द ग्रांड इवेंट

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अनुराग अनंत

अनुराग अनंत

द ग्रांड इवेंट

अनुराग अनंत

और अधिकअनुराग अनंत

    जिस जगह ये पार्क है। उस जगह सौ साल पहले क्या रहा होगा? और उससे भी सौ साल पहले जाने क्या होगा। ऐसे करते हुए करोड़ों साल पहले तक जाओ और सोचो कि इस पार्क की जगह कुछ भी हो सकता है। जंगल का एक कोना समुद्र, पहाड़, नदी झरना, रेगिस्तान कुछ भी। हो सकता है कि किसी हिंसक जानवर ने यहीं किसी अहिंसक शाकाहारी जानवर को मार कर खाया हो। यहीं दो आदिमानव मांस के एक टुकड़े के लिए लड़े हों। किसी हिरनी ने अपने शावकों को जन्म दिया हो। किसी आदिपुरुष ने किसी आदिस्त्री को पहली बार चूमा हो। कुछ भी हो सकता है ना?

    तुम अक्सर अतीत की बात करती हो। मुझे अतीत से चिढ़ है। घिन आती है मुझे अतीत से। अतीत मृत हो चुकी, बीत चुकी चीजों का एक गंधाता हुआ अजायबघर है। जहाँ लाशें रहती हैं। समय की लाश, इंसानों की लाश, जानवरों की लाश। सबके सब पर कहानियों का एक लेप लगा दिया है। ताकि उनका शव बचा रह सके।

    तुमको अतीत से इतनी चिढ़, इतनी घिन क्यों आती है? उसके हाथ उसके घुँघराले बालों में उलझ चुके थे। उसकी आँखें आकाश में अटकी हुईं थी। वो चाहते हुए भी आकाश में तैरते अपने अतीत में फँसा हुआ था। ये त्रासदीपूर्ण दृश्य है और अगर आपका थोड़ा-सा भी रोने का मन है, तो आप रो सकते हैं।

    राजीव अक्सर अतीत की बात छिड़ने पर ऐसे ही सुलगने लगता था और शिवानी ऐसे ही उसके घुँघराले बालों में अपने हाथ उलझा कर उसके अतीत के बारे में पूछती। ये पहले भी कई बार हुआ था। एक बार फिर वही हो रहा था। वही आकाश में तैरते अतीत में उलझना दोहरा रहा था राजीव। राजीव के भीतर जरूर कोई कुआँ है जो अब सूख चुका है। वहाँ से भयानक आवाज़े आतीं हैं। वहाँ पानी नहीं है। पानी की स्मृति है। पानी की स्मृति का एक और नाम होता है। प्यास। ये किसी शब्दकोश में नही दर्ज़। सबकुछ शब्दकोश में कहाँ है। मन की भाषा किसी शब्दकोश की मोहताज नहीं होती।

    आज कुछ विशेष था। इतना विशेष की राजीव के मुँह से इस सवाल का जवाब फूट रहा था। आवाज़ जो उसी सूखे कुएँ से रही थी। गंभीर और घायल। आवाज़ के पाँव में अगर काँटे का चुभना आप कल्पना कर सकते हैं तो ज़रूर आप आवाज़ का लंगड़ाना भी देख सकते हैं उसकी आवाज़ लंगड़ा रही थी। उसने उसी विशेष आवाज़ में कहना शुरू किया। उसकी आवाज़ एक लंगड़ी आवाज़ थी।

    कोई घटना अचानक नहीं घटती। वो कई सारी घटनाओं के रूप में घटते-घटते घटती है। पिछली कई घटना अपने आगे वाली घटना के लिए ज़िम्मेदार होती है। ये उस खेल के जैसा है जिसमें कई अलग-अलग चीजें क़रीने से एक क्रम में रख दी जाती हैं और एक चीज़ दूसरे से टकराती है और एक दूसरे को गिराते हुए आख़री से रखी सबसे बड़ी किसी चीज़ को गिरा देती हैं। कोई भी इवेंट एक सीरीज़ ऑफ इवेंट होती है।

    मुझे नहीं मालूम कि मेरा जन्म कब हुआ। ठीक वैसे ही जैसे कोई नहीं बता सकता कि रावण कब मारा गया या गांधी जी की हत्या कब हुई। रावण उस दिन ही मर गया था जिस दिन राम का जन्म हुआ या उस दिन जब ऋषि वशिष्ठ ने दशरथ की रानियों को पुत्र प्राप्ति के लिए खाने को फल दिए थे या उस दिन जब लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी या उस दिन जब रावण ने सीता का हरण किया या तब जब रावण ने विभीषण को घर से निकाल दिया। इनमें से अगर कोई भी घटना ना होती तो रावण की हत्या ना होती। जैसे गाँधी मारे जाते अगर जिन्ना इंग्लैंड से वापस ना आते, या अल्लामा इक़बाल टू नेशन थियरी ना देते या भगत सिंह ज़िंदा रह जाते या कांग्रेस में वंदेमातरम गाने को लेकर झगड़े शुरू हो जाते या जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री की जगह जिन्ना प्रधानमंत्री बन जाते या गोडसे प्लेग जैसी किसी बीमारी से मर जाता या गोडसे का बचपन इतना कुंठित होता या जिन्ना की बीमारी उसे आज़ादी से पहले ही अपने साथ ले जाती। ऐसा कुछ नहीं हुआ इसलिए पूजा करके उठे जर्जर बूढ़े के सीने में गोली मार दी गई और एक घटना जो बहुत पहले से किस्तों में घट रही थी पूरी तरह घट गई।

    मैं जिस दिन पैदा हुआ। उससे बहुत पहले से किस्तों में पैदा हो रहा था। थोड़ा सा मैं तब पैदा हुआ जब मेरे दादा के दादा के दादा के दादा... (इस तरह करते हुए आप इतने पीछे जाइए जहाँ दुनिया में पहला आदमी दुनिया के पहली स्त्री को चूम रहा हो) ने मेरी दादी के साथ संभोग किया। ...और थोड़ा-थोड़ा करते हुए मैं मेरे पिता तक आया और मेरे पिता ने मुझे मेरी माँ के गर्भ में रोप दिया। फिर नौ महीने में मैं रत्ती-रत्ती करके पैदा हुआ। पहले अपनी माँ के गर्भ में फिर दुनिया में आया। और आख़री में वो घटना भी घट गई जो दुनिया से बनने के साथ ही सूत-सूत, रत्ती-रत्ती, अंगुल-अंगुल घट रही थी। यानी मैं पैदा हो गया। जिसे अतीत का ज्ञान नहीं वो ख़ुद को पैदा होता नहीं देख पाते। वो उसी दिन को अपना जन्मदिन कहते हैं जिस दिन वो इस धरती पे आए।

    मुझे अतीत की सब कारीगरी, सब अय्यारी पता है। इसलिए मुझे मालूम है कोई चीज़ कैसे टुकड़ों में बनती है। कोई घटना कैसे किस्तों में घटती है।

    राजीव कहते-कहते रुक गया था। जैसे दौड़ते-दौड़ते कोई थक कर सुस्ता रहा हो। शिवानी राजीव का कहा एक एक वाक्य ऐसे सुन रही थी जैसे सृष्टि का रहस्य उसके सामने बेपर्दा हो रहा हो। जैसे इससे पहले उसने कभी कुछ भी सुना हो और राजीव के ये शब्द उसके लिए सृष्टि के पहले शब्द हों।

    उसने पूछा, इसका मतलब सबकुछ पहले से तय है। इसके बाद ये घटेगा, इसके होने से ये होगा। सबकुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है?

    हाँ! और अगर बीच में कोई घटना बदल गई तो आगे की घटना भी बदल जाएगी और फिर अनंत घटनाओं की संभावनाएँ खुल जाएँगी। राजीव ने किसी बूढ़े दार्शनिक की तरह ये बात कही थी।

    शिवानी को कुछ समझ नहीं आया और वो मन ही मन इस वाक्य को खोल रही थी। राजीव समझ गया कि उसका कहा शिवानी से नहीं खुल रहा है।

    उसने अपनी बात को और स्पष्ट किया। जैसे तुम यहाँ रिक्शे से आई हो और साढ़े पाँच बजे इस पार्क में पहुँची हो। और हम एक बेंच पर बैठे हुए बात कर रहे हैं। अगर तुम ऑटो से आती तो सवा पाँच बजे ही पहुँच जाती तब तुम्हारा भाई जो तुम्हारे आने के दस मिनट पहले तक इसी पार्क में था तुम्हें देख लेता और वो तुमसे यहाँ होने के बारे में पूछता। तुम कोई बहाना बनाती और उसके भीतर का जासूस सबकुछ जान जाता या ये भी हो सकता था कि मैं तुमको गेट पर मिल जाता और हम हाथों में हाथ थामे अंदर आते और वो हमें साथ देख लेता। वो मुझे पीटने लगता और मुझे ग़ुस्सा आता और मैं उसका सर फाड़ देता। या तुम्हारा भाई मेरे सिर पर वो बड़ा वाला पत्थर उठा कर दे मारता और मेरा सिर चकनाचूर हो जाता। या ऐसा भी हो सकता था कि ऑटो किसी जीप से टकरा जाता और हम फिर कभी ना मिल पाते। या ऐसा भी हो सकता था कि तुम पहले पहुँच कर अपने भाई को देख लेती और मुझे फोन पर किसी और पार्क में मिलने को कहती और हम किसी और पार्क में बैठे हुए बात कर रहे होते। कुछ भी हो सकता था। जैसा हुआ है अगर वैसा नहीं होता तो अनंत अलग-अलग घटनाएँ घटने की संभावना हो सकती हैं।

    शिवानी ने कहा, कोई उदाहरण दे कर समझा सकते हो क्या राजीव?

    राजीव ने उदाहरण देना शुरू किया। राजीव जहाँ से उदाहरण दे रहा था। वो राजीव के बचपन की जमीन थी। जहाँ उसका एक छोटा-सा मकान था और छोटा-सा परिवार। माँ-पिता और एक छोटी-सी बहन। छोटी-सी बहन पाँच-छ: साल की रही होगी और राजीव 14-15 साल का। वहाँ लोहबान का धुआँ था और धुंध थी। सबकुछ ऐसा दिखता था जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ राजीव ही देख सकता था। उसके अलावा कोई और देखने की कोशिश करता तो उसे ऐसा लगता कि वहाँ कुछ है... पर क्या? पता नहीं, जैसा कुछ। राजीव को देखने पर लगता तो था कि उसके बचपन में कुछ है जो मध्धम आँच पर जाने कब से खदबदा रहा है।

    वो बहुत सुंदर थी। इतनी सुंदर जितनी होने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उसकी सुंदरता हमारे किसी काम की नहीं थी। वो अगर थोड़ी कम सुंदर होती या भी होती तो भी हमारी माँ और पिता जी की पत्नी होती। पिता जी बहुत सीधे थे। इतने सीधे जितने होने की कोई ज़रूरत नहीं थी। उनका सीधापन हमारे किसी काम का नहीं था। वो अगर थोड़े कम सीधे होते या भी होते तो भी हमारे पिता और माँ के पति होते।

    माँ इतनी ख़ूबसूरत थी कि ख़तरनाक हो गई थी। पिता इतने सीधे थे कि पागल हो गए थे। जब मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा तो मुझे हवाओं में उड़ती हुई बातें सुनाई देने लगीं। मैंने पुरवाई में बहती एक बात सुनी कि पिता हमारे कहने के पिता हैं। होने के पिता कोई और हैं। और जब पछुआ चल रही थी तब मैंने सुना कि मेरे घर जो विधायक बाबू आते हैं। वो बहुत अच्छे गायक हैं और जब तब माँ को किसी भोजपुरी गीत की तरह गाया करते हैं।

    शिवानी ने देखा राजीव की आँखों में आँसू था, पर वो रो नहीं रहा था। शिवानी का मन किया कि वो राजीव के आँसू पोछ दे। पर आँसू बह नहीं रहे थे तो वो क्या करती। उसका मन हुआ कि वो राजीव को गले लगा ले। पर फिर उसने सोचा कि ऐसा करने से राजीव को रोना जाएगा और वो अपनी कहानी बीच में छोड़ देगा। शिवानी बस सुनती रही। उसने राजीव को गले लगाया, आँसू पोछा और ढाँढस ही बँधाया। कहानी सुनने की भूख आदमी को कितना निर्मम और क्रूर बना सकती है। कोई अगर शिवानी को उस समय देखता तो जान सकता था।

    राजीव बोलता रहा। फिर वो दिन भी गया। जिसे लाने के लिए बहुत सारे दिन आए और जैसे उन्हें जाना था ठीक वैसे ही गए। जो जैसे घटना था वैसे ही घटा। इसलिए उस दिन दंगा हो गया। शहर में अचानक सिर्फ़ दो क़िस्म के लोग ही बचे। हिंदू और मुसलमान। शहर में जो भी था। हिंदू मुसलमान हो गया था। कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था कि रमज़ान और असलम अलग-अलग लोगों के नाम हैं। वो बस मुसलमान भर बचे थे। और राम और घनश्याम अलग-अलग लोग होते हुए भी बस हिंदू भर रह गए थे।

    बात शुरू हुई उस शाम जब मैंने देखा कि विधायक बाबू माँ को पान की तरह चबा रहे हैं। उनके मुँह से ख़ून टपक रहा था। मुझे ऐसे ही दिखा था। किसी और को किसी और तरह दिख सकता था। मैं पिता के पास दौड़ते हुए गया। जब मैं भाग रहा था तब अगर मेरा पैर गोबर में पड़ जाता और मैं गिर कर अपनी टाँगे तुड़वा बैठता तो दंगा टल सकता था। पर मैं सीधा पिता जी की दुकान पहुँचा और हाँफते हुए मैंने पिता जी से बताया कि विधायक बाबू माँ को पान की तरह चबा रहे हैं और माँ नदियों की तरह खिलखिला रही है।

    मुझे लगता है मेरे भीतर अक्सर से एक कवि छिपा था जो उस दिन मुझपर हावी हो गया था। जैसे भूत सवार होता है। उसदिन मुझपर कविता सवार हो गई थी। मैंने पिता जी को ऐसे बताया था जैसे पिता जी कोई योद्धा हों और उन्हें अपनी पत्नी और विधायक बाबू के बारे में कुछ भी मालूम हो। पिता जी का सारा सीधापन उस दिन जाने कहाँ चला गया था। वो मेरे कहते ही सब समझ गए थे। या समझते वो पहले से थे। उस दिन उन्हें ये पता चल गया था कि अब मैं भी समझ गया हूँ और अब उन्हें कुछ करना पड़ेगा नहीं तो मैं उनके नाम पर थूक दूँगा और अपने नाम के आगे उनका सरनेम लिखना बंद कर दूँगा। उन्होंने अपनी शर्ट की बाहें चढ़ाई (मानों ऐसा करना मर्दानगी जगाने के लिए ज़रूरी होता हो) और दुकान का शटर गिरा कर मेरे साथ भागते हुए घर आए। घर आते समय रास्ते में दो सांड आपस में लड़ रहे थे। जिन्हें पिता जी ने मर्दों की तरह डाँटा और वो बच्चों की तरह मान गए। अगर उनमें से किसी एक को उस पल अपना सांड होना याद रह जाता और उन्होंने अपना सांड होना सिद्ध कर दिया होता तो पिता जी घर नहीं पहुँचते और विधायक बाबू जो करने आए थे, वो करके चले जाते। पर जो जैसा होना था वैसे ही घट रहा था। इसलिए सांड सड़क के किनारे आज्ञाकारी स्कूली बच्चों की तरह सर झुका कर खड़े हो गए और पिता जी भागते हुए घर में दाख़िल हुए। उस दिन वो राजपाल यादव या जॉनी लिवर नहीं बल्कि संजय दत्त या सन्नी देओल लग रहे थे। पिता जब घर में दाखिल हुए तो मेरी छोटी बहन बरामदे में खेल रही थी और अंदर कमरे में विधायक जी माँ को भोजपुरी गीतों की तरह गा रहे थे (फिर एक बार मैंने सच को कविता की तरह कहना चाहा है। हो सके तो ईश्वर मुझे माफ़ करे)। साफ-साफ कहूँ तो दोनों सेक्स कर रहे थे। दोनों नंगे थे। मुझे मेरी माँ के बारे में ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। पर मैं क्या करूँ, मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। मेरी माँ को भी मेरे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था।

    राजीव फिर से कहते-कहते ठहर गया था। अब उसकी आँखों में पहले से ज़्यादा पानी था। उसकी आवाज़ पहले से ज़्यादा घायल थी। और उसकी कहानी पहले से ज़्यादा दिलचस्प। शिवानी ने राजीव को नहीं टोका।

    राजीव कुछ ठहर कर फिर बोलने लगा। पिता जी विधायक बाबू और माँ के सामने खड़े हाँफ रहे थे। मैं उनके ठीक पीछे खड़ा क्या कर रहा था मुझे याद नहीं। मेरी बहन बरामदे में अभी भी खेल रही थी। पिता जी ने कुर्सी उठाई और विधायक बाबू की तरफ देख कर ऐसे की अभी कुर्सी उनके सिर पर पटक देंगे। विधायक बाबू को डरना चाहिए था। पर वो हँस रहे थे। माँ की आँखों में शर्म का पानी मर गया था और उस पानी की लाश उसकी आँखों में तैर रही थी। कुर्सी उठाए हुए पिता जी को जाने क्या याद आया, शायद उन्होंने विधायक बाबू के समर्थकों को एक साँस में गिन डाला हो। जिनकी संख्या लाख या उससे हज़ार दो हज़ार कम आई हो और इतनी बड़ी संख्या किसी को भी रुला सकती है। पिता जी फूट-फूटकर बच्चों की तरह रोने लगे। घुटनों के बल ज़मीन में धँसे हुए, हाथ जोड़े, वो बच्चों की तरह रो रहे थे। ये शर्मनाक था। मैं कल्पना में विधायक बाबू को मरता हुआ देख रहा था और फिल्मों में देखे गए दृश्यों के अनुसार उनकी लाश को ठिकाने लगाने के बारे में सोच रहा था पर सारा दृश्य बदल गया था। मेरे पिता मुझसे भी छोटे बच्चे बन गए थे। यही कोई आठ-दस साल का बच्चा। वो विधायक बाबू के सामने रोते हुए कह रहे थे, बच्चे बड़े हो रहे हैं अब ये सब बंद कर दीजिए। बहुत मेहरबानी होगी।

    विधायक बाबू कपड़े बदलते हुए जाने क्या सोच रहे थे कि उनके मेहरबान हाथ मेरे पिता के बालों से खेलने लगे। उन्होंने उन्हें ऐसे पुचकारा जैसे वो सच में आठ-दस साल के बच्चे ही हों। आज जो हुआ, विधायक बाबू को एकदम पसंद नहीं आया था। ये अपराध ही था। भला राजपाल यादव और जॉनी लीवर को क्या अधिकार कि वो किसी ऐसी वैसी दुपहर, दो कौड़ी की रेंगती हुई दुकान से हाँफते हुए आएँ और सनी देओल और संजय दत्त की तरह दहाड़ने लगे। ये पिता जी का अपराध था और विधायक बाबू ने मन ही मन तय किया कि पिता जी को इसकी सजा मिलेगी। विधायक बाबू ने बाहर जाते हुए, बरामदे में खेलती मेरी बहन को ऐसे पुचकारा जैसे कोई डॉक्टर अपने मरीज़ को पुचकारता है। जैसे ऐसा करने से मेरी बहन वो सबकुछ भूल जाएगी। जो उसे याद है। जैसे मेरी बहन पिता जी की तरह पागलपन की हद तक सीधी हो। जैसे मेरी बहन को चॉकलेट के अलावा किसी भी चीज़ के बारे में मालूम हो।

    शाम होते-होते कुछ ऐसा मेरा इंतज़ार कर रहा था। जिसके बारे में मैंने कल्पना में भी नहीं सोचा था। जिसके बारे में आज भी आश्चर्य, दुःख और भय के साथ सोचता हूँ। मेरी दस साल की बहन ने माँ की साड़ी से अपनी गर्दन कसनी चाही थी। फाँसी कैसे लगाई जाती है क्या उसे मालूम था? अगर मालूम था तो कोई कुछ भी कहे मैं उसकी उम्र आठ-दस बरस नहीं मान सकता। वो जरूर 25-30 साल की रही होगी और बहाना करके आठ-दस साल की बनी बरामदे में खेलती रहती थी। जैसे मैं 30-35 साल का था और बहाना किए हुए पंद्रह साल का बना घूमता रहता था। ये सारे वाक्य मेरे अपने लिए हैं। सिर्फ़ मुझे समझ आएँगे। कोई और इसमें अपना सर खपाए। हम ख़ुद के लिए क्या थे और क्या होते जा रहे थे इससे किसी को क्या फ़र्क पड़ता है। दुनिया के लिए हम बच्चे ही थे।

    उस दिन के बाद पिता जी मुझसे आँख नहीं मिला पा रहे थे। वो मेरे सामने पड़ने से कतराते थे। मैं भी पिता जी के सामने पड़ने से कतराने लगा। मैं भी उनसे आँखें नहीं मिलाना चाहता था। इस तरह हम एक दूसरे की अनजाने में ही सहायता कर रहे थे। मैंने उसी समय अपने नाम से उनका दिया हुआ सरनेम काट दिया। और स्कूल की कॉपी में अपना नाम सिर्फ़ राजीव लिखने लगा था। माँ को शायद ये बात पता चल गई थी वो हम दोनों की सहायता करना चाहती थी। इसीलिए उसने उस रात पिता जी के लिए खीर बनाई। खीर मुझे पसंद नहीं थी पर मेरी बहन खीर के लिए जान दे सकती थी। और उसने खीर के लिए जान दे दी। माँ ने खीर में चीनी के साथ जो चीज़ मिलाई थी वो जान ले सकती थी। वो भीतर जाते ही ख़ंजर बन जाती थी। और थोड़े समय में ही भीतर-भीतर ही आदमी को कतरा-कतरा कर देती थी। हुआ दरअसल ये कि माँ ने पिता जी के लिए खीर बना कर किचन में छिपा कर रख दी। जब वो किचन में खीर बना रही थी तो वो विधायक बाबू के पसंद का कोई भोजपुरी गीत गा रही थी। जिसके बोल थे, सैयाँ जी से छुपाए के, मिलबै हम उनका सुलाय के, राजा जी आवा बिना कुंडी खड़काए

    खीर और मेरी बहन में इतना प्रेम था कि खीर ने हवाओं की देह में अपने होने की ख़बर ख़त की तरह लिखी और मेरी बहन ने अपनी नाक से वो ख़त पढ़ लिया। ये खीर की खुशबु थी जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी बहन के पास ही पहुँची थी। यहाँ कोई बड़ी घटना बदलने वाली थी क्योंकि ठीक उससे पहले की एक छोटी घटना बदल दी गई थी। पिता जी की जगह, मेरी बहन ने चुपके से खीर खा ली। और हमें लगा कि मेरी बहन को फाँसी लगाने के साथ-साथ ज़हर खाना भी आता था और उसने ज़हर खा कर जान दे दी। मेरी बहन स्वाति मर गई। आत्महत्या और हत्या के बीच की कोई चीज़ उसे अपने साथ ले गई और मैं कुछ नहीं कर सका। पिता जी को तो कई बार रोते देखा था मैंने पर उस दिन पहली बार मैंने माँ को रोते देखा था। उस दिन मुझे पता चला आँसू इस दुनिया का सबसे बड़ा फरेब है। मुझे आँसूओं से घृणा हो गई। फिर भी आँसूओं ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा और जब-तब मेरी आँखों का दरवाज़ा खटकाते रहे। किसी बच्चे की हत्या या आत्महत्या के बीच की घटना के लिए क्या शब्द प्रयोग किए जाएँगे। दुनिया की किसी भाषा के किसी शब्दकोश में नहीं दर्ज़ है। इसीलिए मेरी बहन की मौत कैसे हुई मैं बस महसूस कर सकता हूँ। बता नहीं सकता।

    शिवानी ऐसे सुन रही थी जैसे देखा जाता है। राजीव का हर वाक्य दृश्य में बदल रहा था। हवा सिनेमा के पर्दे में बदल चुकी थी और साँस लेने का मतलब बदल चुका था। शिवानी ने पूछा, दंगे का क्या हुआ? शिवानी के इस सवाल को राजीव की बहन की मौत का अपमान भी कहा जा सकता है। क्योंकि शिवानी ने दो मिनट का मौन भी नहीं रखा और सवाल पूछ बैठी। इसमें शिवानी की ग़लती नहीं थी। दंगा है ही इतनी दिलचस्प चीज़ की कोई भी उसके होने से रोमांचित हो जाता है। राजीव ने शिवानी को अपनी बहन की मौत के अपमान के लिए बिना माफ़ी माँगे ही माफ़ कर दिया और उसके सवाल का उत्तर देने लगा।

    दंगा धीरे-धीरे घट रहा था। दरअस्ल पिता की मौत खीर खाने से इसलिए नहीं हुई क्योंकि उनका बचना ज़रूरी था। उनकी वजह से दंगे होने थे। अगर पिता जी उस दिन खीर खा कर मर जाते तो शायद शहर में दंगे नहीं होते और शब्बीर जो अपने बाप की तीन औरतों का एकलौता बेटा और बारह बहिनों का इकलौता भाई था। उसे गले में भगवा गमछा डाले लड़के बीच सड़क में पीट-पीट कर नहीं मारते। और शहर में सैकड़ों घर जलने और 45 लोग मरने से बच जाते। मुझे यक़ीन है कि अगर पिता जी को ये बात मालूम होती तो वो उसी शाम माँ से कहते कि एक कटोरी वैसी ही खीर बनाओ जैसी स्वाति के लिए बनाई थी। या वो किराने की दुकान पर जाते और कहते कि वो आजकल चूहों से बहुत परेशान हैं। चूहों ने उनका जीना हराम कर दिया है और दुकानदार ना जाने क्या समझ जाता कि उनके हाथ में दो पुड़िया थमा देता। वो घर आते और चूहों के बिल में रोटी का टुकड़ा डाल कर गोली अपने हलक में उतार लेते और ये ख़्याल एकदम फ़ालतू है पर रहा है कि चूहा अपनी भाषा में अपनी पत्नी, चुहिया से मेरे पिता जी के बारे कहता कि वो बहुत सीधे और धर्मात्मा क़िस्म के आदमी हैं। ये दुनिया उनके रहने के लायक़ नहीं है। उन्हें मर जाना चाहिए। पिता जी चूहे की इन बातों को सुनते और अपने जीवन से संतुष्ट हो जाते। और उन्हें मरने में कोई तकलीफ़ नहीं होती। ये सब मेरे दिमाग़ का फ़ितूर है। ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरी बहन स्वाति मर गई और पिता जी बरामदे में बैठे अख़बार पढ़ते रहे। शब्बीर जिसका नाम अभी मैंने ऊपर बताया है। वो अनजाने में ही अपनी मौत का इंतज़ार करता रहा।

    मुसलमानों की एक मात्र ग़लती ये है कि वो जालीदार टोपी पहनते हैं और हर दस में से नौ आदमी पंचर बनाता है। दुनिया के पेंदे में इतने छेद हैं कि उसे बहुत सारे मुसलमानों की ज़रूरत है। इसीलिए मुसलमान लगातार अपनी जनसंख्या बढ़ाते रहते हैं और एक आदमी तीन शादी और तेरह बच्चे पैदा करता है। दंगे इसी जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए होते हैं। दंगे ज़रूरी हैं, इसीलिए समय समय पर होते रहते हैं। मैं कभी-कभी सोचता था कि अगर दंगे ना होते तो दुनिया में हर कोई मुसलमान हो जाता। हर कोई पंचर बनाने लगता और हर कोई जालीदार टोपी पहनने लगता। ऐसी दुनिया में कोई छेद ना बाकी रह जाता और लोग ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करते हुए मर जाते। जैसे प्रेम की कमी की शिकायत करते हुए सारी गौरैया मर गईं। जब मैं ये सब सोच रहा था तो मेरा मन हुआ कि अगर कभी मौका मिलेगा तो मैं भी एक दंगे का आयोजन करूँगा। जिसमें बहुत धूमधाम से घर जलाए जाएँगे और झूमते नाचते हुए लोग एक दूसरे को मार डालेंगे।

    ये मेरी कल्पना थी। यथार्थ में वो दिन कुत्तों जैसे दिन थे। भूखे, रिरियाते, दुत्कारे जाते दिन। रातों को रोते हुए। एकांत को देख कर भौंकते हुए दिन। उन दिनों तो पिता बरामदे में बैठे-बैठे अख़बार पढ़ते रहते थे। अख़बार का हर अक्षर ऐसे पढ़ते, जैसे उन्हें पढ़ना साँस लेने जितना ज़रुरी हो। एक भी अक्षर छूट जाने का मलतब एक साँस मर जाना था। आदमी तब मरता है जब उसकी सारी साँसे मर जाती हैं। पिता जी घर के बरामदे में सारा समय बैठे रहते थे। इसलिए विधायक बाबू घर में नहीं पाते थे और माँ को इस वजह से दुनिया में रोशनी की कमी लगती थी। माँ की अपनी ही एक दुनिया थी। जहाँ हर समय सूर्य ग्रहण रहता था। माँ पृथ्वी थी और विधायक बाबू सूर्य। आप अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार पिता जी को चाँद या राहू कह सकते हैं। पर कुछ भी कहते हुए आप इस बात को नहीं नकार पाएँगे कि वो पृथ्वी और सूर्य के बीच थे। जिस वजह से माँ की दुनिया में एक स्थाई सूर्य ग्रहण था। पिता अख़बार में खबरें पढ़ते हुए कुछ विशेष ख़बरों को ऊँचे स्वर में पढ़ते थे, मसलन 'विवाहिता प्रेमी के साथ फ़रार', 'दो बच्चों की माँ ने प्रेमी के साथ विवाह के लिए पति और बच्चों को मार दिया', 'पति ने पत्नी की आशनाई से तंग कर की पत्नी की हत्या', 'नाजाएज़ रिश्ते में गई पत्नी की जान : पति ने किया क़त्ल'

    जब पिता जी ऐसी ख़बरें चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ रहे होते तो माँ इन खबरों का विलोम सुन रही होती थी। और विधायक जी अपने समर्थकों के साथ सफ़ारी जैसी किसी बड़ी गाड़ी में बैठे कहीं से कहीं के लिए उड़े जा रहे होते थे। पिता जी दिन भर अख़बार पढ़ते रहते और शाम को बस चौराहे तक टहलने जाते थे। जब वो चौराहर तक टहलने जाते तो मुझे अपनी जगह बैठा जाते। हम बाप बेटे को हर समय ऐसा लगता जैसे हमारे घर में कुबेर का खज़ाना है और हमें अपनी जान की परवाह किए बग़ैर इस ख़ज़ाने की रक्षा करनी है। स्वाति को मरे और पिता जी को अख़बार पढ़ते हुए तीन साल के ऊपर हो रहे थे। पिता जी की दुकान बंद हो चुकी थी। घर में पैसे की कोई आमद नहीं थी पर फिर भी हमारी साँसें और हमारा घर चल रहा था। इसे ही जादू कहते हैं। हमारे घर में हर समय जादू घटता था। हमें मालूम नहीं था पर हम जादूगरों में बदल चुके थे।

    शायद इसी जादू के चलते पिता जी एक दिन ग़ायब हो गए। रोज की तरह जैसे शाम आती थी वैसे भी उस दिन भी शाम आई थी। अख़बार में उस दिन तीन औरतों के घर से भागने और दो महिलाओं के शादी के बाद वाले इश्क़ की वजह से मरने की ख़बर तेज़-तेज़ पढ़ने के बाद पिता जी चौराहे तक घूमने गए थे। उनके जाने के बाद मैं बरामदे में बैठा वही अख़बार पढ़ रहा था। पिता जी ने खबरें उल्टी पढ़ी थीं। दरअस्ल अख़बार में ख़बर थी कि उस दिन तीन पति घर से ग़ायब हो गए और पत्नी के इश्क़ की वजह से दो पतियों की हत्या हो गई थी। मुझे लगा कि पिता जी ने पाप किया है और अब कोई चित्रगुप्त नाम का इंस्पेक्टर उन्हें इसकी सजा देगा। मुझे डर लगा क्योंकि ना होने के बराबर भी पिता का होना, पिता का होना ही होता है। पिता चाय में चीनी और सब्जी में नमक की तरह थे। उनके ना रहने से सारे स्वाद चले जाते हैं।

    सबकुछ फ़ीका हो जाता। मुझे फ़ीकेपन से कोफ़्त होती थी। बहुत देर इंतज़ार करने के बाद भी जब पिता नहीं आए तो मैं परेशान हो गया और माँ ख़ुश। माँ किचन में गाना गा रही थी। जब मैंने लगभग रोते-रोते माँ से कहा, पिता जी कहीं नहीं मिल रहे...।

    माँ निर्गुण भजन गा रही थी...मोको कहाँ ढूढ़ें रे बंदे...मैं तो तेरे पास रे।

    मैंने भगवान जैसी किसी चीज़ से प्रार्थना जैसी कोई चीज़ की। और मन ही मन कहा, भगवान बचा सकते हो तो माँ शब्द का अर्थ बचा लो। तुम्हारी ये दुनिया इसी एक शब्द पर टिकी है।

    माँ ने जैसे मेरे मन की बात सुन ली हो और खिलखिला कर हँस पड़ी। मुझे गुस्सा आना चाहिए था। पर मुझे शर्म आई और मैं पुलिस स्टेशन की तरफ़ निकल गया।

    थाने में चित्रगुप्त लोगों के अपराध लिख रहा था। उसके चेहरे में टाले जा रहे कामों का मलबा पड़ा हुआ था। ये बेअदबी है पर यही सच है कि मुझे उसका चेहरा एक बजबजाते हुए कूड़ेदान सा लगा था। ऐसा कूड़ादान जहाँ आप थूकना भी पसंद ना करें। पर मेरी मज़बूरी ऐसी थी कि मुझे उसे नमस्कार करना पड़ रहा था। मैंने उसे बताया कि मेरे पिता कहीं खो गए हैं। उनका कहीं कोई पता नहीं चल रहा है। उसने इस बात को ऐसे सुना जैसे मैंने कोई हँसी ना आने वाला चुटकुला सुनाया हो। वो फिर से काम करने का अभिनय करने लगा। और मैं चुपचाप खड़ा-खड़ा यही सोच रहा था कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ। थानेदार चित्रगुप्त अग्निहोत्री का चेहरा ही ख़राब था, वो आदमी इतना खराब नहीं था। इस बात का अहसास मुझे दो घंटे बाद तब हुआ जब उसने मुझसे कहा, कल तक इंतज़ार कर लो, तलाश कर लो। अगर तुम्हारे पिता कल शाम तक नहीं आते तो कल रिपोर्ट लिखवा देना। रपट लिख ली जाएगी। उसका ये कहना ऐसा था जैसे उसने मुझपर कभी ना उतारे जा सकने वाला कोई एहसान कर दिया हो। मैं वहाँ से चला आया। और अगली शाम तक मैंने पिता जी को कहीं नहीं तलाशा, क्योंकि पिछले तीन साल से वो चौराहे से आगे कहीं गए ही नहीं थे। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था कि वो कहाँ होंगे, उन्हें कहाँ तलाशना है। माँ पूरे घर में गौरैया बनी टहलती रही और मैं बिस्तर पर पड़े पड़े शाम का इंतज़ार करता रहा। मुझे विश्वास था कि पिता जी वापस नहीं आएंगे। शाम होते ही मैं थाने में था और चित्रगुप्त मेरे सामने।

    अंदर कमरे से किसी मुसलमान लड़के के चीखने की आवाज़ रही थी। वो चीखते हुए अल्लाह का नाम ले रहा था। मुझे नहीं मालूम कि मुझे कैसे पता चला कि अंदर शब्बीर है। आप चाहें तो इसके लिए मुझ पर लानत भेज सकते हैं कि मुझे शब्बीर के अलावा कोई मुसलमान नाम नहीं मालूम था। शायद इसलिए शहर का हर मुसलमान शब्बीर ही लगता था। शब्बीर की चौराहे पर पंचर लगाने की दुकान थी। वो मेरा हमउम्र था। उसकी भी उम्र 18-19 साल रही होगी। चित्रगुप्त ने चीखते हुए आदेश दिया, इसके हाथ में इतने पंचर कर दो कि साला ज़िंदगी भर पंचर ही बनाता रहे। थानेदार के आदेश ने वहाँ मौजूद हवलदारों को मशीन में बदल दिया और वो शब्बीर के हाथों में कीलें ठोकने लगे। चित्रगुप्त बाहर आया और मुझे देखते ही कहने लगा, हमने तुम्हारे पिता का केस सॉल्व कर दिया है। ये वाक्य कहते-कहते ही उसने अपना मोबाइल मेरे हाथों में दे दिया था। जिसमें एक सीसीटीवी फुटेज था। जिसमें मेरी कद-काठी (शब्बीर की कद-काठी मेरी कद-काठी से एकदम मिलती थी) का कोई लड़का सर पर जालीदार टोपी लगाए पिता जी के साथ चला जा रहा था। वीडियो में पिता जी उस लड़के के साथ मोड़ तक जाते हुए दिख रहे थे। उसके बाद वो मोड़ से मुड़ कर ओझल हो जाते थे। चित्रगुप्त ने कहा कि मैं रिपोर्ट लिखवा दूँ कि शब्बीर परसों शाम घर पर आया और पिता जी को घर से बुला कर ले गया और उसके बाद पिता जी का कहीं कोई अता-पता नहीं मिल रहा है। मैं बस यही सोच रहा था कि काश पिता जी उस दिन चौराहे पर जाते। या वो चौराहे पर जाने के लिए घर से निकलते और उनके पाँवों में मोच जाती। वो घर कर माँ से हल्दी तेल गरम करने के लिए कहते और हल्दी तेल लगा कर सो जाते या उनको अचानक बुख़ार जाता और वो घर पर ही रह जाते। या उनका पेट ख़राब हो जाता या बहुत सारी उल्टियाँ आने लगतीं। माँ से उनकी लड़ाई हो जाती या मुझसे ग़लती से घर का टीवी गिर जाता और वो मुझे इतना डाँटते की उनका मूड ख़राब हो जाता। एक ख़्याल ये भी आया कि माँ किचन में खाना बनाते हुए जल जाती और मैं और पिता जी उसे लेकर अस्पताल चले जाते तो शायद पिता जी चौराहे पर ना जाते और जालीदार टोपी पहने वीडियो वाला लड़का उनको ग़ायब ना कर पाता। मैं यही सब सोच रहा था और मुझसे चित्रगुप्त ने जो चाहा वो लिखवा लिया।

    मैं घर वापस गया था। पिता साथ नहीं थे। उनका वीडियो था। जिसे मैं अपने मोबाइल में ले आया था। मैं मोबाइल पर बार-बार उस वीडियो को प्ले करता और जैसे ही पिता जी चौराहे वाले मोड़ से मुड़ने वाले होते मैं वीडियो पॉज़ कर देता। जैसे ऐसा करने से मैं पिता जी को ग़ायब होने से रोक लूँगा। मुझे ऐसा करने में अज़ीब संतोष मिल रहा था। मुझे लगता था कि मैंने कोई दुर्घटना घटित होने से पहले ही रोक दी है। भगवान जैसा महसूस करते होंगे। वैसा ही मैं भी महसूस कर रहा था। भगवान बहुत असहाय महसूस करते होंगे। मैं भी बहुत असहाय महसूस कर रहा था। अब विधायक बाबू फिर से घर आने लगे थे। माँ फिर से भोजपुरी गीत में बदलने लगी थी और विधायक बाबू फिर से जब-तब भोजपुरी गीत गुनगुनाने लगे थे। इसके अलावा उन्होंने शहर में घूम-घूम कर भाषण दिया कि मुसलमानों के साथ हिंदू घूमना बंद करें नहीं तो उनका भी दीनानाथ शर्मा वाला हाल होगा। चौराहे तक टहलते हुए जाएँगे और हमेशा के लिए ग़ायब हो जाएँगे। शहर भर में जितने भी हिन्दू मुसलमान लोगों में दोस्ती थी। सब विधायक बाबू के भाषण से टूट गई। हिंदू-मुसलमान की दोस्ती बहुत कमज़ोर थी। उसे तोड़ने के लिए अक्सर भाषण ही पर्याप्त होता था। अब सब हिन्दू मुसलमान एक दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे थे। कोई हिंदू-मुसलमान कहीं भी साथ टहलने नहीं जाता था। सब अकेले-अकेले टहल रहे थे। शहर भर में अकेलापन टहल रहा था।

    तो क्या फिर दंगा हो गया? शिवानी ने बीच में ही बात काटते हुए पूछा। नहीं, दंगे की तैयारी हुई। हर कोई दंगे की गंध सूँघ चुका था। और भीतर ही भीतर सारा शहर दंगे की तैयारी कर रहा था राजीव ने उत्तर दिया।

    राजीव के मन में, दंगे के प्रति शिवानी की इस उत्सुकता को देख कर पाँच छः घटनाएँ एक साथ चलने लगीं थीं। एक घटना में शहर में दंगा हो जाता है और उस दंगे में शिवानी के पापा फँस जाते हैं। कोई उनके सिर पर लोहे की रॉड से वार करता है और वो मर जाते हैं। दूसरी घटना में उसका छोटा भाई कोचिंग से लौट रहा होता है। यकायक शहर में दंगा हो जाता है और वो घर नहीं लौट पाता। वो कहाँ गया किसी को कभी नहीं पता चलता। एक घटना में शिवानी बाज़ार से घर वापस रही होती है और बाजार में अचानक अल्लाह-हू-अकबर, जय श्री राम गूँजने लगता है। शिवानी डर के मारे एक टूटे-फूटे से घर में घुस जाती है। वहाँ एक अधेड़ जो इतना दुःखी है कि बस आत्महत्या ही करने वाला है। शिवानी के साथ बलात्कार करता है। शिवानी ये बात किसी से नहीं बताती है। एक घटना में शिवानी, उसके माँ-बाप और तीनों भाई शहर के बाहर होते हैं। घर पर दादा-दादी अकेले हैं। शहर में दंगा भड़क जाता और एक भीड़ घर में घुस आती है। सारा घर लूट लिया जाता है और दादा-दादी का क़त्ल कर दिया जाता है। एक और घटना में शिवानी की माँ, सलमा बुटीक से साड़ी का फॉल लगवा कर रही होतीं हैं कि शहर में दंगा हो जाता है। उनको एक भीड़ बीच सड़क पर पकड़ लेती है। एक साथ सैकड़ों हाथ उनके शरीर की तलाशी लेने लगते हैं और वो बीच सड़क पे अपने आपको एकदम नंगी पाती हैं। वो लगभग आधा किलोमीटर उसी तरह भागते हुए अपने घर पहुँचतीं हैं। उन्हें अपनी देह में इतने हाथों की महक मिलती है कि वो उन्हें सूँघ-सूँघ कर सुबह तक पागल हो जातीं हैं। राजीव इन सभी घटनाओं को अपने दिमाग़ में एक पाशे में अंकों की तरह लिखता है और दिमाग़ में पाशे को हिला कर जब फेंकता है तो शिवानी की माँ वाली घटना सबसे ऊपर आती है। राजीव शिवानी से कहता है तुम्हारी माँ के साथ बहुत ग़लत हुआ, मुझे उनके लिए अफ़सोस है।

    शिवानी पूछती है, मेरी माँ के साथ क्या हुआ ? राजीव बात वहीं काट देता है, नहीं नहीं कुछ नहीं, बस ऐसे ही। तुम दंगे के बारे में पूछ रही थी ना। तो सुनो पिता जी के गायब होने के एक साल तक दंगे नहीं हुए। दंगों की तैयारी हुई। मुसलमान मुहल्ले से राम नवमी की यात्रा निकाली गई। मुसलमान लड़कों ने फेसबुक पर हिन्दू देवी देवताओं को गाली दी। विधायक बाबू ने ख़ूब सारे भाषण दिए। और शहर भर में लड़के भगवा गमछा गले में डाल कर घूमने लगे। इस बीच विधायक बाबू घर आते रहे और माँ औरत कम भोजपुरी गीत ज़्यादा होती रही। मैं अकेले में जालीदार टोपी पहन कर आईना देखता रहा और इन्हीं सबके बीच वो शाम भी गई किसकी शक्ल 1992 की किसी शाम या 2002 की किसी शाम की तरह मिलती थी। मैंने चौराहे से लौटते हुए देखा कि शब्बीर जेल से छूट गया है। वो अपने हाथों में हुए पंचर बना रहा है।

    मैं : तुम ये क्या कर रहे हो?

    शब्बीर : बम बना रहा हूँ

    मैं : बम इसी तरह बनाते हैं क्या?

    शब्बीर : नहीं! इस तरह तो हाथ में हुए पंचर बनाते हैं

    मैं : तुम पंचर बना कर क्या करोगे

    शब्बीर : इंस्पेक्टर चित्रगुप्त को बम मार दूँगा।

    मुझे शब्बीर की बातों से पता चल गया था कि शहर में दंगे होने वाले हैं। विधायक बाबू घर पर माँ के साथ थे। माँ को बहुत अच्छी तरह से गाने के बाद जब वो अपने घर के लिए निकले तो मैंने उनसे कहा कि चलिए मैं आपको चौराहे तक छोड़ देता हूँ। वो मान गए और उनके पीछे पीछे चल दिया। मैंने अपनी जेब से जालीदार टोपी निकाली और पहन ली। उन्होंने मुझसे पूछा ये क्या पहन लिया? मैंने मुस्कुराते हुए कहा, वही जो आपने किसी को पहना कर उस दिन मेरे पिता जी के पीछे भेजा था। अब तक हम मोड़ से मुड़ चुके थे और चौराहे पर लगे सीसीटीवी कैमरे में मेरी पीठ और जालीदार टोपी रिकॉर्ड हो चुकी थी। वहाँ बिल्कुल अंधेरा था। अब हम कैमरे की नज़र से ओझल थे। मैंने विधायक जी के सीने में सब्ज़ी काटने वाला चाकू उतार दिया। वो कुछ समझ पाते तब तक दो तीन वार हो चुके थे। वो जमीन पर तड़पते हुए गिर पड़े थे। मैंने ज़ोर से अल्लाह हू अकबर का नारा लगा रहा था। उसी समय शब्बीर ने थानेदार चित्रगुप्त को बम मार दिया। दो-तीन घंटे में शहर भर में सीसीटीवी का वीडियो, जिसमें विधायक बाबू किसी जालीदार टोपी वाले शब्बीर के कद काठी के लड़के के साथ चले जा रहे हैं, फैल गया। शब्बीर ने इंस्पेक्टर चित्रगुप्त को बम मार दिया है। व्हाट्सएप ने ये भी सारे शहर को बता दिया। सारा शहर रात भर नहीं सोया। रात भर सारा शहर दंगा-दंगा खेलता रहा। अगली शाम तक सैकड़ों घर जले और 45 लोग मारे गए। जिसमें 12 हिंदू 33 मुसलमान थे। जो 12 हिंदू थे उसमें एक मेरी माँ भी थी। हुआ यूँ था कि मैं चौराहे से सीधा अपने घर पहुंचा था। शहर जग रहा था। शहर के सर पर दंगे की ज़िम्मेदारी थी। वो सो कैसे सकता था। मैं जालीदार टोपी लगाए हुए था। हाथ में वही सब्ज़ी वाला चाकू था जिससे मैंने विधायक बाबू को मारा था। मैंने उसी से माँ को मार दिया। मारते वक़्त मुझे माँ से ज़्यादा दर्द हुआ था। मैं माँ से ज़्यादा रोया था। मैंने माँ से कहा, माँ मुझे माफ़ करना। माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरा और मुझे माफ़ कर दिया। मैं शहर को बताना चाहता था कि मेरे घर में एक पगलाई हुई भीड़ घुस आई थी जिसने मेरी माँ को और मुझे मारा और मेरे घर को आग लगा दिया। इसलिए मैंने घर में आग लगा दी और शहर छोड़ कर यहाँ तुम्हारे शहर भाग आया।

    शिवानी, राजीव के अतीत में खो-सी गई थी। राजीव मौन हो चुका था। पार्क में अँधेरा बढ़ने लगा था। आज की मुलाक़ात का समय ख़तम हो रहा था। शिवानी ने आख़री सवाल किया, क्या यही है तुम्हारा अतीत, जिसे तुम मुर्दों का अजायबघर कहते हो? जिससे तुम्हें चिढ़ है। जो तुम्हें परेशान करता है।

    राजीव ने उत्तर दिया, नहीं यह मेरे अतीत की छाया है। उसका प्रतिबिंब। जैसे हमारा भविष्य कुछ और होता है पर हम उसे कल्पना में कुछ और देखते हैं, वैसे ही हमारा अतीत कुछ और होता है, हम उसे किसी और तरह याद रखते हैं। कुछ घटनाओं में बदलाव कर देते हैं। कुछ को भुला देते हैं। कुछ अपने मन से गढ़ लेते हैं और घटनाओं की जो मिश्र धातु बनती है, उसी में अपना अतीत ढाल लेते हैं। ये उस नियंता, उस ईश्वर के प्रति हमारा विरोध होता है। हर कोई यह विरोध करता है, कोई ज्यादा-कोई कम।

    राजीव ने एक गहरी साँस ली और एक लम्बे वृतांत की ओर बढ़ गया, “शिवानी, जानती हो ईश्वर एक जुआरी है, जिसके पास हमारी किस्मत गिरवी रखी हुई है। वो चौसर की बिसात पर बैठा हमारे जीवन का दाँव लगा रहा है। जब हम पैदा हुए तो हमारे गर्भ में आते ही उसने दो पाशे फेंके थे। एक पाशे में ‘एक्स क्रोमोज़ोम’ लिखा था और दुसरे पाशे में ‘वाई क्रोमोज़ोम’। एक्स-वाई, आने से लड़का हुआ ही ‘एक्स-एक्स’ आने से लड़की। पर कुछ विद्रोही हो सकते हैं जो लड़की होना स्वीकार करें और लड़के की तरह जियें और कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो लड़के होकर भी लड़की बनकर जियें। इसके लिए उन्हें एक झूठ गढ़ना पड़ता है और उस पर ईश्वर के होने जितना अंधा यक़ीन करना होता है। इस तरह वो यक़ीन ईश्वर में तब्दील हो जाता है और ईश्वर के सामने उसे चुनौती देता हुआ खड़ा हो जाता है। कई बार ये झूठ इतना ताक़तवर हो जाता है कि सत्य को भी हरा देता है, क्योंकि ईश्वर भी सत्य का ही रूप है, इसलिए ईश्वर भी इस झूठ के सामने हार जाता है।”

    राजीव बोलता जा रहा था, बिना रुके बोलता जा रहा था, मानो वह प्रकृति का नया नियम बता रहा हो। उसका एक-एक वाक्य ईश्वर को चुनौती था। एक एक शब्द ब्रहम्शब्द। शिवानी को समय की सुध रही, मानो किसी पेड़ में बदल गई हो, जो उसी पार्क का हिस्सा हो। यहीं उसका घर हो और दुनिया भी। उसे यहाँ से कहीं जाना ही हो। राजीव अपनी लय में बोलता जा रहा था...

    हमारे जीवन की हर फिनोमिना की एक ‘ग्रांड इवेंट’ होती है, जो बाइनरी या बनाम की मोहताज है। जैसे आख़िरी में या तो हम ख़ुश रहेंगे या दुखी, जीतेंगे या हारेंगे। मिल सकेंगे या बिछड़ जाएँगे, अमर होंगे या मर जाएँगे। पर इन दो विकल्पों के बीच भी बहुत कुछ है जिसके रास्ते नियति में सेंध लगाई जा सकती है। परमुटेशन-कॉम्बीनेशन की एक श्रृंखला है, जो इस बाइनरी प्रॉबिबिलिटी को धता बता सकती है और ईश्वर को हरा सकती है। अब देखो, अतीत क्या है? इतिहास। और इतिहास क्या है? एक कहानी। कहानी क्या है? तथ्य और कल्पना का घालमेल। हमें जैसा बताया गया वैसा ही इतिहास पता है। वैसा ही हमारा अतीत हमें मालूम है। ज़रुरी नहीं जो जैसा बताया गया वैसा ही हुआ हो। इसका मतलब ये नहीं कि जो बताया गया सब झूठ ही है। पर सब सही और सत्य है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। तो सत्य और झूठ के बीच बहुत सारे परमुटेशन-कॉम्बीनेशन हैं घटनाओं के, जिससे यथार्थ का निर्माण होता है।

    शिवानी के चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो कह रही हो कि राजीव तुम्हारी बातें बहुत गूढ़ हैं। समझ नहीं रही हैं, कोई उदाहरण देकर समझाओ। यह बात राजीव ने पढ़ ली। राजीव को चेहरा पढ़ना आता था। उसने उदाहरण देने की गरज से एक कहानी शुरू की। रंडी बाबा की कहानी। वह कहानी जिसमें एक रंडी की औलाद ईश्वर में तब्दील हो जाता है। देवता बन जाता है। लोक उसे पूजता है। पुरुष पौरुष माँगते हैं। स्त्रियाँ उनसे अपनी रक्षा करने की विनती करती हैं। किसान अच्छी फ़सल और बेहतर बरसात माँगते हैं। पर जब वे जीवित थे तो वो गाँव वालों से रोटी माँगते थे और गाँव वाले उन्हें गाली देते थे। यह ईश्वर की बनाई नियती थी, जिसे रंडी बाबा ने बदल दिया। ईश्वर ने उन्हें ऐसा जीवन दिया जो मृत्यु से बद्तर था। अर्थात उन्हें जीवन देकर भी जीवन से वंचित रखा गया था। रंडी बाबा से इस सच के सामने अपना एक झूठ रखा कि वे अमर हैं और सच में एक दिन वे अमर हो गए और देवता में बदल गए।

    बात जाने कब की है, पर बहुत पुरानी बात है। इतनी पुरानी बात कि आदमी मर के देवता हो सकता था। एक गाँव था जो बाद में मेरा शहर बन गया। उसी गाँव में एक तवायफ़ रहती थी। उसकी एक औलाद हुई, जिसके नाम की किसी को कोई फिकर नहीं थी। लोग उसे रंडी की औलाद कहते थे। जब तक उसकी माँ जीवित थी। वह अपनी माँ के साथ गाँव के बाहर रहता था। उसके मन में धन, सम्पत्ति और स्त्री-देह के प्रति एक वैराग्य गया था। इसका कोई आध्यात्मिक कारण नहीं था। इसकी सीधी-सी वजह थी कि उस बच्चे ने बचपन से ही अपनी माँ को देह बेचते देखा था, जिससे उसके मन में निर्वस्त्र स्त्री की कल्पना करते ही माँ का भाव जागता था और धन-संपत्ति के प्रति वैराग्य का कारण यह था कि इसकी वजह से और इसी के बल पर उसकी माँ की देह एक दुकान में बदल गई थी। वह जब अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पूछता तो उसे सिवाय मौन के कुछ मिलता। लोग कहते उसके सैकड़ों बाप हैं पर उसका पिता कोई नहीं है। उसने इन सबका सीधा मतलब निकाला कि वह ईश्वर की संतान है और इसलिए मर नहीं सकता। वह अमर है और उसे किसी अस्त्र-शस्त्र से मारा नहीं जा सकता। आग जला सकती है और पानी डुबा सकता है। इस झूठ पर उसने इस तरह यक़ीन किया कि वह उसका निजी सत्य बन गया, जो ईश्वर की नियति से ज्यादा ताक़तवर था, जो ईश्वर को चुनौती देने के लिए तैयार था।

    समय बीतने के साथ जैसे-जैसे वह बच्चा बूढ़े में तब्दील हुआ और उसके वैरागी चरित्र के चलते लोग उसे न्यूनतम सम्मान देने लगे तो उसका नाम रंडी की औलाद से, रंडी बाबा पड़ गया। पर अभी वो भगवान नहीं बने थे। अभी वो अमर नहीं हुए थे। अभी उन्होने ईश्वर को मात नहीं दी थी। अभी उनके जीवन की ‘ग्रांड इंवेट’ नहीं घटी थी। लोग उनको नपुंसक करते, पौरुष से हीन। डरपोक, कायर और जाने क्या क्या। पर हर समय उनके मन में बस एक ही बात गूँजती रहती थी कि वह अमर हैं।

    इन सबके बीच उनके जीवन की ग्रांड इवेंट घटी। गाँव पर डकैतों का हमला हुआ। पूरी रात डकैती चलती रही। गाँव के बीचों-बीच गाँव के सभी लोग एकत्र किए गए। पुरुषों को एक तरफ किया गया और स्त्रियों को एक तरफ। स्त्रियों में बूढ़ी स्त्रियों को अलग और जवान स्त्रियों, लड़कियों और बच्चियों को अलग। जवान स्त्रियों, लड़कियों और बच्चियों में सुंदर को अलग और कुरुप को अलग। सुंदर और कुरुप के डाकुओं के अपने पैमाने थे। जब सब वर्गीकरण हो गया तो एक-एक करके डाकू स्त्रियों के साथ बलात्कार करने लगे। जो पुरुष अपने आप को पौरुष की खान समझते थे, वे अपने प्राण बचाए भय में डूबे एक तरफ खड़े थे। स्त्रियाँ चित्कार कर रहीं थीं। दृश्य विभत्स और भयावह था। मर्दानगी का दंभ भरने वाले पुरुष अपनी स्त्रियों को असहाय छोड़ चुके थे। तभी रंडी बाबा के भीतर से आवाज आई, “तुम अमर हो !” संकट में फँसी निर्वस्त्र स्त्रियाँ उन्हें उनकी माँ दिखने लगीं। उनकी भुजाओं में जाने कहाँ से शक्ति उतरी। उनका हृदय साहस से भर गया और वो निर्भय हो डाकुओं के समूह में कूद पड़े। पलक झपकते ही रंडी बाबा किसी योद्धा में बदल गए। वो काल की तरह हमलावर थे। उन्होने दूसरे ही क्षण डाकुओं के सरदार की गर्दन में बरछी उतार दी। वह भूमि पर पड़ा त़ड़पने लगा। देखते ही देखते उन्होंने बीसों डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया। वह महाकाल की तरह संहार कर रहे थे। उन्हें मृत्यु का भय नहीं था। उन्हें विश्वास था, वे मर नहीं सकते। इसलिए वे निर्भय हो लड़ रहे थे। डाकू इस अकस्मात हमले और साहस से भयभीत थे। उनके हृदय का भय उनके चेहरों पर उतर आया था और इस भय को जैसे ही पुरुषों और स्त्रियों ने पढ़ा, वे समूहिक संघर्ष करने लगे। डाकू इस समूहिक संघर्ष के आगे भाग खड़े हुए। और जब सबकुछ थमा, सबकुछ शांत हुआ लोग रंडी बाबा की जयकार करते हुए उन्हें खोजने लगे। तभी लोगों ने पाया, बाबा खलिहान के एक कोने में मृत पड़े थे। बहुत सारे जख़्म हुए थे। उनकी मृत्यु हो चुकी थी, पर वे मरे नहीं थे। वे अमर हो गए थे। उसी दिन से लोग उन्हें देवता मानने लगे थे। उसी दिन से लोग उन्हें ईश्वर की तरह पूजने लगे थे।

    रंडी बाबा अमर हो गए और यह सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें लगता था कि वे अमर हैं। वे इस बात पर इतना यक़ीन करते थे कि उन्होंने नियति और नियंता दोनों को पराजित कर दिया और अमर हो गए।

    शिवानी अभी भी राजीव की बातों में खोई हुई थी। अंधेरा गाढ़ा हो चला था। पार्क में एक सूनापन पसरने लगा था। कुछ देर में चौकीदार की आमद होनी थी, जिसका काम यह निश्चित करना था कि पार्क में कोई रह जाए।

    ऱाजीव को इस अँधेरे में अब शिवानी का चेहरा नहीं दिख रहा था और उसकी आँखें ही। बस एक धुंधली आकृति दिख रही थी, जो एक पेड़ का तना होने का भ्रम पैदा करती थी। राजीव ने पूछा, “तो देखा कैसे, किसी बात पर यक़ीन करने से अतीत और इतिहास बदल जाता है। ईश्वर हार जाता है। नियति निष्फल हो जाती है। इस तरह आपका निजी सत्य यथार्थ पर विजय प्राप्त कर लेता है। शिवानी ने एक अजीब आवाज में पूछा, क्यों? यह आवाज़ जाने किस जीव की आवाज़ थी, कम से कम मनुष्यों की आवाज़ तो नहीं ही थी। राजीव ने इस तरह उत्तर देना शुरु किया जैसे किसी निबंध का उपसंहार पढ़ रहा हो, “हम जो कुछ भी अतीत मानते हैं, सत्य समझते हैं, वह कहानियों से बना है। इन कहानियों ने ही हमारा यथार्थ बुना है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा ‘ज़रुरी नहीं जो जैसा बताया गया है, वैसा ही हुआ हो’। कारगिल के युद्ध का इतिहास या अतीत हमारे लिए कुछ और है और पाकिस्तानियों के लिए कुछ और, क्योंकि हमें कुछ और कहानी सुनाई गई और पकिस्तानियों को कुछ और। रामायण जैसी राम को मानने वालों के लिए है, वैसी रावण को मानने वालों के लिए नहीं। रावण को मानने वालों के लिए सीता हरण, रावण वध, यहाँ तक की प्रत्येक घटना की अलग कहानी, अलग व्याख्या है। इसलिए उनका इतिहास अलग है और राम को मानने वालों का अतीत अलग। राम को मानने वालों का इतिहास भिन्न है और रावण को मानने वालों का इतिहास भिन्न। होने को तो यहाँ तक हो सकता है कि रावण कोई स्त्री हो और सीता कोई पुरुष। कुछ भी हो सकता है। और कुछ अलग होने पर, एक भी घटना भिन्न होने पर सब बदल जाएगा। अतीत और इतिहास सब।

    शिवानी की धुँधली छाया अब और धुँधली हो चुकी थी। राजीव को दूर चौकीदीर की आकृति उसकी तरफ़ रेंगती हुई दिखी। उसकी साँसें अचानक तेज़ हो गई। वह एक साँस में तेजी से कुछ बड़बड़ाने लगा, “मैंने जो तुम्हें कहानी सुनाई जरुरी ये भी नहीं कि वह ही सत्य हो। ज़रुरी नहीं, जो घटनाएँ बताईं ठीक वैसे ही घटनाएँ घटी हों। हो सकता है स्वाति की जगह राजीव ने खीर खाई हो और स्वाति की जगह राजीव मर गया हो। राजीव के मरने के बाद स्वाति ने तय किया हो कि वह अब लड़का बन कर रहेगी और उसने अपना नाम राजीव रख लिया हो। हो सकता है सच में राजीव और स्वाति की माँ को दंगाईयों ने दंगे में मार दिया हो। हो सकता है विधायक कोई स्त्री हो और पिता जी को भोजपुरी गाने की तरह गाती रही हो। हो सकता है शब्बीर किसी हिंदू लड़के का नाम हो और उसका नाम की वजह से उसकी हथेलियाँ छेद दी गयीं हों। हो सकता है दंगे सरकार ने करवाए हों, हो सकता है तुम कोई लड़का हो और लड़की बनकर मुझसे मिलने आई हों। हो सकता है मैं कोई लड़की हूँ और लड़का बनकर घूम रही हूँ। होने को कुछ भी हो सकता है। हो सकता है कि अभी ये जो चौकीदार हमारे पास रहा है, वो आते ही मुझे दो लाठी मारे और तुम्हें पेड़ का तना कह दे। मैं उसे एक पागल लड़की दिखूँ और तुम नीम का पेड़। पर हमको दुनिया से मतलब नहीं रखना, हमें अपनी कहानी और अपने निजी सत्य पर इतना यक़ीन करना है, इतना यक़ीन करना है कि ईश्वर हार जाए। नियति निष्फल हो जाए। यथार्थ बदल जाए।

    कुछ देर में चौकीदार जाता है और उसे भगा के बड़बड़ाते हुए गुजर जाता है, “ये पागल लौंडिया, जब देखो लौंडों जैसे कपड़े पहनकर जाने कहाँ से जाती है और पेड़ पर चुनरी डाले भगवान जाने क्या बतियाती रहती है।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : वनमाली पत्रिका (संयुक्तांक) (पृष्ठ 20)
    • संपादक : मुकेश वर्मा
    • रचनाकार : अनुराग अनंत
    • संस्करण : नवंबर-दिसंबर 2022

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