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संपादकाचार्य अंबिकाप्रसाद वाजपेयी

sampadkacharya ambikaprsad vajapeyi

अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागर

संपादकाचार्य अंबिकाप्रसाद वाजपेयी

अमृतलाल नागर

और अधिकअमृतलाल नागर

    21 मार्च सन् 1968 की शाम को साढ़े सात बजे पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी के स्वर्गवास के साथ ही साथ तपस्वी साहित्यकारों एवं पत्रकारों की महान पीढ़ी की अंतिम कड़ी लुप्त हो गई। पिछले 30 दिसंबर को उनके 88वें जन्म-दिवस पर हम लोग सदा की भाँति उनके चरण स्पर्श करने गए थे। शरीर से बहुत अधिक शिथिल होते हुए भी मन से वे ताज़े थे। उनके पुत्र उपेंद्र उनके बढ़े हुए स्मृति दोष के कारण उन्हें बतलाने लगे कि ये अमुक हैं और ये अमुक। आजीवन विलक्षण स्मरण शक्ति के धनी वाजपेयी जी का यह दैन्य हम सभी को मन ही मन में कष्ट पहुँचा रहा था। हममें ऐसा कोई भी नही था जिसे वे भली-भाँति पहचानते हो। संभवतः वाजपेयी जी को भी अपना यह स्मृति दैन्य कहीं अखरा होगा, इसीलिए अपनी इस कमज़ोरी से उहोंने संघर्ष भी किया। भूतपूर्व 'भारत' संपादक श्री बलभद्रप्रसाद मिश्र का नाम बतलाने से पहले ही वे उनसे सहसा मुस्कुराते हुए पूछ बैठे—कहाँ—अर्द्ध दशानन वे का हाल हैं? उनके यह पूछते ही हम लोग हँस पड़े। इस हँसी के पीछे हमारी आस्था भरी ख़ुशी चमक रही थी कि वाजपेयी जी रोग और आयुवर्द्धक्य की जड़ता से लड़ने में अब भी सक्षम और सचेत हैं। आयुर्वेद पंचानन स्व. पं. जगन्नाथप्रसाद शुक्ल को विनोद मे वे 'अर्द्ध दशानन' कहा करते थे। (शुक्ल जी को वय में पूज्य वाजपेयी जी से एक या दो वर्ष बड़े थे। उनके स्वर्गवास का समाचार वाजपेयी जी को नहीं बतलाया गया था।) मिश्र जी से उनके संबंध में पूछकर वाजपेयी जी ने मानों यह जतला दिया कि उनकी याददाश्त अब भी ठीक-ठिकाने है। हम लोगों की हँसी ने वाजपेयी जी के इस प्रश्न को टाल दिया। स्वाभाविक रुप से मिश्र जी उन्हें शुक्ल जी के स्वर्गवास का समाचार सुनाकर आघात नहीं पहुँचाना चाहते थे। लौटते समय पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, भगवती बाबू, मिश्र जी आदि सभी लोग उनकी ज़िंदादिली की चर्चा करते चले रहे थे, तभी मैंने कहा कि वाजपेयी जी के जीवन-काल में उनकी यह अंतिम वर्षगाँठ है। वाजपेयी जी अपने स्मृति-दोष को सह पाएँगे। इसके कारण उनका मानसिक कष्ट उन्हें शीघ्र ही मृत्यु के निकट पहुँचा देगा। इस बात को पूरे तीन महीने भी गुज़रे कि वाजपेयी जी अपनी इह लीला समाप्त करके चले गए। लेकिन इन तीन महीनों में लगातार बीमार रहते हुए भी उन्होंने अपने-आपको कर्मठ और सचेत बनाए रखा। कल ही भारत सरकार के उपनिदेशक मित्रवर अशोक जी बतला रह थे कि उनके आग्रह पर वाजपेयी जी ने लगभग एक महीना पहले 'आजकल' के लिए लिपि की समम्या पर एक लेख लिखवाकर भेजा था। वाजपेयी जी की यह कर्मठना मेरे लिए आदर्श की वस्तु भी रही है और ईर्ष्या की भी। बुज़ुर्गवार इस वय में भी जितना काम कर लेते थे उतना में नही कर पाता था। वे आजीवन जवानी का प्रनीक बने रहे।

    लगभग सोलह-सवह वर्ष या उससे भी कुछ पहले वे हिंदी पत्रकारिता का इतिहास लिख रहे थे। एक दिन सवेरे ही टेलीफ़ोन द्वारा उन्होंने मुझसे लखनऊ में निकलने वाले हिंदी के पुराने दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रों के संबंध में अपने यहाँ के पुराने लोगों में कुछ सूचनाएँ प्राप्त करने का आदेश दिया। बहुत-सी बातों की जानकारी तो मैंने घंटे-दो घंटे के भीतर ही संबंधित लोगों के वशंजों से प्राप्त कर ली, किंतु एक 'पत्र' से संबंधित जानकारी मैं उस समय पा सका। घर लौटकर आने पर मालूम हुआ कि पूज्य वाजपेयी जी महाराज का फ़ोन आया था। मैंने तुरंत उन्हें फ़ोन किया। अपना नाम बतलावर प्रणाम निवेदन करते ही पंडित जी ने मुझमे पूछा, कहो, कुछ सफलता मिली? मेरा उत्तर सुनकर वे संतुष्ट हुए। मैंने कहा कि कल सवेरे संबंधित व्यक्ति से मिल लेने के बाद तुरंत आपकी सेवा में पहुँचूँगा।

    मगर उसी दिन संध्या के समय पूज्य पंडित जी को अपने बैठके में प्रवेश करते हुए देखकर एकाएक मैं स्तब्ध रह गया। मैंने कहा, पंडित जी, आपने क्यों कष्ट किया? मैं तो कल आता ही।

    संपादकाचार्य जी बोले, बात यह है कि डॉक्टर भगवानदास की मिज़ाज-पुर्सी के लिए हमें मेडिकल कॉलेज तक आना ही था, इसलिए हमने सोचा कि लाओ एक पथ दो काज करते चलें। और तुम्हारी एक भूल को भी हमें सुधारना था, इसलिए चले आए। गर्मी के दिन थे। मैं सोचने लगा कि लगभग तीन बजे के समय महाराज अपने घर से चले होगे। इस वय में भी उन्हें लू या धूप की चिंता नही सताती। भारतरत्न डॉ. भगवानदास जी बीमार होकर मेडिकल कॉलेज में पड़े है। उनकी चिंता है, काम की सामग्री लाने की चिंता है और लगे हाथों मेरी एक भूल को सुधारने की चिंता भी है। भूल-सुधार मेरे लिए सचमुच ही बहुत महत्वपूर्ण था। तख़त पर बैठे ही बैठे घर के सामने सड़क पार कंपनी बाग़ की ओर संकेत करके बोले, 'तुमने यहाँ के पुराने वाजपेयी टोले का हाल 'नवजीवन' में लिखा था, उसमें विवाह की जो कथा तुमने लिखी है उसका संबंध विष्णु शर्मा से नहीं, बल्कि बुद्धिशर्मा से है। दोनों में चार पीढ़ियों का अंतर था।

    मेरे पुराने घर के सामने वाला कंपनी बाग़ समय-समय पर हिंदी के दो महारथियों को पहले भी वह की गदरपूर्व की बस्तियों का इतिहास बतलाने के लिए प्रेरित कर चुका था। एक दिन सहसा स्वतः स्फूर्त उत्तेजना में स्वयं निराला जी ने कंपनी बाग़ के ऊँचे खाले से लखनऊ के प्रसिद्ध ऊँचे खाले के वाजपेइयो का निकास, स्वजाति पर तीव्र व्यंग्य करते हुए बखाना था। उनके बाद स्व० पं. रूपनारायण जी पांडेय 'कविरत्न' भी एक दिन कंपनी बाग़ में प्रेरित होकर पुराना इतिहास बखानने के मूड़ में गए थे। उन्हीं से वाजपेयी टोने और पंडितवर विष्णु वर्मा की क्या सुनने को मिली थी।

    मैंने जब पांडे जी का हवाला दिया तब बोले, रूपनारायण ने सुनी-सुनाई बात बतलाई। हम अपने पुरखो का प्रामाणिक हाल बतलाते है...

    उन्हें प्रसंगवश पुरानी बातें सुनाने का बड़ा चाव था। हिंदी और बंगला पत्रकारिता का इतिहास तो वे सन्-संवत् और कभी-कभी तारीख़ों तक के साथ सटीक सुनाया करते थे। हिंदी पत्रकारिता का इतिहास उन्होंने अपनी स्मृति से ही लिखा था। उसे पूरा करते करते ही दुर्भाग्यवश उन्हें पक्षाघात हो गया। वे पूरी तरह से स्वस्थ भी हो पाए थे कि उनके जन्म दिन में उपलक्ष्य में हम लोगों ने एक सभा आयोजित की। श्रद्धेय संपूर्णानंद जी उस सभा में आए थे। वाजपेयी जी भी एकदम अप्रत्याशित रूप से उपेंद्र को साथ लेकर उन सभा में पहुँच गए। हमारे उत्साह और आनंद की सीमा रही। उस सभा में स्वाभाविक रूप में उनके स्वास्थ्य और उनके द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास की चर्चा कई लोगों ने की। संपूर्णानंद जी उस समय हमारे प्रदेश के शिक्षा-मंत्री थे। उन्होंने कहा कि वाजपेयी जी की सहायता के लिए सरकार तीन-चार आदमियों को नियुक्त कर सकती है। वाजपेयी जी बोले, हमें सरकारी सहायता की आवश्यकता नहीं। हमने तो जैसे-तैसे अपना काम पूरा कर डाला, अब सरकार यदि चाहे तो उस काम को आगे बढ़ा सकती है। हमें किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं।

    सरकार फिर भला चाहने क्यों लगी। वह बात जहाँ की तहाँ ही रह गई। लेकिन वाजपेयी जी अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए थे। किताब छप जाने के बाद भी वे बराबर उसका संशोधन-परिवर्धन करते ही रहे। थो तीन वर्ष पहले एक दिन उनमें मिलने गया तो देखा, वे अपने काग़ज़ों से जूझ रहे है। पूछने पर मालूम हुआ कि पत्रकारिता के इतिहास संबंधी कुछ सामग्री उन्होंने अपनी स्मृति के ख़ज़ाने से और निकाली है, जिसे यथास्थान सजा रहे है। उन्हें अपनी स्मृति से तब पहली बार शिकायत होने लगी थी। कहने लगे, बहुत-सी बातें अब हम भूलने लगे है। उनका क्रम बिगड़ता है तो हमें कष्ट होता है। एक-एक बात को बार-बार याद करना पड़ना है। उसमें कुछ छूट जाता है तो फिर याद करके जोड़ते है।

    वे बड़े स्वाभिमानी और खरी बात कहने बाले थे। जब वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य मनोनीत किए गए तब उनसे काग्रेस पार्टी में शामिल होने का आग्रह किया गया। वे बोले, पत्रकार किसी पार्टी-वार्टी में शामिल नहीं होता। उसे तटस्थ और न्याययुक्त होकर ही सारी बातों का विवेचन करना चाहिए। जीवन के अनेक दुख और मँहगाई के कष्ट सहते हुए भी वाजपेयी जी किसी के आगे हाथ नही फैलाया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, उत्तर प्रदेश के प्रथम और द्वितीय मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और डॉ. संपूर्णानंद जी उनके प्रशंसकों में से थे। परंतु वाजपेयी जी ने अपनी सुख सुविधा के लिए कभी उनसे कुछ माँगा। इस भरे बुढ़ापे मे रोग-जर्जर हो जाने पर भी वे लिखकर ही कमाते रहे। ईश्वर की दया से उनके सब पुत्र अपने रोज़ी-रोज़गार से लगे हुए है फिर भी वाजपेयी जी बराबर यथाशक्ति लिखते कमाते ही रहे।

    जिन दिनों वाजपेयी जी को पक्षाघात हुआ था उन दिनों मेरे यहाँ बाबा राम जी नामक एक हठयोगी, कर्मयोगी साधु रहा करते थे। (किंचित् प्रकारांतर से मेरे उपन्यास 'बूँद और समुद्र' में वे एक पात्र बनकर भी आए हैं तथा बंधुवर राजेंद्र यादव अपनी एक आलोचना में उन्हें अयथार्थवादी, अविश्वसनीय और काल्पनिक पात्र भी घोषित कर चुके हैं।) मैंने बाबा जी से वाजपेयी जी की बीमारी का हाल बतलाया। उनके रोग ने मेरे मन को अपराध भावना से जड़ीभूत कर दिया था। मुझे लगता था कि नगर के सांस्कृतिक जागरण के हेतु मैंने पूज्यवर को आवश्यकता से अधिक दौड़ाया-धुपाया और इसी से वे बीमार पड़ गए। बाबा जी बोले, 'हम उन्हें फिर से जवान बना देगे। बाबा जी पंडित जी से वय में लगभग चार-पाँच वर्ष बड़े थे, लेकिन वह दंड, कसरत आदि में जवानों के भी कान काटते थे। शरीर की मालिश करने में वह अपना सानी नहीं रखते थे। बाबा जी जाड़े के दिनों में तीन-साढ़े तीन बजे रात को चौक से नंगे बदन दौड़ लगाने हुए नज़रबाग़, वाजपेयी जी के यहाँ जाते थे। वाजपेयी जी नियम से चार बजे उठकर उनकी प्रतीक्षा करते थे। बाबी जी के जोश दिलाने पर पंडित जी मालिश के बाद कसरत भी करने लगे। बहुत-से लोगों को यह भय हुया कि पक्षाघात के बाद इस तरह से व्यायाम करने से कही वह अधिक रोगग्रस्त हो जाए। लेकिन पंडित जी बाबा जी के इस सिद्धांत से सहमत थे कि जब तब शरीर में ठीक तरह से रक्त-संचार होता रहता है, और आतें सशक्त तथा निर्मल रहती हैं, तब तक रोग और बुढ़ापा मनुष्य के पास तक नहीं फटकता। बाबा जी ने उन दिनों जाने कितनी बार वाजपेयी जी महाराज के जोश-ए-जवानी की प्रशंसा करते हुए व्यायाम ने प्रति मेरी लापरवाही को लताड़-लताड़कर लज्जित किया था। हमसे कहते, वाजपेयी कहता है कि मनुष्य जियै तौ काम करै, काम करै तौ फिर काहै को जियै।

    खेद है कि जिस काम की लगन में पूज्य वाजपेयी जी ने अपना सारा जीवन खपा दिया उस काम ही को हम लोग भूल गए हैं। उनमें अनेक लेख पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं। उनकी रचनाएँ अब भी पुस्तकालयों की अलमारी में नहीं ओने-कोने में छिपी पड़ी होगी। बहुत-से काम उन्होंने ही हिंदी मे आरंभ किए थे। जहाँ तक मुझे ध्यान है हिंदी का पहला व्याकरण पूज्य वाजपेयी जी ने ही लिखा था। उनकी पुस्तक 'हिंदुओं की राजकल्पना भी स्व० डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल जी प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंदू राजतंत्र' से पहले ही प्रकाशित हुई थी। हमारी शिक्षा नीति पर भी उन्होंने एक पुस्तक रची थी फुटकर लेख के अलावा लगभग 19-20 पुस्तक यंत्र-तंत्र बिखरी पड़ी है। हम अपने पूर्ववर्ती महापुरुषों की अथक श्रम-भरी लगन को गई-बीती निकम्मी वस्तु मानकर बराबर भूलते चले जा रहे है।

    सन् 1939 ई० में काशी में हिंदी साहित्य सम्मेलन या अधिवेशन वाजपेयी जी के सभापतित्व में हुआ था। भारतरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने कहा था, वाजपेयी जी ने हम लोगों को उस समय राजनीति की शिक्षा दी, जबकि बहुत से लोग यह भी नहीं जानते थे कि राजनीति किस चिड़िया का नाम है। मुझे याद है, उन्होंने कहा था कि कलकत्ते के विद्यार्थी जीवन के दिनों में वह (राजेंद्र बाबू) प्राय पंडित जी से मिला करते थे। कलकत्ता ही मुख्य रूप से पंडित जी की कर्मभूमि रही है। यों उनका जन्म 30 दिसंबर सन् 1880 ई. (पौष कृष्ण 14 संवत् 1937) के शुभ दिन कानपुर में हुआ था। वाजपेयी जी के पूर्वज गदर के दिनों में लखनऊ छोड़कर कहा जा बसे थे। पिता श्री कन्दर्ष नारायण जी जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ते जाकर बस गए। पंडित जी की पढ़ाई-लिखाई कानपुर, काशी और कलकत्ते में हुई। सन् 1900 ई. में उन्होंने एंट्रेंस परीक्षा पास की। बड़े भाई की मृत्यु से आगे की पढ़ाई रूक गई। यो स्वाध्याय बराबर जारी रहा। सन् 1902 में वह फिर कलकत्ता पहुँचे और लगभग तीन वर्षों तक इलाहाबाद बैंक में काम किया। साथ ही 'हिंदी-बगवासी में भी प्रवेश किया।

    सन् 1907 में राजनीतिक मासिक 'नृसिंह' चलाया, जो लगभग एक वर्ष तक चल सका। आर्थिक कारणवश उसे बंद करना पड़ा। 1909 ई. में 'बंगाल नेशनल कौंसिल ऑफ़ एजुकेशन के नेशनल कॉलेज में हिंदी-अध्यापन का काम शुरु किया। 1910 मे अध्यापन कार्य छोड़कर पुनः 1911 की जनवरी में 'भारतमित्र' के संपादक नियुक्त हुए। उसे साप्ताहिक से दैनिक किया। उम समय देश में यही एकमात्र हिंदी दैनिक पत्र था और हिंदी दैनिक का अग्रदूत माना गया। इस प्रकार वाजपेयी जी ने हिंदी पत्रकारिता की बुनियाद रखने में जो भूमिका अदा की थी, संभवतः उसी का ध्यान करके लोग-बाग आगे चलकर उन्हें श्रद्धापूर्वक संपादकाचार्य कहने लगे। यह कहीं से मिली हुई उपाधि नहीं है। पता नहीं कब और किसने यह लिखना शुरू किया।

    1919 तक काम करने के बाद उन्होंने 'भारतमित्र' छोड़ दिया, क्योंकि उनका स्वामित्व 'सनातन धर्म महामंडल' के हाथों चला गया था। किसी धार्मिक पत्र का संपादक होना उन्हें स्वीकार नहीं था, यद्यपि व्यक्तिगत रूप से वह अत्यंत संयम-नियमशील उपासक है।

    सन् 1920 मे 'इंडियन नेशनल पब्लिशर्स लिमिटेड' में उनके संपादकत्व में दैनिन 'स्वतंत्र' प्रकाशित हुआ। इस कंपनी की स्थापना भी स्वयं वाजपेयी जी ने धन-संग्रह करके की। 1930 में सरकार ने पत्र से ज़मानत माँगी, जिसे अदा करने के कारण पत्र ज़ब्त हो गया।

    इसी बीच 1928 में कलकत्ता विश्वविद्यानय की मैट्रिक परीक्षा के और 1930 में इंटर, बी० ए०, एम० ए० परीक्षायों के परीक्षक नियुक्त हुए। तब से बराबर परीक्षक होते रहे। सन् 1944 में उन्होंने कानपुर में अखिल भारतीय हिंदी-पत्रकार सम्मेलन का अध्यक्ष-पद सुशोभित किया।

    इसके अतिरिक्त पंडित जी ने बीस ग्रंथ भी लिखे। उनका कार्य-क्षेत्र केवल लेखन तक ही सीमित नहीं रहा। राजनीति में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। राजनीति में वह लोकमान्य तिलक के ही अनुयायी रहे। सन् 1927 में वह तिलक की होमरूल लोग के उपाध्यक्ष थे। 1927 में कलकत्ता कांग्रेस की स्वागत-समिति के तथा सन् '18 में 'तिलक स्वराज्य संघ' के भी उपाध्यक्ष रहे। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सदस्यता भी उन्होंने वर्षों तक की और सन् 1901 में वह जेल भी गए। देशबंधु चितरंजन दास, मौलाना आज़ाद और नेताजी सुभाष बोस उनके जेल के साथी थे। आज़ादी के बाद उ० प्र० विधान-परिषद के सदस्य भी बनाए गए। इस सदस्यता की सौदेबाज़ी में सरकारी नेताओं ने उनसे कांग्रेस पार्टी की सदस्यता स्वीकार करने के लिए अनुरोध किया जिसे उन्होंने माफ़ शब्दों में ठुकरा दिया। वाजपेयी जी का स्वतंत्र व्यक्तित्व कभी किसी के मनमाने प्रतिबंध स्वीकार नहीं कर सका।

    जिस समय पूज्य पंडित जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष-पद स्वीकार किया था, उस समय भी हिंदी-हिंदुस्तानी के प्रश्न को लेकर हमारे राजनीतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में बड़ा खिंचाव-तनाव था। पंडित जी की निर्भीकता हमारे लिए प्रेरक शक्ति बनी। मिश्र-बंधुओं ने अपने 'विनोद' में पंडित जी को पुरानी प्रथा का विचारक माना है, लेकिन मेरा अनुभव है, कि पंडित जी नए समय को गति देने में अब तक किसी नई प्रथा के विचारक से पीछे नहीं रहे। उनके काम के महत्व को अपने अज्ञान के कारण हम नए लोग अभी ठीक तरह से पहचान नहीं पाए हैं। क्या ही अच्छा हो यदि कलकत्ते के राष्ट्रीय पुस्तकालय या अन्य पुराने पुस्तकालयों में सुरक्षित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लेकर कोई उत्साही व्यक्ति पूज्य वाजपेयी जी तथा उनके पूर्ववर्ती और समकालीन संपादकों की संपादन-कला और विचार-प्रणालियों पर रिसर्च कर और नए पत्रकारों के सामने उस अमूल्य सामग्री को लाए। समाजवादी देशों में ऐसे शोधकार्य अनिवार्य रूप से कराए जाते है। अपनी परंपराओं की कड़ियों को सही तौर पर जोड़ पाने वाला देश भला प्रगतिशील क्यों कर बन सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जिनके साथ जिया
    • रचनाकार : अमृतलाल नागर

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