई है। माता जी की ओर देखकर फिर उन्होंने खिलौना लेने के लिए अपनी मूक ज़िद जारी रखते पापा को शून्य आँखो से देखा। फिर कहा—“भाभीजी, आप सोचेंगी मैं व्यर्थ ही उसकी इतनी प्रशंसा करके उसे आसमान पर क्यों रखे दे रहा हूँ। लेकिन मुझे वास्तव में ऐसा लगता है उसकी पूरी बात कह ही नहीं पा रहा हूँ। ख़ैर, तब मैंने जाना कि यो यह लड़की निडर, निर्भीक और बे-झिझक है, क्योंकि उसके हृदय में भय, कलुष, या उलझन नहीं है। वह उन लड़कियों में से नहीं है जो मन में हज़ार उल्टी सीधी बाते रखते हुए भी ऊपर से अपने को बिल्कुल निर्लिप्त दिखाया करती है। और उसके स्वभाव की वह सबलता, वाणी की तीव्रता, मुक्त हास्य की चचलता उसके रूप-गर्व के प्रतीक नहीं है, वरन् वह उसकी प्रखर प्रतिभा का प्रचंड विस्फोट है, जो उसके व्यक्तित्व के इन सब रूपों में दिखाई देता है। हो सकता है मैं उसकी प्रशंसा करने में संतुलन रख पा रहा होऊँ, पर वह लड़की वास्तव में ऐसी थी, जैसी दो-चार मुहल्लों की तो बात ही क्या, दो-चार शहरों में नहीं होती। कहीं चलते-फिरते उसने नई बुनाई देखी, खटसे उसे घर पर आकर डाल लिया। किसी से पूछने की ज़रूरत सीखने की।…”

    “तो ऐसी तो हमारी नीरजा भी है, जहाँ जो भी देखेगी फ़ौरन उसे ज्यूँ-का-त्यूँ दिमाग़ में रख लेगी।” एकदम माता जी ने कहा—मन में हल्की झुँझलाहट हुई। पता नहीं माता जी सुधींद्र भाई की बात सुन रही है या तुलना में लगी है।

    “तो ऐसी वह लड़की थी।” माता जी की बात को स्वीकार करके सुधींद्र भाई बोले, “मैं उसे पढ़ाता था किंतु इस बात का निश्चय मुझे हो गया कि यह केवल संयोग है, जो मैं उससे पहिले से पढ़ते होने के कारण उससे आगे हूँ और उसे पढ़ा रहा हूँ, नहीं तो इसे स्वीकार करने में मुझे कोई झिझक नहीं कि वह मुझ से कई गुनी अधिक बुद्धिमती, प्रतिभा-शालिनी थी। सबसे बड़ी बात जो मैंने उसमें नई देखी वह यह कि किसी की अप्रत्याशित बात से एकदम प्रभावित नहीं होती थी, इसीलिए प्रायः वह भावुक नहीं थी। जब मैं उसकी उन बेझिझक खुली आँखों में देखता तो लगता मालूम कितने गहरे खुले आकाश को मैं देख रहा हूँ, जिसका कहीं भी ओर छोर नहीं है। मुझे निश्चय हो गया कि यह लड़की किसी दिन सारे देश को अपनी विलक्षण प्रतिभा से चकित कर देगी।

    “ख़ैर, मैं उसे पढ़ाता रहा। एक दिन उन चाची ने बताया कि अपने जिन संबंधी के यहाँ वह पहिले ‘मैट्रिक’ तक पढ़ने को रही थी, शायद वे उसके चाचा थे, उनका पत्र आया है। उन्होंने लिखा है कि नलिनी के लिए लड़का उन्होंने ठीक कर लिया है, लेकिन नलिनी ने स्पष्ट कह दिया कि उसका विचार अभी शादी करने का क़तई नहीं है। अभी वह थर्ड ईयर में ही पढ़ती है; कम-से-कम एम. ए. तक वह इस विषय पर सोचेगी भी नहीं। फिर दूसरा पत्र आया वह लड़का इसी मुहल्ले का है, हमारी ही जाति का है, पिछले आठ-दस साल से में उसे देख रही हूँ—बड़ा सुशील और सीधा लड़का है। उसी ने नलिनी को मैट्रिक के लिए इंग्लिश पढ़ाई थी—नलिनी भी उसे जानती है। घर काफ़ी संपन्न है—वह सुखी रहेगी, पास रहेगी। लेकिन नलिनी भी एक नंबर की ज़िद्दी लड़की—एक नहीं मानी। फिर तीसरा पत्र आया—उस लड़के ने नलिनी में पता नहीं क्या देखा है कि अपने बाप से स्पष्ट कह दिया है कि शादी करूँगा तो इसी लड़की से, नहीं तो बिल्कुल नहीं। इसी विषय में वे मुझसे सलाह लेने आई थी कि अब क्या करे? नलिनी पास बैठी सब सुन रही थी। मैं कुछ राय ज़ाहिर करूँ इससे पहिले वह स्वयं बोली— “पता नहीं क्यों लड़कों को शादी करने की ऐसी जल्दी पड़ती है। लाइए मैं उन्हें लिख दूँ सीधा, कि मैं आपसे शादी नहीं करना चाहती।” मैंने उसकी ओर देखा, शायद वह मज़ाक़ में कह रही हो, पर उस समय वह काफ़ी गंभीर थी। मैं उस ओर देख नहीं सका। वकीलनी ने कहा, समझाओ इसे। यद्यपि मन-ही-मन मैंने स्वीकार किया कि नलिनी की बात ठीक है, जब वह पढ़ना चाहती है तो उसे पढ़ने देना चाहिए। तो भी मैंने यूँ ही कहा—‘जब वह इतना हठ पड़ रहा है तो मान जाओ न, कर-करा लो उसी से शादी।’

    “उसने मुझे ठीक इस तरह से देखा, जैसे किसी बच्चे को देखते हो और वह भिड़ककर बोली—‘आप भी क्या बात करते हैं, भाई साहब, बच्चों जैसी। अब अचानक मैं ही आपसे कहने लगूँ कि मुझसे शादी कर लीजिए, तो कैसे हो सकता है। मैंने उन्हें कभी इस दृष्टि से देखा, मेरे मन में कभी ऐसी बात आई।’ उसके मुख पर उत्तेजना थी। उसका मुख-मंडल प्रदीप्त था।

    “मुझे हँसी आई—कैसी मूर्खता की उपमा इसने दी है। कहा—‘न सोचा सही, तब भी इसमें हर्ज क्या है?’

    ‘हर्ज क्या है?’ उसने बच्चों की तरह मुँह बिरा दिया—“हर्ज है कैसे नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। मैंने उन्हें सदैव गुरु की पूजा और भाई की पवित्र दृष्टि से देखा है। जिस तरह आप हम लोगों में काफ़ी घुल-मिल गए हैं न, ठीक वैसी ही उनकी बात है वहाँ। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन वे इस प्रकार हठ कर के बैठ जाएँगे कि मैं शादी करूँगा तो इस नलिनी से ही करूँगा।” वह थोड़ी देर चुप रही, फिर जैसे स्वयं ही सोचती-सोचती बोली—‘हिश्, मैं नहीं करूँगी शादी-वादी।’

    ख़ैर, मैं चुप रहा। दो-तीन दिन फिर उसी स्वाभाविकता से कटे। एक दिन गया तो पता चला कि उसके वही चाची जी आए हुए हैं। उस दिन नलिनी बड़ी चिंतित—उदास थी। उसने बताया, ‘आज रात-भर मैं ठीक से नहीं सो पाई, चाचा जी आए हैं, बता रहे हैं कि लड़के को भी ज़िद गई है कि शादी बस इसी से होगी। उसने तीन-चार दिन से अनशन कर रखा है। जब मैं शादी नहीं करना चाहती तो क्यों ये लोग मुझे विवश कर रहे हैं कि मैं शादी करूँ ही। अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ। चाची जी इसीलिए आए है, ये लोग किसी का आत्मविकास होते नहीं देख सकते। मैं बुद्धिमान हूँ, मैं प्रतिभाशील हूँ, मैं सुरीला गाती हूँ, सुंदर बजाती हूँ और सौंदर्यशालिनी हूँ,—फिर? कहिए, आपको इन सब बातों से क्या मतलब? आपको यह कैसे विश्वास हो गया कि मैंने यह सब चीज़े आपके ही लिए सहेज कर रखी है। इसमें मेरा अपना कुछ नहीं है?, अजब आफ़त है।’ और क्रोध अथवा घृणा से उसने अपना निचला ओठ ज़ोर से चबाया। मैं चुपचाप देखता रहा। उसके वाक्यों में सत्य की ज्वालाएँ थी। लेकिन मैं, उस समय, क्या कर सकता हूँ—समझ में नहीं आता था। उसे समझाया “शादी तो नलिनी तुम्हें करनी ही है अब नहीं तो दो वर्ष बाद। फिर तुम्हें अब ही ऐसी क्या आपत्ति है?”

    ‘तो आपको ऐसा अधिकार किसने दिया कि आपने तो मुझे देखा, और खटसे मचल पड़े; अनशन कर दिया कि मैं तो इसी से विवाह करूँगा—और हम सोच भी नहीं पाए कि सारे घरवाले चील-कौवों की तरह नोंचने-खोंचने लगे—कर इसी से, कर इसी से।’ उसकी आँखों में, पहिली बार मैंने देखा आँसू गए थे, जिन्हें वह एक घूँट-भरके पी गई, फिर बोली—‘भाई साहब, आप तो समझेंगे, मैं और लड़कियों की तरह बहानेबाज़ी कर रही हूँ पर मैं हृदय से कह रही हूँ, मुझे शादी करने की इच्छा ही नहीं है।’ वह चुपचाप कुछ सोचती रही। फिर बोली—‘चाची जी ने मुझे रात को कोई दो घंटे लेक्चर पिलाया, नाश्ते के समय सुबह समझाया और अभी बाहर गए हैं आकर फिर भाषण देंगे—माता जी, बाबू जी—सभी मेरे पीछे पड़े है। अब आप भी मैं क्या करूँ भाई साहब, इससे अच्छा तो मैं कहीं मर जाती।’ उसकी इस अंतिम बात से अचानक में चौंक गया। यह उसके मुँह से निकला हुआ पहिला वाक्य था जो उसने जैसे व्यथा से तड़पकर कहा था। मैं स्वयं भी उन दिनों काफ़ी उद्विग्न, बेचैन, व्यथित हो रहा था। मेरी स्थिति बड़ी विचित्र थी, यदि मैं शादी का विरोध करता तो वे लोग मेरे और नलिनी के विषय में जाने क्या-क्या सोचते। पर फिर भी, बार-बार जेसे कोई ललकार कर पूछता—‘क्या मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकता?—क्या नहीं कर सकता कुछ?’ और यह प्रश्न ही धमककर ध्वनि-प्रतिध्वनि के रूप में व्याप्त हो जाता कि उसके उत्तर के विषय में मैं सोच ही नहीं पाता था। बड़ा खिंचाव शिराओं में था। मैंने दुखी स्वर में कहा—‘क्या बताऊँ नलिनी, मैं स्वयं भी कोई राह नहीं सोच पाता’, तुम्हारी प्रतिभा का मैं शुरू से ही क़ायल हूँ। मेरा विश्वास था कि यदि यों ही तुम्हारा स्वाभाविक विकास होता गया, तो तुम एक दिन अपनी प्रतिभा से संसार को चकाचौंध कर दोगी। पर अब...।”

    अचानक सुधींद्र भाई अपनी बात कहते-कहते रुक गए, क्योंकि मैंने आगे बढ़कर उस ज़िद्दी पापा के दोनों कान पकड़ लिए थे। ग़ुस्सा तो ऐसा रहा था कि दो मारूँ तानकर चाँटे—तबीयत ठिकाने जाए। बड़े लाड़ले बने है, जब से मना कर रहे हैं कि मान जा मान जा तो समझ में ही नहीं आता। सब बच्चे बाहर खड़े हैं और ये बेचारे यहाँ खड़े है, अकेले, यहाँ खिलौना लेने को। ले खिलौना, अब तुझे कैसा खिलौना देता हूँ। दोनों कान खींचते ही पापा ज़ोर से चीख़ा, एक बार उसने मेरी क्रुद्ध सूरत देखी और जीजी का पल्ला पकड़ लिया।

    “अरे, क्या कर रहा है रे…” माता जी चिल्लाई—“क्यों उनके कान उखाड़े ले रहा है?” मैं उसके कान यों ही खींचे-खींचे बाहर ले चला।

    “हाँ ले जा, ले जा, जब से समझा रहे हैं तो मानता ही नहीं है।” जीजी ने बनावटी ग़ुस्से से कहा, वास्तव में उन्हें मेरा यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था। ज़िद करता हुआ पापा, बुरा माता जी को भी लग रहा था, पर जीजी की ओर देखकर वे एकदम उठी, पापा की बाँह पकड़कर मुझे एक ओर धक्का दे दिया। “मानता ही नहीं है।” पापा को उन्होंने गोद में उठा लिया—“भैया ज़िद नहीं करते।”

    मुट्ठी बनाकर आँखों को मलते हुए उसने सिसक-सिसककर मूर्ति की ओर एक हाथ बढ़ाकर कहा—“अम्मा, वो लेंगे।”

    “अच्छा ले।” माता जी उसे उठाए-उठाए मेंटलपीस के पास गई और वहाँ से गेरुए रंग की चमकदार चीनी की बनी वह मूर्ति उसे दे दी। उसने दोनों हाथों से कसकर पकड़ लिया।

    मैं भुनभुनाया, “उसका क्या है, वह तो ज़रा-सी देर में तोड़ देगा। ग्यारह रुपए की एक मूर्ति लाया हूँ—सो भी अब मिलती नहीं है—ऐसी सुंदर और गठी हुई।”

    “हाँ-हाँ नहीं तोड़ेगा।” माता जी ने कहा—“हम दे देंगे पैसे, दूसरी ले आना।” फिर उन्होंने पापा को जीजी के पास बैठा दिया फ़र्श पर ही! जीजी ने उसे समझाया—“हाँ भैया, तोड़ियो नहीं।”

    “अब मिली जाती है दूसरी।” मैं मन-ही-मन दाँत पीसकर रह गया। चुप रह गया यह सोचकर कि सुधींद्र भाई जाने क्या सोचेंगे उनकी बात सुनते-सुनते ऐसा बखेड़ा मचा दिया। उसकी ओर एकाध बार देखकर उनकी बात के प्रति उत्सुकता दिखाई—“हाँ, फिर क्या हुआ?” पापा मूर्ति को फ़र्श पर रखकर खेल रहा था—कभी इधर से झाँककर देखता, कभी उधर से।

    सुधींद्र भाई बड़ी विचित्र-सी दृष्टि से यह सब देख रहे थे। हो सकता है उन्हें बुरा लग रहा हो, पर उन्हें विशेष अच्छा भी लग रहा था—मैंने तत्काल अनुभव किया। इसीलिए ऐसा भाव दिखाया जैसे कुछ हुआ ही नहीं—हमने अधिक-से-अधिक अपना ध्यान उनकी ओर केंद्रित कर दिया।

    हाँ तो दूसरे दिन जब मैं गया तो चाची जी बड़ी दुखी-सी आई—‘तुम्हीं बताओ सुधींद्र, मैं क्या करूँ, उसे लाख समझाया, मैंने समझाया, तुम्हारे वकील साहब ने, लालाजी ने, लेकिन वह तो एक ही रट लगाए है—मैं तो पढ़ूँगी—मैं तो पढ़ूँगी। लड़का कहता है कि तू ज़िंदगी-भर पढ़ेगी तो मैं ज़िंदगी-भर पढ़ाऊँगा, अपना घर-बार सब बेचकर पढ़ाऊँगा। जो तेरी इच्छा हो सो कर पर वह मानती ही नहीं है।’ ‘कहाँ है?’ मैंने पूछा। बताया, ‘भीतर पड़ी है पलंग पर, खाती है, नहाती है। बस रोए जा रही है, अब हमारी तबीयत तो इससे बड़ी हलकान होती है। इतनी बड़ी हो गई आजतक नहीं रोई और अब तुम्हीं समझाओ।’ मैंने पूछा, ‘चाची जी गए?’ उन्होंने जिस ढंग से हाँ कहा मैं कुछ-कुछ समझ गया। कुछ नहीं कहा। चुप भीतर गया। कमरे में पलंग पर वह चुपचाप औंधी पड़ी थी—रह-रहकर उसका सारा शरीर काँप उठता था। मैं कुछ देर चुप रहा, फिर पुकारा—‘नलिनी, नलिनी।’ उसने कुछ नहीं कहा। मैं उसके पास ही पलंग पर बैठ गया। दोनों कंधे पकड़ कर उसे सीधा किया—देखा वह रो रही थी। उसके खिले गुलाब से चेहरे को जैसे पाला मार गया था, सारा मुँह उसका लाल हो गया था, और आँखें बीरवहूटी के सुर्ख़ रंग की तरह जल रही थी। उस समय एक क्षण को भाभी जी, सच मुझे ऐसा लगा कि इस दहकते चेहरे के लिए मैं क्या कर दूँ। किस आसमान के नीले और मनहूस पर्दों को चीर दूँ जो उस पर अपनी काली छाया डाले है और कौन-सा पहाड़ है जिसे उठाकर फेंक दूँ, जो इसका रास्ता रोके हुए है। उस समय मुझे अपनी बाहों में वज्र जैसी शक्ति लहरें लेती अनुभव हुई। मैंने उसका सिर लेकर अपनी गोद में रख लिया बाल उसके चेहरे पर फैल आए थे उन्हें एक हाथ से इधर-उधर कर दिया। बड़े दुखी, स्वर में कहा—‘नलिनी, ऐसे क्यों रो रही हो?’ उसका रोना बंद हो गया था, केवल कभी-कभी एक हिचकी से उसका सारा शरीर सूखे पत्ते की। लड़खड़ाहट की भाँति काँप उठता था। मेरी समझ में नहीं आता था मैं क्या कहकर उसे सांत्वना दूँ। फिर कहा—‘नलिनी, रोओ मत।’ लेकिन नलिनी की इतनी देर से संचित रुलाई फिर फूट पड़ी और वह फिर बुरी तरह रो उठी। मेरा कंठ स्वयं भीग गया था और आँखों में आँसू बड़ी मुश्किल से रुक पा रहे थे। फिर भी मैंने उसे समझाया—‘नलिनी, जो हो गया सो हो गया। वह तुम्हें विश्वास दिलाता है कि पढ़ने इत्यादि की पूरी सुविधा देगा। क्यों व्यर्थ रो-रोकर अपना स्वास्थ्य ख़राब करती हो।’ लेकिन जैसे वह कुछ सुन ही नहीं रही थी। उसे तो इस समय जैसे रुलाई का दौरा गया था—बस रोए जा रही थी। भाभीजी, मैं ठीक बताता हूँ उस दिन तीन घंटे मेरी गोद में पड़ी-पड़ी वह काँटों पर पड़ी मछली की तरह तड़फड़ाती रही। उस दिन मैं भी रोया। लेकिन उस दिन के बाद से उसके शरीर की स्फूर्ति, उसके चेहरे की उत्फुल्लता, उसकी भोली आँखों का उल्लास जैसे किसी ने मंत्र के ज़ोर से खींच कर फेंक दिए और वह एक साधारण कंकाल मात्र थी—निस्तेज और उदास। किसी ओर देखती तो बस देखती रहती।

    “और पिछले साल उसका विवाह हो गया। ज़िंदगी में शायद दूसरी बार वह जी खोलकर रोई। उस दिन उसने मुझ से कहा—‘बस भाई साहब, अब नहीं रोऊँगी, क्योंकि जो चीज़ मेरे पास असाधारण थी, जिसका मुझे गर्व था और जिससे मुझे इतना मोह था—अब सदा के लिए उसकी चाह छोड़ दी है। बस अब मैं एक साधारण लड़की हूँ—दुर्बल और कमज़ोर।”

    वह सुसराल चली गई। थोड़े दिन बाद आई। जब मैंने फ़ाइनल की परीक्षा दी तभी उसने बी. ए. की परीक्षा दी—जैसे बिल्कुल निरुत्साहित और निर्लिप्त होकर। आपको आश्चर्य होगा, तो भी बी. ए. में उसने टॉप किया। विभिन्न पन्नों में जब उसके चित्र छपे, और उसने देखे तो मुझे लगा उसका वह उन्मुक्त उल्लास फिर उसे कुछ समय को मिल गया है। बड़े प्रसन्न होकर उसने कहा—‘भाई साहब, चाहे कोई कितना ही विरोध क्यों करे, मैं तो ख़ूब पढ़ूँगी।’ पर तभी फिर अचानक कुछ क्षण को उदास हो गई। उन दिनों उसने संगीत का अभ्यास ख़ूब बढ़ा लिया था। रोज़ मुझे कुछ-न-कुछ सुनाती—उन दिनों वह बड़ी प्रसन्न रही। ओफ़, कितना सुंदर वह गाती थी। आजतक मैं निश्चय नहीं कर पाया कि उसकी प्रतिभा संगीत पे अधिक अभिव्यक्त होती थी या लेखन में। उन दिनों उसने कुछ सुंदर निबंध और कहानियाँ लिखी। छट्टियों भर इस बात पर बहस होती रही कि वह एम. ए. कहाँ ‘जॉइन’ करें। सुसराल वालों के पत्र आते कि बनारस ही सबसे अधिक ठीक रहेगा, और वह कहती कि मैं तो यही पढ़ूँगी। एक दिन वह महाशय स्वयं धमके लेने के लिए। इस स्वभाव का मैं पहिले नहीं समझता था उन्हें। वे आकर हठ पड़ गए कि लेकर जाऊँगा तो अभी नहीं तो आज अपनी लड़की को रखिए, फिर मेरे यहाँ भेजने की ज़रूरत नहीं है। हम लोगों ने लाख तरह समझाया कि वह बी. ए. में ऐसी अच्छी तरह पास हुई है और उसकी ऐसी उत्कट लालसा है कि आगे पढ़े तो क्यों पढ़ने दिया जाए। वे बोले, पढ़ने का इंतज़ाम क्या वहाँ नहीं है। बनारस यूनिवर्सिटी में वह बड़े आराम से पढ़ सकती है। ख़ैर, वे महाशय उसे लेकर ही टले, बस, वही मेरी और उसकी अंतिम भेंट थी। एम. ए. वह जॉइन नहीं कर सकी। लिखा, ‘यहाँ से आकर इनकी तबीयत ख़राब हो गई है। मैं रात-रात भर जागकर भगवान से मनाती हूँ, कि ये ठीक हो जाएँ तो कॉलेज ‘जॉइन’ करूँ—एडमीशन की तारीख़ निकली जा रही है।’ लेकिन वह सज्जन तो शायद प्रण करके ही बीमार हुए थे कि दो महीने से पहिले ठीक नहीं होंगे। सो वह एडमीशन ले ही नहीं पाई। उसने लिखा, ‘भाई साहब, कभी-कभी तो इच्छा होती है पड़ा रहने दूँ बीमार और जाने लगूँ पढ़ने। पर सोचती हूँ ये लोग मुझे खा जाएँगी।’ इसके बाद और भी, समय-समय पर पत्र आते रहे, उन सब में जो कुछ लिखा था, उसका तात्पर्य था, ‘भाई साहब, मैं क्या करूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता। यहाँ कोई काम मुझे करने को नहीं है, दिन-रात यह बात जोंक की तरह मेरा ख़ून सुखाए देती है कि जिस प्रतिभा की आप यों तारीफ़ करते नहीं अघाते थे, जिस बुद्धि पर मुझे गर्व था, जिस सौंदर्य से मेरी सहेलियाँ ईर्ष्या करती थीं, मेरे जिस संगीत पर बाबू जी झूम आते थे, जिस शैली पर लोग दाँतों तले उँगली दबाते थे, क्या वह सिर्फ़ इसलिए है कि निरर्गल और व्यर्थ की प्रेम की बातों में भुला दी जाए? वे समझते हैं कि अधिक-से-अधिक प्रेम-प्रदर्शन से वे मुझे प्रसन्न कर रहे हैं, दिन-रात, तुम परी हो, तुम अप्सरा हो, तुम यह हो, तुम वह हो और मैं तुम पर भौंरे, परवाने और पपीहे की तरह मरता हूँ। सच कहती हूँ भाई साहब, इन बातों में मेरा मन नहीं लगता। हाँ मैं, सुंदर हूँ—तुम मरते हो, फिर? लेकिन वे हैं कि दफ़्तर जाएँगे—जो घर से एक मील है—तो चार खर्रे भरकर प्रेम पत्र लिख भेजेंगे, जैसे जाने कितने वर्षों के वियोग में जल रहे हैं। उसमें सैकड़ों सिनेमा के गीत लिखे होते हैं, तक़दीर कोसी गई होती है, दुनिया को लानत दी जाती है कि भाग्य का खेल है, दुनिया ने हमें यों अलग कर दिया है, वह हमारा मिलन यों नहीं सह सकती। पता नहीं वह दुनिया कहाँ रहती है? अब आप ही बताइए इन मूर्खतापूर्ण बातों से क्या फ़ायदा? कोई कहाँ तक अपने को इन बेवक़ूफ़ियों में उलझाए रखे। और भाभी, नलिनी का अंतिम पत्र तो बड़ा ही करुणापूर्ण है। लिखा है, ‘मेरे चारों ओर भीषण अंधकार की एक अभेद्य चादर आकर खड़ी हो गई है, भाई साहब, मैं तब कितनी रोई-चीख़ी थी कि मुझे इस अंधकार के गर्त में मत धकेलो, मैं वहाँ मर जाऊँगी! इस अंधकार के ख़ूनी पंजों ने मेरी अभिलाषाओं और उच्चाकांक्षाओ की गर्दनें मरोड़ दी हैं, और अब में इतनी अशक्त हो गई हूँ कि छटपटा भी नहीं सकती। खाने-पीने और प्रेम की इन झूठी-सच्ची बातों के बाद बचे हुए समय में कभी शॉपिग करने, घूमने या सिनेमा जाने या दिन-भर औरतों की इस उसकी बुराई-भलाई करने वाली बातों में अपनी ज़िंदगी को बाँध देने में मैं अपने आपको बिल्कुल असमर्थ पा रही हूँ। इन दिनों यह मानसिक भर्त्सना मुझे खाए जा रही है। भाई साहब, मैं क्या करूँ? मैं मानती हूँ, हज़ारों लड़कियों को यही चरम और परम सुख है, पति का अंधाधुंध प्यार, सोने और चाँदी से भरा घरबार, और निश्चिंत दिन। लेकिन इतने दिन मैंने जो भी पढ़ा, जो कुछ भी सीखा, जो आज भी मैं समझती हूँ, लाखों लड़कियों से अच्छा था, क्या केवल इसीलिए था कि यहाँ आकर सड़ जाए? यहाँ करने बैठूँ भी तो ज़्यादा-से-ज़्यादा खाना बना लूँ, चौका-बर्तन कर लूँ। हो सकता है इन बातों में मेरा सारा समय लग जाया करे—लेकिन बस? इसीलिए मैंने उस देव-दुर्लभ प्रतिभा को सजोया था? भाई साहब, ये शादी करने वाले लड़कियों के यहाँ जाकर पूछते हैं—तुम्हारी लड़की गाना-बजाना जानती है, क़सीदाकारी जानती है, मिठाई बनाना जानती है?—उस समय उनकी इच्छा होती है, कि संसार का कोई काम क्यों बच जाए जिसे यह लड़की जानती हो? लेकिन कोई इनसे पूछे, विवाह के फेरों के बाद सिवा चौके-चूल्हे के कौन सी कलाकारी लड़की के काम आती है। कोई मुझसे पूछे, मेरी सारी किताबों को कीड़े खाए जा रहे हैं। पढ़ने के प्रति किसी में रुचि नहीं है। यों शौक़ सभी को है कि लड़की के सामने एजूकेटेड शब्द लगा सकें। वैसे सभी को पाउडर, लिपस्टिक ओर बुनाइयों की बातें करनी उससे अधिक आवश्यक लगती है। बुनाई इसलिए नहीं कि कला है, बल्कि इसलिए कि फ़ैशन है, इसीलिए कोई नई बुनाई देखी सब उसकी नक़ल करेंगी, नया ब्लाउज़, साड़ी देखी, वैसी ही लाएँगी—बनवाएँगी। नए कट का गहना देखा, खट से पहला टूट रहा है नया बन रहा है, रोज़ चीज़ें टूटती हैं, रोज़ बनती हैं। किसी-किसी को तो शायद एक बार भी नहीं पहना जाता, और टूटकर नया बन जाता है, क्योंकि वह पहिले से अधिक सुंदर है। और यह क्रम कभी ख़त्म नहीं होता। मेरे वायलिन और सितार में मनो धूल भर गई है। महादेवी और मीरा के गीत मैं यहाँ गाकर सुनाऊँ तो सब उल्लुओं की तरह मेरा मुँह देखें। बात-बात में इनकी इज़्ज़त का ध्यान, बात-बात में स्त्री होने की घोषणा। यह ऊँचे घरों की बातें हैं। नीचे घरों को भी देखती हूँ, जहाँ चूल्हे-चौके से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। सच भाई साहब, आज हृदय में बड़ी प्रचंड शक्ति से यह भाव उठ रहा है कि काश, मैं एक साधारण लड़की होती—मूर्ख और भेड़, जिसके बचपन की सारी तैयारियाँ, शिक्षा-दीक्षा केवल विवाह के लिए होती हैं, और विवाह होने के बाद जैसे इन सारे झंझटों से छुटकारा मिलता है। इस सबके लिए शायद सबसे अधिक दोषी आप हैं। आपने ही मेरी महत्वाकांक्षाओं को उभाड़ कर इतना बढ़ा दिया था कि तू यों करेगी, यों करेगी! आपने ही मेरे दिमाग़ में भर दिया था कि मैं असाधारण प्रतिभाशालिनी हूँ, और आपने ही अपने कंधों पर चढ़ाकर इतना ऊँचा उठा दिया था कि आज जब ये लोग मुझे फिर उस कीचड़ में घसीट रहे हैं, तो टूट जाना चाहती हूँ, बिखर जाना चाहती हूँ, मर जाना चाहती हूँ, पर नीचे नहीं पाती। अब बताइए में क्या करूँ? कैसे मर जाऊँ? मैं कब तक यूँ छटपटाती रहूँ? भाई साहब, मुझे कोई रास्ता बताइए, बताइए न। केवल विवाह करके यों इन चारदीवारियों में सड़ जाने के लिए शायद मैं नहीं जनमी थी, मुझे और कुछ करना था—मुझे कुछ ओर करना था।’

    “ख़ैर भाभीजी, यह उसका अंतिम पत्र था, फिर तो उसका तार ही आया।”

    यह सब बोलने में सुधींद्र भाई का स्वर जाने कितनी बार गीला हुआ, कितनी बार भर्राया, पर इस बार तो जैसे वह बोल ही नहीं पाए। गले में कफ़-सा अटक गया, उसे खाँसकर साफ़ किया फिर थोड़ी देर चुप रहे। पापा बुद्ध भगवान की मूर्ति को धीरे-धीरे पृथ्वी पर ठोक-ठोक कर खेल रहा था, एक बार हमने उस ओर देखा, पर जैसे भाव-शून्य होकर। सब उत्सुकता से सुधींद्र भाई की ओर ही देख रहे थे।

    “मैं जब वहाँ गया तो पता चला कि वह अस्पताल में है”, संयत होकर सुधींद्र भाई ने कहना आरंभ किया।

    “अस्पताल?” प्रायः सभी चौंके।

    “हाँ।” उन्होंने कहा, “उसके सारे घरवाले स्तब्ध से थे। अस्पताल गया—देखा उसका सारा शरीर फफोलों से भरा था या जलकर काला हो गया था। वह मर चुकी थी, उसने मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली थी।”

    “हैं।” जैसे किसी ने बड़ी भारी काँसे के घंटे में समस्त शक्ति से हथौड़ा दे मारा—सारा वातावरण झनझनाकर थर्रा उठा।

    उसी समय पापा ने बुद्ध भगवान की मूर्ति को ज़ोर से पृथ्वी पर पटक दिया। खन-खन करते हुए सुंदर खिलौने के चमकदार टुकड़े इधर-उधर बिखर गए।

    हम सब मंत्र-जड़ित थे।

    घंटे की झनझनाहट गूँज बनकर डूबती जा रही थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : खेल-खिलौने (पृष्ठ 12)
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1954

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