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घीसू

ghisu

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    संध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बाहर बड़ी प्यारी स्वर-लहरी गूँजने लगती। घीसू को गाने का चसका था, परंतु जब कोई सुने। वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता!

    जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता। अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोई नया कुआँ खोजता, कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता।

    सब करने पर भी वह नौ बजे नंदू बाबू के कमरे में पहुँच ही जाता। नंदू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू को देखते ही वह कह देते—आ गए, घीसू!

    —हाँ बाबू, गहरेबाज़ों ने बड़ी धूल उड़ाई—साफे का लोच आते-आते बिगड़ गया! कहते-कहते वह प्रायः अपने जयपुरी गमछे को बड़ी मीठी आँखों से देखता और नंदू बाबू उसके कंधे तक बाल, छोटी-छोटी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी गुलाबी आँखों को स्नेह से देखते। घीसू उनका नित्य दर्शन करनेवाला, उनकी बीन सुननेवाला भक्त था। नंदू बाबू उसे अपने डिब्बे से दो खिल्ली पान की देते हुए कहते—लो, इसे जमा लो! क्यों, तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न?

    वह विनम्र भाव से पान लेते हुए हँस देता—उसके स्वच्छ मोती-से दाँत हँसने लगते।

    घीसू की अवस्था पचीस की होगी। उसकी बूढ़ी माता को मरे भी तीन वर्ष हो गए थे।

    नंदू बाबू की बीन सुनकर वह बाज़ार से कचौड़ी और दूध लेता, घर जाता, अपनी कोठरी में गुनगुनाता हुआ सो रहता।

    उसकी पूँजी थी एक सौ रुपए। वह रेजगी और पैसे की थैली लेकर दशाश्वमेध पर बैठता, एक पैसा रुपया बट्टा लिया करता और उसे बारह-चौदह आने की बचत हो जाती थी।

    गोविंदराम जब बूटी बनाकर उसे बुलाते, वह अस्वीकार करता। गोविंदराम कहते—बड़ा कंजूस है। सोचता है, पिलाना पड़ेगा, इसी डर से नहीं पीता।

    घीसू कहता—नहीं भाई, मैं संध्या को केवल एक ही बार पीता हूँ।

    गोविंदराम के घाट पर बिंदो नहाने आती, दस बजे। उसकी उजली धोती में गोराई फूटी पड़ती। कभी रेजगी पैसे लेने के लिए वह घीसू के सामने आकर खड़ी हो जाती, उस दिन घीसू को असीम आनंद होता। वह कहती—देखो, घिसे पैसे देना।

    —वाह बिंदो! घिसे पैसे तुम्हारे ही लिए हैं? क्यों?

    —तुम तो घीसू ही हो, फिर तुम्हारे पैसे क्यों घिसे होंगे?—कहकर जब वह मुस्करा देती; तो घीसू कहता—बिंदो! इस दुनिया में मुझसे अधिक कोई घिसा; इसीलिए तो मेरे माता-पिता ने घीसू नाम रक्खा था।

    बिंदो की हँसी आँखों में लौट जाती। वह एक दबी हुई साँस लेकर दशाश्वमेध के तरकारी—बाज़ार में चली जाती।

    बिंदो नित्य रुपया नहीं तुड़ाती; इसीलिए घीसू को उसकी बातों के सुनने का आनंद भी किसी-किसी दिन मिलता। तो भी वह एक नशा था, जिससे कई दिनों के लिए भरपूर तृप्ति हो जाती, वह मूक मानसिक विनोद था। घीसू नगर के बाहर गोधूलि की हरी-भरी क्षितिज—रेखा में उसके सौंदर्य से रंग भरता, गाता, गुनगुनाता और आनंद लेता। घीसू की जीवन-यात्रा का वही संबल था, वही पाथेय था।

    संध्या की शून्यता, बूटी की गमक, तानों की रसीली गुन्नाहट और नंदू बाबू की बीन, सब बिंदो की आराधना की सामग्री थी। घीसू कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता।

    उसने कभी विचार भी किया था कि बिंदो कौन है? किसी तरह से उसे इतना तो विश्वास हो गया था कि वह एक विधवा है; परंतु इससे अधिक जानने की उसे जैसे आवश्यकता नहीं।

    रात के आठ बजे थे, घीसू बाहरी ओर से लौट रहा था। सावन के मेघ घिरे थे, फूही पड़ रही थी। घीसू गा रहा था— ‘‘निसि दिन बरसत नैन हमारे।’’

    सड़क पर कीचड़ की कमी थी। वह धीरे-धीरे चल रहा था, गाता जाता था। सहसा वह रुका। एक जगह सड़क में पानी इकट्ठा था। छींटों से बचने के लिए वह ठिठककर—किधर से चलें-सोचने लगा। पास के बग़ीचे के कमरे से उसे सुनाई पड़ा—यही तुम्हारा दर्शन है—यहाँ इस मुँहजली को लेकर पड़े हो। मुझसे...।

    दूसरी ओर से कहा गया—तो इसमें क्या हुआ! क्या तुम मेरी ब्याही हुई हो, जो मैं तुम्हें इसका जवाब देता फिरूँ?—इस शब्द में भर्राहट थी, शराबी की बोली थी।

    घीसू ने सुना, बिंदो कह रही थी—मैं कुछ नहीं हूँ लेकिन तुम्हारे साथ मैंने धरम बिगाड़ा है सो इसीलिए नहीं कि तुम मुझे फटकारते फिरो। मैं इसका गला घोंट दूँगी और—तुम्हारा भी...बदमाश...।

    —ओहो! मैं बदमाश हूँ! मेरा ही खाती है और मुझसे ही...ठहर तो, देखूँ किसके साथ तू यहाँ आई है, जिसके भरोसे इतना बढ़-बढ़कर बातें कर रही है! पाजी...लुच्ची...भाग, नहीं तो छुरा भोंक दूँगा!

    —छुरा भोंकेगा! मार डाल हत्यारे! मैं आज अपनी और तेरी जान दूँगी और लूँगी—तुझे भी फाँसी पर चढ़वाकर छोड़ूँगी!

    एक चिल्लाहट और धक्कम-धक्का का शब्द हुआ। घीसू से अब रहा गया, उसने बग़ल में दरवाज़े पर धक्का दिया, खुला हुआ था, भीतर घूम-फिरकर पलक मारते-मारते घीसू कमरे में जा पहुँचा। बिंदो गिरी हुई थी और एक अधेड़ मनुष्य उसका जूड़ा पकड़े था। घीसू की गुलाबी आँखों से ख़ून बरस रहा था। उसने कहा—हैं! यह औरत है...इसे...

    मारनेवाले ने कहा—तभी तो, इसी के साथ यहाँ तक आई हो! लो, यह तुम्हारा यार गया।

    बिंदो ने घूमकर देखा—घीसू! वह रो पड़ी।

    अधेड़ ने कहा—ले, चली जा, मौज कर! आज से मुझे अपना मुँह मत दिखाना!

    घीसू ने कहा—भाई, तुम विचित्र मनुष्य हो। लो, चला जाता हूँ। मैंने तो छुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना, इधर चला आया। मुझसे तुम्हारे झगड़े से क्या संबंध!

    —मैं कहाँ ले जाऊँगा भाई! तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। लो, मैं जाता हूँ—कहकर घीसू जाने लगा।

    बिंदो ने कहा—ठहरो!

    बिंदो ने कहा—तो जाती हूँ,—अब इसी के संग...।

    —हाँ-हाँ वह भी क्या अब पूछने की बात है!

    घीसू रुक गया।

    बिंदो चली, घीसू भी पीछे-पीछे बग़ीचे के बाहर निकल आया। सड़क सुनसान थी। दोनों चुपचाप चले। गोदौलिया चौमुहानी पर आकर घीसू ने पूछा—अब तो तुम अपने घर चली जाओगी!

    —कहाँ जाऊँगी! अब तुम्हारे घर चलूँगी।

    घीसू बड़े असमंजस में पड़ा। उसने कहा—मेरे घर कहाँ? नंदू बाबू की एक कोठरी है, वहीं पड़ा रहता हूँ, तुम्हारे वहाँ रहने की जगह कहाँ!

    बिंदो ने रो दिया। चादर के छोर से आँसू पोंछती हुई, उसने कहा—तो फिर तुमको इस समय वहाँ पहुँचने की क्या पड़ी थी। मैं जैसा होता, भुगत लेती! तुमने वहाँ पहुँचकर मेरा सब चौपट कर दिया—मैं कहीं की रही!

    सड़क पर बिजली के उजाले में रोती हुई बिंदो से बात करने में घीसू का दम घुटने लगा। उसने कहा—तो चलो।

    दूसरे दिन, दुपहर को थैली गोविंदराम के घाट पर रख कर घीसू चुपचाप बैठा रहा। गोविंदराम की बूटी बन रही थी। उन्होंने कहा—घीसू, आज बूटी लोगे?

    घीसू कुछ बोला।

    गोविंदराम ने उसका उतरा हुआ मुँह देखकर कहा—क्या कहें घीसू! आज तुम उदास क्यों हो?

    —क्या कहूँ भाई! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूँ—कोई छोटी-सी कोठरी मिल जाती, जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता।

    गोविंदराम ने पूछा—जहाँ रहते थे?

    —वहाँ अब जगह नहीं है।

    —इसी मढ़ी में क्यों नहीं रहते! ताला लगा दिया करो, मैं तो चौबीस घंटे रहता नहीं।

    घीसू की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए।

    गोविंद ने कहा—तो उठो, आज तो बूटी छान लो।

    घीसू पैसे की दूकान लगाकर अब भी बैठता है और बिंदो नित्य गंगा नहाने आती है। वह घीसू की दूकान पर खड़ी होती है, उसे वह चार आने पैसे देता है। अब दोनों हँसते नहीं, मुस्कराते नहीं।

    घीसू का बाहरी ओर जाना छूट गया है। गोविंदराम की डोंगी पर उस पार हो आता है, लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तान सुनाई पड़ती है; किंतु घाट पर आते-जाते चुप।

    बिंदो नित्य पैसा लेने आती। तो कुछ बोलती और घीसू कुछ कहता। घीसू की बड़ी-बड़ी आँखों के चारों ओर हलके गढ़े पड़ गए थे, बिंदो उसे स्थिर दृष्टि से देखती और चली जाती। दिन-पर-दिन वह यह भी देखती कि पैसों की ढेरी कम होती जाती है। घीसू का शरीर भी गिरता जा रहा है। फिर भी एक शब्द नहीं, एक बार पूछने का काम नहीं।

    गोविंदराम ने एक दिन पूछा—घीसू, तुम्हारी तान इधर नहीं सुनाई पड़ी।

    उसने कहा—तबीयत अच्छी नहीं है।

    गोविंद ने उसका हाथ पकड़कर कहा—क्या तुम्हें ज्वर आता है?

    —नहीं तो, यों ही आजकल भोजन बनाने में आलस करता हूँ, अंड-बंड खा लेता हूँ।

    गोविंदराम ने पूछा—बूटी छोड़ दिया, इसी से तुम्हारी यह दशा है।

    उस समय घीसू सोच रहा था—नंदू बाबू की बीन सुने बहुत दिन हुए, वे क्या सोचते होंगे!

    गोविंदराम के चले जाने पर घीसू अपनी कोठरी में लेट रहा। उसे सचमुच ज्वर गया।

    भीषण ज्वर था, रात-भर वह छटपटाता रहा। बिंदो समय पर आई, मढ़ी के चबूतरे पर उस दिन घीसू की दूकान थी। वह खड़ी रही। फिर सहसा उसने दरवाज़ा ढकेल कर भीतर देखा—घीसू छटपटा रहा था! उसने जल पिलाया।

    घीसू ने कहा—बिंदो। क्षमा करना; मैंने तुम्हें बड़ा दु:ख दिया। अब मैं चला। लो, यह बचा हुआ पैसा! तुम जानो भगवान्...कहते-कहते उसकी आँखे टँग गई। बिंदों की आँखों से आँसू बहने लगे। वह गोविंदराम को बुला लाई।

    बिंदो अब भी बची हुई पूँजी से पैसे की दूकान करती है। उसका यौवन, रूप-रंग कुछ नहीं रहा। बच रहा—थोड़ा-सा पैसा और बड़ा-सा पेट-और पहाड़-से आनेवाले दिन!

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 247)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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