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एक अलम-नसीब बेटे की कविता
मुक़द्दर में चूल्हा आया—दरअस्ल, कुछ और था ही नहीं माँ के लिए इस दुनिया के पास
आमिर हमज़ा
नेकी कर दरिया में डाल
मैंने इसी कोशिश में ज़िंदगी के कई पन्ने ख़र्च कर दिएमगर हर किताब ख़ामोश थी
जावेद आलम ख़ान
हाशिए के लोग
हमारा नाम जाति के कोष्ठक में दर्ज हुआहमने चाक पर घड़े बनाए जिनमें ऋषि जन्मे
जावेद आलम ख़ान
धूप में एक रविवार
धूप मेरी आत्मा में ऊष्मा बनकर उतर रही हैआकाश का नीला मुझे हरा बना रहा है