संबंध

sambandh

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    शायद मरते वक़्त वह खिलखिलाकर हँसा था, मन में पहला विचार यही आया। बाक़ी खोपड़ी कुछ इस तरह से जलकर काली पड़ गई थी, और आस-पास की खाल कुछ ऐसे वीभत्स रूप से सिकुड़ी हुई थी कि सिर्फ़ बत्तीसी की सफ़ेदी ही पहली निगाह में दीखती थी और बाक़ी चेहरा देखो तो यही भ्रम होता था कि वह हँस रहा है। शायद 'ममी' का चेहरा भी ऐसा ही लगता होगा।

    गेरू-पुती उस बिल्डिंग के बरामदे और फिर काली सड़क पर लोगों की भनभनाहट गुँथकर चंदोवे की तरह तन गई थी, जिसे संबंधियों और परिवार वालों का रोना-पीटना खंभों की तरह ऊपर उठाए था। सभी कोई चंचल और आंदोलित थे, लेकिन एक सकते से स्तब्ध। मैं पीछे वालों का आग्रह झेलता हुआ गर्दन ताने बीच के गोले में झाँकते रहने में सफल हो गया था। लाल पत्थर की पेटियों वाले फ़र्श पर बीचों-बीच, सफ़ेद चादर से ढंकी वह लाश लेटी थी। चादर पर जगह-जगह ख़ून और तेल के दाग़ लगे थे और वह मैली थी। अभी कोई अठारह-बीस साल की युवती उस पर दहाड़ मारकर रोते हुए गिरी थी और इससे विचलित होकर कुछ दुर्बल-हृदय मुँह तोड़कर भीड़ से बाहर निकलने के लिए छटपटाए थे, तभी मौक़ा देखकर मैं भीतर घुस गया था। उस समय दो-तीन औरतें उसे, जो साफ़ ही मृतक की पत्नी थी, गोद में भरकर उस लाश से अलग कर रही थीं, इस प्रयत्न से चादर खिंच गई थी और लाश का चेहरा दीखने लगा था, जिसे पास ही उकडूँ बैठे दो व्यक्तियों ने फिर ठीक कर दिया था। चादर की सिकुड़नें ठीक होते ही टूटी गहरी कत्थई चूड़ियों के टूकड़े सरककर लाश की अगल-बग़ल ज़मीन पर गिरे थे। चादर की बुनाई के रेशों में फैलकर कई सुर्ख़ दाग़ निहायत बेढंग हो गए थे और यह जान पाना मुश्किल था कि चूड़ियों के टूटने से, कलाई से निकले ख़ून के हैं, सिंदूर है या लाश के शरीर से निकले रक्त के पहले दाग़ हैं। छूकर देखने से ही पता चलता कि ताज़े हैं या पुराने, देखने में ही ताज़े लगते थे।

    ...या तो मरते वक़्त वह खिल-खिलाकर हँसा था या हँसते-हँसते मरा था, मैं अभी भी यही सोच रहा था। लेकिन दोनों में से एक भी बात की संभावना नहीं थी। स्तब्ध और चुप रहकर देखता रहा। वीभत्स और भयानक का भी अपना एक सम्मोहन होता है, ठीक अश्लीलता की तरह—मन की बनावट और संस्कार विद्रोह करते रहते हैं, लेकिन कुछ है जो बाँधे रहते हैं। आतंक, आशंका या दृश्य की भयानकता के कारण एक मितली-सी बार-बार उठकर गले तक जाती थी...लेकिन लगता था, जैसे बाहर के दृश्य का सारा अरुचिकर मेरे भीतर उतर आया है और दिमाग़ में एक के ऊपर एक काटती आवाज़ें एक के ऊपर एक फेंकी जा रही हैं—विभिन्न कोणों से फेंके भालों की तरह...

    हटो, हटो...इस तरह लदे क्यों रहे हो? कभी-कभी कोई सिपाही, सफ़ेद लंबा कोट पहने अपने अस्पताल की नर्स या कोई नीली वर्दीधारी कर्मचारी डाँटकर भीड़ को पीछे ठेल देता...भीड़ एक औपचारिक ढंग से पीछे हटती और फिर वहीं दमघोंटू घेरा सँकरा होने लगता।

    दोनों घुटनों पर कुहनियाँ रखें, सामने की ओर हाथ फैलाए बैठा सूनी भावहीन नज़रों से कहीं भी देखता आदमी या तो लाश का बाप है या पंद्रह-बीस वर्ष बड़ा भाई, यह किसी के बताए बिना भी साफ़ था। साँवले चेहरे पर सफ़ेद-सफ़ेद झाग-जैसे बाल थे, यानी हजामत कई दिनों से नहीं बनी थी और मटमैली आँखों में लाल डोरों का जाल था, नीचे के पपोटों में गोलियाँ-जैसी लटक आई थीं। सिर पर खिचड़ी बालों के बीच छोटा-सा गंज-द्वीप था, चेहरे पर ख़ून नहीं था। क़मीज़ और धोती पहने इस तरह बैठा था, जैसे कोयलों के जल के बाद राख के आकार रह गया हो और ज़रा छूने से ही ढह जाएगा।

    पाँच साल पहले इसका बड़ा लड़का पानी में डूबकर मर गया था...। किसी ने बताया, क्या क़िस्मत का खेल है...! दो लड़के थे और दोनों ही नहीं रहे...। अब मेरी समझ में आया कि वह बाप ही है। किसी दफ़्तर में हैड-क्लर्क है।

    हाय...हाय...! सुनने वाले ने बड़ी गहरी साँस ली, हे भगवान, कैसी मिट्टी बिगड़ी है बुढ़ापे में, रिटायर होने में पाँच-सात साल होंगे..।

    मैं भी यही सोच रहा था। पूछा, लड़के की उम्र क्या थी?

    अजी कुछ भी नहीं, मुश्किल से बाईस-तेईस साल का होगा...पिछले जाड़ों में ही तो गौना हुआ था...। सफ़ेद छल्ले वाले माइनस-सात के काँचों में आँखें मिचमिचाकर उस व्यक्ति ने बताया। ज़रूर चश्मा उतारने के बाद उसे तलाश करने में इसे बहुत दिक़्क़त होती होगी।

    पता नहीं इन लोगों का मानसिक स्तर कैसा है, विधवा-विवाह करेंगे भी या नहीं? इनका पता ले लें तो बाद में विधवा-विवाह के तर्क में अच्छी-सी किताब पोस्ट से भिजवाई जा सकती है। मैंने सोचते हुऐ मानो इसी निगाह से बीच की खुली जगह के किनारे एक बुढ़िया की गोद में पड़ी एक बहू को देखा, उसकी साड़ी ज़मीन पर बिखरी थी, हरे ब्लाउज़ के बटन खुले थे, लेकिन उसे शायद होश ही नहीं था...चेहरे पर पसीने, आँसुओं और बिखरे बालों का ऐसा गुंजलक चिपक गया था कि पता ही नहीं लगता था—मुँह नीचे की ओर है या ऊपर...बुढ़िया ने उसे इस तरह गोद में भर रखा था कि वह छूटकर फिर लाश पर जा गिरेगी...बाद में यही बुढ़िया इसे गालियाँ दिया करेगी, बर्तन मँजवाएगी और कपड़े धुलवाएगी। मेरा अनुमान ग़लत था।

    माँ ज़मीन पर सिर फोड़-फोड़कर रो रही थी और देवी चढ़ आने पर झूमने वाली चुड़ैल जैसी लगती थी, सारे वातावरण में उसी की बोली लगातार और ऊँचे स्वर में सुनाई पड़ती थी, बाक़ी बोलियाँ किधर से रही थीं, यह जानना मुश्किल था। उसका गला बैठ गया था और उसकी आवाज़ से कभी-कभी कुत्ते और गाय की बोली का भ्रम होता था, हाय...हाय, अब मैं किसके लिए जिऊँगी...इस बिचारी को किसके लिए छोड़ गया बेटा...इनसे कहा था—रुपए दे आओ, रुपए दे आओ, अब रुपयों की छाती पर रखकर ले जाना...अरे, मेरे जवान-जमान बेटे को चीर डाला इन डॅाक्टरों ने...अरे इनके बेटे भी इनकी आँखों के सामने यों ही मरेंगे... वह लंबी लय के साथ रो रही थी। मैंने सोचा, ये औरतें रोते हुए गाती हैं और गाने में रोने की बातें करती हैं।

    तभी किसी बड़ी-बूढ़ी ने उसे टोक दिया, अरी, पता नहीं किस जनम के सराप का फल तो तुम अब भोग रही हो कि जवान-जमान बेटे यों उठ गए। अब क्यों किसी को कोसती हो? ज़रा-सा धीरज धरो।

    अरे, मैं कहाँ से धीरज धरुँ...? मेरे दोनों पाले-पनासे बेटे चले गए...हाय, हाय ज़रा इंजेक्शन लगवाओ, अभी तो साँस बाक़ी है...अब कौन सुबह उठकर जलेबी की ज़िद करेगा...कौन मेरे हाथ-पाँव दबाकर सिनेमा के पैसों के लिए ख़ुशामद करेगा..अभी तो शादी की हल्दी भी बदन से नहीं उतरी है... और उसने फिर झपटकर चादर के नीचे से लाश का काला पड़ा हुआ हाथ निकाल लिया और उसे अपनी छाती से चिपकाकर ज़मीन पर बिखर-बिखरकर रोने लगी...

    लाश पर एकाध आदमी यों ही हाथ से हवा कर देता था, जैसे मक्खियों को हटा रहा हो। फैलती बदबू से लगता था कि कई दिनों पहले मरा है। मैंने मन को दिलासा दिया कि बेचारी माँ का दिल है, उसे तो एक-एक बात याद आएगी ही और वह यों ही ज़िंदगी-भर रोएगी। आस-पास की दो-एक औरतें लय बाँधकर रोने के बीच में ही कभी-कभी बोल देती थीं, अरे, मुझसे आकर बोला था—चाची, बहुत दिनों से तुम्हारे हाथ का सरसों का साग नहीं खाया है...हाय, अब मैं किसे खिलाऊँगी... मैंने सोचा, घर के रोने वाले काफ़ी कम हैं। शायद अभी सब लोगों तक ख़बर नहीं पहुँची है या हो सकता है, ये ही इस नगर में नए हों...अभी तो मुहल्ले-पड़ोस के लोग ले-दे भागे रहे हों...शायद तय नहीं कर पाए होंगे कि कौन-से कपड़े पहनें, पीछे कौन रहे या किसका वहाँ ज़्यादा ज़रूरी है, अस्पताल जाएँ या सीधे शमशान ही पहुँचे। कपड़ा ढँकी लाश कैसी आतंकस्पद लगती है...मैं ज़रा पीछे हट आया, एक तो पीछे के दबाव को संभालना कठिन हो गया था, दूसरे, बहुत देर खड़े रहने से घबराहट होने लगती थी...मान लो, लाश की जगह मैं होता तो आस-पास रोने वालों में कौन-कौन होते? इस विचार से सामने के ग़मगीन लोगों के चेहरों की जगह मुझे अपने एक-एक परिचित का चेहरा याद आने लगा; कल्पना बहुत ही कष्टदाई लगी। मैंने सोचना बंद कर दिया और बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने लगा।

    “यों समझो, गोद-गोदकर मारा है।” भीड़ के बाहरी सिरे पर अस्पताल का जमादारनुमा आदमी बता रहा था।

    “लेकिन बदन तो ऐसा काला पड़ गया है जैसे जल गया हो!” किसी ने पूछ लिया।

    “अरे, धूनी दी होगी। ऊपर पेड़ से लटकाकर नीचे से आग जला देते हैं। देखा नहीं, चेहरा कैसा बैंगन की तरह जल गया है!” तीसरे ने बताया।

    “सुनते हैं, चिट्ठी आई थी, दस हज़ार फ़लानी जगह पहुँचा दो, वरना लड़के को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। पुलिस को ख़बर की तो ख़ैर नहीं है...।” आधी बाँहों की क़मीज़ और नेकर पहने साइकिल लिए एक भारी-से सज्जन जिस अधिकार से बता रहे थे उसी से लगता था कि एक ही मुहल्ले के हैं, उनको ख़बर लग गई होगी कि पिछले साल ही गौना हुआ है, सो नकदी सोना कुछ-न-कुछ तो होगा ही...”

    “किसी ने ख़बर कर दी होगी,” धूप से आँखों की आड़ करते हुए दूसरे ने राय दी।

    “अरे साहब, उनके मुख़बिर सब जगह लगे होते हैं, मिनट-मिनट का हाल उन तक पहुँच जाता है...।” हम दोनों ने एक-दूसरे को इस तरह देखा कि हम में मुख़बिर कौन है?

    “हाँ साहब, फिर...फिर क्या हुआ?” इन बेकार की बातों के बीच में जाने से झल्लाकर किसी बेचैन श्रोता ने सवाल किया।

    “फिर क्या?” वे सज्जन बताने लगे, “दो-तीन दिन तो बेचारों ने इसी सोच-विचार में निकाल दिेए कि रुपयों का इंतज़ाम करें तो करें कैसे? पंद्रह-बीस साल की नौकरी हो गई तो क्या हुआ? तुम तो जानते हो, आज के ज़माने में इतना रुपया है किसके पास? फिर कोई सेठ-साहूकारों हों तो बात दूसरी है। नौकरी-पेशा आदमी बेचारा महीने के ख़र्चें ही कैसे पूरा करता है, हम जानते हैं। जितना सोचा था, लड़के की शादी में उतना मिला नहीं। जो जोड़ा था, वह लड़कियों कि शादी में लगा चुके थे—ऊपर से क़र्ज़ा और था...मगर साहब, लड़के की जान का मामला ठहरा...हाथ-पाँव जोड़कर, किसी तरह माँग-जाँचकर रुपए जमा किए, फिर किसी हम-तुमवार ने समझा दिया होगा या पता नहीं क्या दिमाग़ में आई कि चुपके से पुलिस में जाकर ख़बर कर दी...

    “च्च् च्च् हरे राम-राम!” कई एक साथ बोले, “बस, यही ग़लती कर दी...अरे भाई, पुलिस वाले साले तो ये सब कराते ही हैं। उनसे मिले ही रहते ही हैं। उनसे मिले रहते हैं। और इस तरह के, उठकर ले जाने वाले डाकू तो समझो, बड़े चौकन्ने होते हैं। जहाँ उन्हें ऐसा कुछ, शक हुआ कि फिर तो बोटी-बोटी काट देते हैं...पिछली बार सुना नहीं था...”

    काफ़ी भीड़ इधर ही मड़ आई थी और साँस रोके यह क़िस्सा सुन रही थी। बात किसी और क़िस्से में बह जाएगी, इस अधीरता से झल्लाकर किसी ने नेकर वाले से पूछा, “तो फिर...फिर क्या हुआ?”

    बस साहब, ये रुपए रख आए और पुलिस ने मोर्चा साध लिया...घंटा, दो घंटा, तीन घंटा...कोई रुपए लेने ही नहीं आया।”

    “कोई नहीं आया?” भीड़ में सामने वाले ने पूछा।

    “उन्हें तो पता लग गया न...वो क्यों आते?” नेकर वाला बोला, “दूसरे दिन ही चिट्ठी गई कि आपने हमारे साथ धोखा करके पुलिस को ख़बर कर दी, अब हमारा कोई दोष नहीं है...” यहाँ सुनाने वाले ने गहरी साँस ली, “सो बेचारे को मार-मारकर कल रात को नाले पर डाल गए...यों देखो कि एक-एक इंच पर चोट के निशान हैं...।”

    “और रही-सही कसर, पोस्टमार्टम के नाम पर डॉक्टरों ने पूरी कर दी। किसी ने जोड़ा। शायद सभी का यही ख़्याल था कि पोस्टमार्टम या डॉक्टरी रिपोर्ट का अर्थ एक-एक अंग चीर-फाड़कर देखना है।

    सारी भीड़ पर नए सिरे से एक आतंक का आलम तारी हो गया...और जैसे सब अपने-अपने बच्चों की बातें सोचने लगे। वपहला ख़याल मुझे भी यही आया, चलो अच्छा है, मेरे बच्चे यहाँ नहीं हैं; फिर सोचा, लेकिन ऐसे दल तो वहाँ भी होंगे। आज ही चिट्ठी लिखूँगा—बच्चों को एकदम बाहर मत निकलने देना...

    “पहली चिट्ठी तो लड़के के हाथ की ही बताते हैं।” किसी ने कुछ देर छाई दमघोंटू चुप्पी को तोड़ा।

    “मार-मारकर लिखवाई होगी। समझदारी से, मुँडासा बाँधे एक नंबरदार जैसा आदमी बोला, “इन लोगों को दया-माया थोड़े ही होती है...”

    ऐसे समय क्या बोलना चाहिए, यह तय करना बड़ा ही मुश्किल है। मैंने समझदारी से कहा, “वो तो कहो, लड़का था, सो मार दिया; लड़की होती तो पता नहीं बेचारी की क्या दुर्गत करते...किसके हाथों कहाँ जा बेचते...” लेकिन शायद यह मन-ही-मन कहा, क्योंकि किसी पर कोई असर नहीं हुआ। वहीं मुँडासे वाला समझा रहा था, “ऐसा वक़्त गया है कि चोर-डाकू बने तो क्या करे? गेहूँ साठ रुपए मन हो गया है, खाना-पीना मिलता नहीं। बरसों इस दफ़्तर से उस दफ़्तर चक्कर मारो, नौकरी को कोई पूछता नहीं। अभी तो और होगा, तुम देखते रहना।” मैंने उसे ग़ौर से देखा—कहीं यह व्यक्ति भी तो डाकुओं में से नहीं है। वे इसी तरह आदमियों को भेज देते हैं और सारी जानकारी इकट्ठी करते रहते हैं...उसकी बात पर जो आदमी सबसे अधिक मुग्ध-भाव से सिर हिला रहा था वह बिना क्रीज़, गंदी पतलून, बनियानहीन क़मीज़ में अधेड़-सा दिखाई देता था। या तो वह ख़ुद बेकार था, या उसका बेटा-भाई काफ़ी दिनों से बेकार बैठा था, मैंने अनुमान लगाया।

    अब भीड़ डाकुओं के क़िस्सों और उसके कारण में भटक गई थी। उस क्षण शायद सबका ध्यान पास पड़ी लाश और रोते हुए घर वालों की तरफ़ से हट गया था। लाल बिल्डिंग की आड़ में धूप से बचकर खड़े-खड़े मैं तय नहीं कर पाया था कि अब यहाँ खड़ा रहूँ या चल दूँ। बड़ी देर कोशिश करने पर भी याद नहीं आया कि मुझे जाना किधर है। अब यहाँ तो होना-जाना कुछ नहीं है। हालत बहुत बुरी होती जा रही है, आदमी का सुरक्षित चलना- फिरना मुहाल हो गया है। चलते-चलते मैंने उससे कह, “लेकिन इस तरह आदमी को जान से मार डालने से उन्हें क्या मिला? रुपया तो मिला नहीं, उल्टे एक आदमी जान से हाथ धो बैठा।”

    “अब आगे कोई पुलिस में ख़बर देने या माँगा हुआ रुपया देने से पहले कई बार सोचेगा तो सही।” उसने तड़ाक्-से जवाब दिया। हाँ यह बात भी काफ़ी वज़नदार हैं, मैंने सोचा और जगह छोड़ने से पहले मन में प्रलोभन आया, एक बार उस लाश को भी देखता चलूँ, हालाँकि जानता था—वहाँ ऐसा नया कुछ भी नहीं है। दो आदमियों के बीच में से जगह बनाकर भीड़ में घुसा तो फिर वही घेरा था...वही लाल-पत्थरों के फ़र्श पर पड़ी पतली-सी लाश थी और चार-पाँच रोने वाली औरतों की आवाज़ें थीं, आँखों पर कुहनियाँ रखे रोते पुरुष थे और राख की तरह बैठा बाप था...सामने पड़े उस व्यक्ति को अपने से तोड़ लेने की कोशिश में ये लोग कैसी भीषण शारीरिक-मानसिक यातनाओं से गुज़र रहे थे...मैंने दार्शनिक ढंग से सोचा। मान लीजिए, किसी जादू से वह उठकर बैठ जाए तो शायद फिर से अपने-आपको इसके साथ जोड़ने में भी इन्हें इतनी ही तकलीफ़ होगी...और मैं भीड़ से निकलकर लौटने को ही था कि एक और घटना हो गई और सारी भीड़ से निकलकर लौटने को ही था कि एक और घटना हो गई और सारी भीड़ बड़े ही विचित्र भाव से आंदोलित हो उठी...स्प्रिंगवाला स्विंग-दरवाज़ा खोलकर नीचा सफ़ेद कोट पहने पहले वाले डॉक्टरनुमा आदमी ने नीकलकर बिना किसी को संबोधित किए पूछा, तुम्हारे बेटे का नाम हरीकिशन था न...?

    हरीकिशन हो या चरनराम, अब क्या फ़र्क़ पड़ता है? मैंने सोचा ही था कि किसी ने कराहते-से ढंग से कहा, “हाँ बाबू जी, हरीकिशन ही था...” कहने वाला बाप नही था। शायद ये लोग अपनी कोई खानापूरी करने को पूछ रहे हैं।

    “उसके ऊपर वाले होंठ पर चोट का निशान था?” डॉक्टरों ने फिर निराकार सवाल किया।

    “हाँ जी...हाँ जी,” ज़रा देर को सहसा औरतों का रोना रुक गया। इस उम्मीद में कि शायद डॉक्टर कोई ऐसा समाचार देगा कि सारा दुख बदल जाएगा...”

    “देखो, यह लाश ग़लती से गई है। नंबर गड़बड़ हो गया था। तुम्हारे बेटे की लाश दूसरी है। यह तो भट्टी में जलने का केस था...” डॉक्टर ने निहायत ही मशीनी ढंग से कहा और दरवाज़ा छोड़कर भीतर हटा ही था कि नीले गँदे-से नेकर-क़मीज़ पहने दो आदमी आगे-पीछे एक नी स्ट्रेचर उठा लाए...

    जैसे किसी नाटक का दृश्य हो, सधे हाथों से उन्होंने स्ट्रेचर ज़मीन पर रखी, एक ने सिर और दूसरे ने पाँव से उठाकर लाश को ज़मीन पर लिटाया तो दो-एक ने बड़ी तत्परता से बीच में हाथों का सहारा दिया...अब दो लाशें बराबर-बराबर लेटी थीं। फिर उन्होंने उसी रिहर्सल किए गए ढंग से पहली लाश को टाँगों और सिर की तरफ से उठकर स्ट्रेचर पर रखा, पीछे की ओर घूमकर स्ट्रेचर के हत्थे पकड़कर घूमे, उठे और झटके से मोड़ लेकर अंदर की ओर चल दिए...शायद लाश भारी थी।

    किसी ने नई लाश की सफ़ेद चादर बहुत ही डरते-डरते ज़रा-सी उठाई...और रोना-धोना एकदम नए सिरे से शुरू हो गया...बाहों में बंधी बहू नए सिरे से छूटकर लाश पर जा गिरी और छाती पर सिर मार-मारकर रोने लगी। माँ ज़मीन पर पहले की तरह सिर फोड़ रही थी, बाल नोच रही थी बाप ने नए सिरे से सिर पर हाथ मारा था और पहले से भी ज़्यादा ढेर होकर बैठ गया था...पृष्ठभूमि का रुदन-संगीत उस गति से चलने लगा था।

    स्ट्रेचर ले जाते हुए दोनों जमादारों ने जाली खुले दरवाज़े गुटके हटा दिया थे और दरवाज़े के भट्-भट् करके बंद हो गए थे...निगाह फिर बीच की लाश पर लौट आई...औरतें बहू को हटा रही थीं और लोग चादर को पकड़े थे कि बहू को हटाने में खिंची चली आए। टूटी चूड़ियों के ज़मीन पर बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ पाना बड़ा मुश्किल था कि ये अभी-अभी टूटे हैं, क्या पहली लाश पर टूटे थे...मेरी इच्छा हुई कि एक बार ज़रा-सी चादर हटे तो देखूँ कि क्या इस चेहरे पर भी दाँत उसी तरह लगते हैं? किसी ने कहा था, “हमें तो पहले ही लगा था...”

    दूर सड़क पर चिचियाती आवाज़ देर तक पीछा करती रही—‘हाय मेरे बेटे...!’ लेकिन उसमें अब पहले जैसी ‘उठान’ नहीं थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरी प्रिय कहानियाँ (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 2009

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए