सुरख़ाब के पर

surkhab ke par

शांति मेहरोत्रा

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सुरख़ाब के पर

शांति मेहरोत्रा

और अधिकशांति मेहरोत्रा

    रामबाबू ऊपर के कमरों में ही अपना अधिकांश खाली समय बिताते हैं, यह तो उनके सभी परिचित जानते हैं किंतु कौन-सा ऐसा आकर्षण है जो उन्हें घर के सबसे छोटे कमरे से बाँधे रहता है, इस रहस्य का पता बहुत ही कम लोग लगा पाए हैं। उनके कमरे में प्रवेश करने की अनुमति किसी को भी प्राप्त नही है—उनकी पत्नी तक को नहीं। अत: उनके कमरे को लेकर तरह-तरह की अफ़वाहें लोगों में फैली हुई हैं। कोई कहता है कि वे कवि हो गए हैं, किसी का अनुमान है कि वे किसी खोज में व्यस्त हैं, कोई उन्हें क्रांतिकारी घोषित करने पर तुला है तो किसी के विचार वे सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में हैं और स्वयं उनकी पत्नी का मत है कि उन्होंने उस कमरे में अपनी पूर्व प्रेमिकाओं के पत्र छुपा रखे हैं।

    होली की शाम को भोजन कर चुकने के बाद रामबाबू दबे पाँव ऊपर चले तो उनकी पत्नी ने झल्लाकर कहा—

    ‘क्यों जी, त्योहार के दिन भी दस मिनिट बैठकर बात करना मुश्किल है? जब देखो तब मुई कोठरी में ही बंद होकर रहते हो। राम जाने कौन-सा ख़जाना गड़ा है उसमें!’

    ‘तो बातें करो न, मैं कब मना कर रहा हूँ। तुम्हें जो कुछ कहना हो नीचे से कहती रहो, मैं ऊपर से जवाब देता रहूँगा!’
     
    ‘हाँ, हाँ, जवाब तो ख़ूब दोगे! एक मैं ही पागल मिली हूँ न जो गला फाड़-फाड़कर चिल्लाती रहूँगी! जाओ, जाओ तुम्हें तो एक-एक पल भारी हो रहा होगा!’ मौक़ा पाकर रामबाबू ‘तो फिर तुम्हारी मर्ज़ी!’ कहते हुए ऊपर चले गए। ज़ीने में उन्होंने चौकन्ने होकर एक बार चारों ओर देखा, फिर ताला खोलकर फ़ौरन कमरे को भीतर से बंद कर लिया। कमरा छोटा होते हुए भी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था। एक ओर बेंत की बुनी हुई लंबी बेंच पड़ी थी। उसके ठीक सामने शीशम की लकड़ी का एक सुंदर रैक दीवार से सटा हुआ रखा था। उसके छोटे-छोटे ख़ानों के ऊपर क्रम से मुंडन, कनछेदन, जनेऊ, तिलक, विवाह, कवि-सम्मेलन, हास्य-गोष्ठी, कथा-गोष्ठी तथा नाटक लिखा हुआ था। उन ख़ानों में रंग-बिरंगे निमंत्रण-पत्र दीवारों पर सुंदर-सुंदर फ़्रेमों में जड़े टँगे थे। कमरे के बीचोबीच एक मेज़ और उसके पास एक कुरसी रखी हुई थी। रामबाबू कुरसी पर बैठकर मेज़ पर रखे रजिस्टर के पन्ने उलटते हुए तीसवें पृष्ठ पर रुक गए, जिसकी हूबहू नकल अगले पृष्ठ पर है— 
     
    अपने विशेष सुझावों की दूरदर्शिता एवं सफलता पर रामबाबू विजय-गर्व से ऐसे मुस्कुराए जैसे सिकंदर बंदी पोरस को देख कर मुस्कुराया होगा। उन्होंने खूँटियों पर टँगे सूट, अचकन और धोती-कुर्ते की ओर आलोचक की पैनी दृष्टि से देखा और पूर्व-अनुभवों के आधार पर धोती-कुर्ते को चुनकर, रुमाल पर और कानों के पीछे हिना का इत्र लगाकर कहानी-सम्मेलन का आनंद लेने चल दिए।

    रामबाबू के संतुष्ट जीवन में एक मात्र महत्त्वाकांक्षा थी किसी दिन मंच पर बैठने की। किंतु निरंतर प्रयत्नशील होते हुए भी वे अब तक इस दिशा में सफल नहीं हो पाए थे। उस दिन कहानीकारों की भीड़ देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और यह सोचकर कि संभव है झपसट में उन्हें भी मंच पर बैठने का अवसर मिल जाए, वे सीधे उसी ओर अग्रसर हो गए। उनका ह्रदय धक-धक कर रहा था, फ़िर भी वे वीरतापूर्वक मुस्कुराते हुए आगे बढ़ रहे थे, किंतु जिस मुस्कान के बल पर वे क़िला फ़तेह करने चले थे, उसने उन्हें ऐन मौक़े पर दग़ा दे दी और मंच तक पहुँचते-पहुँचते वे सकपकाए हुए सहमी-सहमी निगाहों से इधर-उधर देखने लगे। उन्हें इस दशा में पाकर एक प्रबंधकर्ता महोदय फ़ौरन उधर लपके और बोले—

    ‘श्रीमान, क्या आप भी आमंत्रित कहानीकारों में हैं?’

    ‘जी?...जी नहीं... मैं तो एक प्रबुद्ध श्रोता मात्र हूँ!’

    अपने वाक्-चातुर्य पर प्रसन्न होकर रामबाबू ने मंच पर पहुँचने के लिए बनी सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि प्रबंधक महोदय उन्हें रोकते हुए कहने लगे—

    ‘आप कैसे भी श्रोता हों, कृपया मंच पर मत जाइए। यहाँ नीचे बैठिए।’

    ‘क्यों जनाब, आप कौन होते हैं मुझे रोकने वाले? मैं मंच पर क्यों नहीं बैठ सकता?’ रामबाबू ने धमकाते हुए पूछा।

    ‘आप भी विचित्र व्यक्ति हैं! अरे भाई साहब, कह तो रहा हूँ कि वहाँ केवल लेखकगण ही बैठ सकते हैं। आप के कौन से सुरख़ाब के पर लगे हैं जो वहाँ चढ़कर बैठेंगे?’

    राम बाबु खिन्न होकर श्रोताओं में बैठ तो गए किंतु सुरख़ाब के परोंको लेकर उनके मन में हलचल-सी मच गई। बार-बार वे सोचने लगे कि जैसे भी हो, कहीं-न-कहीं से सुरख़ाब के पर अवश्य हथियाने चाहिए। इस रात घर लौटने पर उन्होंने अपने रजिस्टर में लिखा—

    ‘सुरख़ाब के पर ही सफलता की कुंजी हैं। उन्हें प्राप्त करना आज से मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय होगा।’

    उनके इने-गिने मित्र जब उन परों के प्राप्ति स्थल पर प्रकाश न डाल सके तो वे अपनी बुद्धि का सहारा ले, शनिवार की शाम को दफ़्तर से लौटते समय सीधे हैट वाले की दुकान पर जाकर बोले—
     ‘देखिए, कुछ बढ़िया-बढ़िया हैट दिखाइए।’

    दुकानकार ने उनके सामने हैट का ढेर लगा दिया। रामबाबू ने कुछ झुँझलाकर पूछा—

    ‘आपसे कहा न कि बढ़िया हैट दिखाइए जिनमें कुछ पर-वर लगे हों। ये सब तो बिलकुल बेकार हैं।’

    दुकानदार ने पर वाले हैट भी दिखाए। इन्हें देखते ही रामबाबू खिलकर बोले—

    ‘अब आपने असली माल निकाला है। इनमें से किसी हैट में क्या सुरख़ाब के पर भी लगे हैं?

    दुकानदार अभी व्यवसाय में कच्चा था, बोला—

    ‘यह सब तो हमें नहीं मालूम। जो माल है, वह आपके सामने है। देख लीजिए, अगर पसंद हो तो बताइए।’
     
    ‘पसंद को तो सभी अच्छे हैं। लेकिन बात यह है कि मुझे एक ख़ास तरह का हैट चाहिए—अच्छा, फिर किसी दिन फुरसत से आकर देखूँगा, अभी ज़रा जल्दी में हूँ’, कहते हुए रामबाबू बाहर आ गए। उन्होंने सोचा कि अगर हैट में सुरख़ाब के पर लगे होते तो दुकानदार को ज़रूर मालूम होता, लेकिन उसकी बातों से स्पष्ट है कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानता।
    इस विषय पर पुन: गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद उन्हें ध्यान आया कि वैद्य लोग सोने, चाँदी, मोती आदि बहुत-सी चीज़ों की भस्म रोगियों को देते रहते हैं, हो सकता है कि सुरख़ाब के परों की भस्म भी रखते हों और अगर भस्म उनके पास होगी तो पर भी ज़रूर मिल जाएँगे। यह सोचते-विचारते वे वैद्यराज भगवानदास के पास पहुँचे और उनके पास बैठे अन्य रोगियों को देख कान के पास झुककर बोले—

     ‘वैद्यजी, आपके पास सुरख़ाब के पर होंगे?’

     वैद्यजी ने अपनी अनुभवी दृष्टि उन पर टिकाते हुए पूछा—

     ‘काहे के लिए चाहिए बेटा? कौन रोग है तुम्हें?’

     ‘जी रोग-ओग कुछ नहीं है। आप बता दीजिए कि वे पर आपके पास हैं या नहीं।’

     वैद्यजी ने लपककर उनकी नब्ज थाम ली और मुँह बनाकर बोले—

    ‘मुझे भी यही संदेह था। यह वायु के प्रकोप का लक्षण जान पड़ता है। ऐसा पहले भी कभी हुआ है?’

    ‘कैसा?’

    ‘यही, जी घबड़ाना, आँय-बाँय बकना...’

     ‘लेकिन मैं बिलकुल ठीक हूँ, वैद्यजी।’

    ‘बेटा, मुझसे हर रोगी यही कहता है। ख़ैर मैं एक चटनी दे रहा हूँ, वह दिन में तीन बार चाटना और एक चूर्ण दे रहा हूँ, उसकी पुड़िया प्रात: और रात्रि में सोने से पहले फाँक लेना। दस-पाँच दिन में ठीक हो जाओगे। चिंता की कोई बात नहीं है।’

    इस बार रामबाबू ने गरम होकर कहा—

    ‘आप व्यर्थ की बातें मत करिए। साफ़-साफ़ बताइए कि पर आपके पास हैं या नहीं—आप क्या समझते हैं मैं दवा लेने आया हूँ—मुझे पर चाहिए पर!’

    वैद्यजी के नेत्रों में करुणा झलकने लगी, उन्होंने सिर हिलाते हुए अन्य रोगियों से कहा—
    ‘बेचारे की अभी उम्र ही क्या है! रोग असाध्य जान पड़ता है!’

    फिर रामबाबू से पूछने लगे, ‘कोई तुम्हारे साथ आया है?’

    रामबाबू ने आग्नेय नेत्रों से वैद्य की ओर घूरकर कहा, ‘मूर्ख कहीं का।’ और वहाँ से सीधे घर लौट गए।

    इस घटना से खिन्न होकर रामबाबू ने कुछ दिन सुरख़ाब के परों के बारे में किसी से कोई चर्चा नहीं की। किंतु एक दिन अपने चिर-परिचित पान वाले को, तरह-तरह की चिड़ियों के पिंजड़े उठाये हुए एक बहेलिये से बात करते देख मानो उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। उन्होंने अपनी चिरवांछित वस्तु की माँग बहेलिये के सामने दोहरा दी। बहेलिया नम्बरी काइयाँ था। झट कहने लगा—

    ‘सरकार, एक सुरख़ाब क्या, दस सुरख़ाब आपके चरणों में लाकर डाल दूँगा, लेकिन उसे पकड़ना बड़े जोखिम का काम है। घने जंगल में जाना पड़ेगा मालिक, फिर भी तय नहीं कि वह परिंदा हाथ लग ही जाए। हाँ! क़िस्मत अच्छी हुई तो बात दूसरी है। यहाँ एक डिप्टी साहब रहते थे सरकार—अब तो उनकी बदली हो गई—वे बड़े शौक़ीन थे सुरख़ाब के परों के। एक-एक पर का पचास-पचास गिन देते थे। बड़े दरियादिल थे सरकार...भगवान उन्हें ख़ुश रखें। ...हाँ तो सरकार को कितने सुरख़ाब चाहिए?’

    दाम सुनकर रामबाबू के होश आख्ता हो गए। संकोच के साथ बोले,

    ‘भई, मुझे पूरे सुरख़ाब का क्या करना है... बस दो पर मिल जाएँ तो काफी हैं। मेरा काम चल जाएगा।’
     
    बहेलिया बड़े अहसान के साथ चार दिन बाद पच्चीस रुपयों के दो पर लाने की बात पक्की करके चला गया और रामबाबू गदगद होकर मंच के सपने देखने लगे।
     
    चौथे दिन बहेलिये ने पर उनके हवाले किए। क्योंकि इस दिशा में रामबाबू से ‘अथारटी’ मान चुके थे इसलिए उन्होंने बिना किसी शंका के उन परों को सुरख़ाब का मान लिया। उस अमूल्य निधि को पाकर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो वे उनके सहारे ऊपर उड़ते चले जा रहे हों और धरती के अभागे प्राणी मुँह बाये, आश्चर्यचकित-से टुकुर-टुकुर उन्हें ताक रहे हों।

    सौभाग्य से प्रथम चैत्र को नव-वर्षोत्सव के उपलक्ष्य में एक विराट कवि-सम्मलेन का आयोजन हुआ और कविवर मुखरेशजी को घेर-घारकर रामबाबू ने निमंत्रण-पत्र भी हथिया लिया। ख़ूब सज-सँवरकर, कोट के बटन होल में दोनों पर खोंस, हाथ में गुलाब का फूल लिए वे पंडाल में जा पहुँचे। कार्यक्रम आरंभ हो चुका था। रामबाबू तीर की तरह सीधे मंच की ओर बढ़ चले। एक सज्जन ने मंच के पास उन्हें रोककर विनम्र स्वर में पूछा—

    ‘क्या आप भी आज के कार्यक्रम में भाग ले रहे हैं?’

    ‘नहीं’, रामबाबू ने आगे बढ़ते हुए निहायत बेरुखी के साथ जवाब दिया।

    ‘तो...सुनिए...आप इधर पीछे की ओर बैठ जाइए...चलिए मैं जगह दिलवा दूँ।’

    ‘कोई ज़रूरत नहीं है, आप कष्ट न करें। हम मंच पर ही बैठेंगे’, रामबाबू ने अकड़कर कहा।

    ‘लेकिन वहाँ तो केवल कविगणों के बैठने का प्रबंध है’, उक्त सज्जन ने प्रार्थना की।

    ‘होगा। इससे मुझे क्या? आप अपना काम देखिए, बेकार बकवास मत करिए।’

    वे सज्जन भी कुछ गर्म होकर बोले, ‘वाह साहब! आप तो ऐसे बढ़-बढ़कर बोल रहे हैं जैसे सुरख़ाब के पर लगा कर आए हैं कि मंच पर जा बैठेंगे।’

    अब रामबाबू से सहन न हो सका और वे चिल्लाकर कोट पर लगे परों की ओर संकेत करते हुए बोले, ‘ये सुरख़ाब के पर नहीं तो क्या हैं? अंधे हैं आप? दिखाई नहीं पड़ता?’

    और जब तक वे सज्जन परिस्थिति समझें-समझें रामबाबू उचककर मंच पर जा बैठे और विजय गर्व के साथ मुस्कुराते हुए कवि-गण तथा श्रोता-वर्ग की ओर घूम-घूमकर देखने लगे।
    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक हिंदी हास्य-व्यंग्य (पृष्ठ 225)
    • संपादक : केशवचंद्र वर्मा
    • रचनाकार : शांति मेहरोत्रा
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1961

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