राजेंद्र यादव मार्फ़त मनमोहन ठाकौर
rajendr yadav marphat manmohan thakaur
मनमोहन ठाकौर
Manmohan Thakour
राजेंद्र यादव मार्फ़त मनमोहन ठाकौर
rajendr yadav marphat manmohan thakaur
Manmohan Thakour
मनमोहन ठाकौर
और अधिकमनमोहन ठाकौर
शायद 1955 के अंत या संभव है 1956 के आरंभ होने तक राजेंद्र यादव ने कृष्णाचार्य का साथ छोड़कर अपने रहने की व्यवस्था गड़ियाहट के चौराहे से सटे 'यशोदा भवन' में कर ली। यहीं रहते समय उसकी छोटी बहिन, सुमन छुट्टियाँ बिताने कलकत्ता आई। सुमन अक्सर दिन में मेरे घर, ग्रीक चर्च रो, में आ जाती। मेरी पत्नी, कमला तथा मेरे मित्र एवं प्रतिवेशी, श्री सूर्यशंकर नागर की गौना कर नई-नई आई वधू, अकला के साथ सुमन की ख़ूब गहरी छनती थी। राजेंद्र की देखा-देखी वह भी अकला को 'गोल वाली भाभी' कहने लगी। उस ज़माने में अकला थी भी काफ़ी गाल-मटोल।
सुमन से ही पता चला था कि राजेंद्र एक भरे-पूरे परिवार का सबसे बड़ा बेटा था। उसके तीन भाई और थे—सत्येंद्र, भूपेंद्र और हेमेंद्र। और छः बहिनें थीं—कुसुम, माधवी, अरुणा, सुमन, बड़ी बेबी और छोटी बेबी। इनके अतिरिक्त थीं, इन सबकी माताजी जिन्हें सब ‘बाई’ कहा करते थे। बाई की समझदारी, व्यवहारकुशलता और शिक्षा-दीक्षा के संबंध में भी सुमन प्रायः मुखर हो उठती थी। डॉक्टर पिता की मृत्यु हो जाने के बाद बाई ही परिवार को केंद्रबिंदु बन गई थीं।
'यशोदा भवन' में कमरा लेने से पहले, या उसी के आसपास राजेंद्र 'ज्ञानोदय' में काम करने लग गया था। उसका बहुचर्चित उपन्यास 'उखड़े हुए लोग' का फाइनल रूप तैयार हुआ था। ढेरों कहानियाँ भी लिखता रहता था। उसकी एक ख़ास बात मैंने तभी लक्ष्य कर ली थी। जब तक वह अपने लेखन का अंतिम प्रारुप मुकम्मिल नहीं कर लेता था किसी को उसकी कानों-कान भनक नहीं लगने देता। इस मामले में मैंने उसे रांगेय राघव से बिल्कुल अलग पाया। रांगेय राघव जब तक अपना रोज़ का लिखा रोज़ ही अपने मित्रों को सुना नहीं लेता, उसे चैन नहीं मिलता था।
सन् 1956-57 की बात याद आ गई। उस समय राजेंद्र 'कुलटा' लिख रहा था। तभी मुझे अपने राजस्थान के पैतृक नगर बूँदी जाना पड़ा। कमला, और मेरा पुत्र, दीप भी मेरे साथ ही जा रहे थे। 'कुलटा' का प्रकाशन 'मसिजीवी' प्रकाशन के श्री कमलेश्वर को करने का निश्चय रहा होगा। कमलेश्वर जी उन दिनों इलाहाबाद में रहते थे। किसी कारणवश राजेंद्र को पांडुलिपि भेजने में कुछ विलंब हो गया। अतएव उसके लिए कमलेश्वर जी को मेरे माध्यम से सफ़ाई देना आवश्यक हो गया। तब बाध्य होकर उसे मुझे बताना पड़ा कि वह एक उपन्यास लिख रहा है। अन्यथा वह मुझे 'कुलटा' की हवा तक नहीं लगने देता।
बहरहाल, मुझे यह देखकर बेहद ख़ुशी हुई कि इलाहाबाद स्टेशन पर जैसे ही तूफ़ान मेल रुकी, कमलेश्वर जी मेरे डिब्बे के पास ही चार ख़रबूज़े थामे खड़े थे। मैं इसे राजेंद्र के गहरे पेठे उत्कृष्ट कथाकार की कला का ही प्रमाण मानता हूँ कि मुझे कमलेश्वर जी को और उन्हें मुझे परस्पर पहचान लेने में एक क्षण भी नहीं लगा। राजेंद्र ने हम दोनों को एक-दूसरे के हुलिया का उतना ही विशद और पच्चीकारी भरा वर्णन दे रखा था, जितना वह अपने पात्रों और वातावरण का दिया करता है।
कमलेश्वर जी के साथ उनकी मित्र देशी भी थीं। उनसे मेरे परिचय का पहला और आख़िरी मौक़ा था। कमलेश्वर जी के निकट आने के तो भविष्य में मुझे अनेक अवसर मिले। उनका ज़िक्र मेंने अपनी पुस्तक 'अंतरंग' में काफ़ी कर भी दिया है। उस दिन इलाहाबाद जंक्शन पर तूफ़ान मेल मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट रुकी होगी। पर उतनी-सी देर में ही कमलेश्वर जी की विनोदप्रियता का जादू मेरे सिर पर चढ़ चुका था। उस प्रथम परिचय में ही मुझे उनके स्वभाव का ख़ासा अंदाज़ हो गया। आगरावाला होने के नाते, तब तक मेरी निगाह में मज़ाक़पसंदी अच्छे आदमी की पहली निशानी हुआ करती थी। ख़ैर।
'कुलटा' के संबंध में एक दिलचस्प याद अभी तक दिमाग़ में चस्पां रह गई है। उसमें उपन्यास की नायिका, मिसेज तेजपाल के पति, मेजर तेजपाल ने घर के दरवाज़े पर अपने फ़ौजी होने के तथ्य को रेखांकित करते हुए, कारतूसों का एक ख़ासा बड़ा फूल बना रखा था। 'कुलटा' पढ़ने के बाद डॉ. नामवर सिंह ने राजेंद्र को लिखे पत्र में इस कारतूस के फूल का पाठकों को चौंकानेवाली हरकत मानकर उसकी निंदा की थी। उस समय तक नामवर जी को हिंदी का अद्वितीय आलोचक मानने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। श्री शिवदान सिंह चौहान, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नगेंद्र की तूती ही बोला करती थी। नामवर जी तब उभर रहे थे। यह मेरा पूर्वाग्रह हो सकता है कि मुझे वह कारतूसों का बना फूल किसी सुंदर कविता के सुंदर और सटीक बिंब सरीखा लगा था। नामवर जी की राय से असहमत होने का मेरे लिए वह पहला मौक़ा था।
राजेंद्र चाहता था कि मैं 'कुलटा' का अँग्रेज़ी में अनुवाद कर डालूँ। उस ज़माने में हिंदी कविताओं को अँग्रेज़ी में करने का मुझ पर जुनून-सा सवार था। किंतु न जाने क्यों, मुझमें किसी गद्य रचना को अँग्रेज़ी में अनूदित करने का उत्साह जागता ही नहीं था। मैं राजेंद्र के उस अनुरोध की रक्षा नहीं कर सका था। यह अच्छा ही हुआ। क्योंकि बाद में, मुझसे कहीं अधिक सक्षम और कहीं अधिक सशक्त अनुवादक, श्री जयरतन ने उसे The Flirt शीर्षक से अनूदित कर, राजेंद्र और स्वयं अपने लिए अच्छी ख्याति अर्जित की थी।
हाँ राजेंद्र के जिस दूसरे अनुरोध को संपूर्ण हृदय से स्वीकार कर मैंने असीम संतोष और आकंठ तृप्ति का अनुभव किया था, वह था 'उखड़े हुए लोग' की प्रूफ़-रीडिंग। राजेंद्र ने उसकी छपाई का भार सौंपा था मेरे 'सिंधिया एंडेवर' के मुद्रक प्रशांत रक्षित को। रक्षित, कोमल कोठारी के समय से ही 'ज्ञानोदय' में प्रिंटिंग जॉब वर्क करता था। कोमल ने ही उसे मुझसे परिचित कराया था। कोमल के जोधपुर चले जाने के बाद जब राजेंद्र 'ज्ञानोदय' से संबंध हुआ, तो उसकी भी रक्षित के साथ घनिष्ठता बढ़ गई। रक्षित था भी यारों का यार।
मेरे इस संतोष का एक प्रमुख कारण यह भी था कि राजेंद्र ने अपने ‘सारा आकाश’ की ही भाँति इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भी आगरा की ही रखी थी। इससे पहले, सन् 1940 में, जब रांगेय राघव अपना पहला उपन्यास ‘घर्गेद’ लिख रहा था, उस समय भी मुझे उसे सुनते हुए वही सुख मिला था जो 'उखड़े हुए लोग' के प्रूफ़ अब देखते हुए। वे ही जानी-पहचानी सड़कें और गलियाँ, वे ही अपरिचित से लगते उपन्यास के पात्र और उनकी परिस्थितियों। ज्यों-ज्यों में प्रूफ़ पढ़ रहा था, राजेंद्र मुझे वापस अपने आगरा के विद्यार्थी-जीवन में ढकेले दे रहा था। बहुत ही अच्छा लग रहा था अपने बीत चुके को फिर से आँखों के सामने चलचित्र की भाँति मूर्तमान होते देखना।
'उखड़े हुए लोग' के देशबंधुजी को मैं आज तक नहीं भुला पाया हूँ। सन् 1942 में आगरा सेंट्रल जेल में जिले और प्रांत के लगभग पौने दो सौ शीर्षस्थ कांग्रेसी नेताओं के साथ दो महीने बिता लेने के बाद मैं उनकी रग-रग से वाक़िफ़ हो चुका था। सिद्धांतप्रियता और सिद्धांतहीनता, उदारता और संकीर्णता, उदात्तता और घटियापन आदि समस्त मानव मूल्यों का ऐसा भव्य सह अस्तित्व उस समय तक मुझे और कहीं देख पाने का अलभ्य अवसर नहीं मिला था। 'उखड़े हुए लोग' के देशबंधुजी में उन सभी पौने दो सौ चरित्रों को राजेंद्र ने मूर्तमान कर डाला था।
केवल देशबंधुजी के कारण ही नहीं, मैं इस उपन्यास को राजेंद्र की सर्वश्रेष्ठ कृति इसलिए भी मानता रहा हूँ कि वह, प्रेमचंद की डी परंपरा में, तत्कालीन समाज का शत-प्रतिशत एवं अत्यंत कलात्मक चित्र प्रस्तुत करता है। हाल में ही स्वाधीन हुए हमारे देश के प्रत्येक नौजवान के नेत्रों में उस समय तक सातों रंग वाले मीठे-मधुर सपने तैरा करते थे। उन्हें साकार करने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था, कोई भी क़ुर्बानी देने की उसकी मानसिक तत्परता हर समय रहती थी। बावजूद पंडित जवाहरलाल नेहरू के सच्चाई यह थी कि हमारे देश के शासन तंत्र पर नितांत अवसरवादी, मुँह में राम बग़ल में छुरी रखने वाले घाघ पूँजीपतियों और सामंती ज़मींदारों का ही क़ब्ज़ा बरक़रार था। शहीदों की चिंताओं पर हर बरस मेले लगाने का वायदा करनेवालों को अब तक धुँधियाती उन चिंताओं पर अपनी बीड़ी सुलगाने की ज़रूरत ज़्यादा महसूस होने लग गई थी।
'उखड़े हुए लोग' का शरद उन्हीं तमाम नौजवानों में से एक है जिनके वे समस्त रंगीन सपने अपने छद्म, पाखंड और दुराचार की ओर तेज़ी से दौड़ लगा रहे हमारे देशबंधुओं की वास्तविकता से परिचित होने की प्रक्रिया में क्रमशः ध्वस्त होते चलते हैं। उनके हाथ लगती है केवल निराशा, हताशा और कुंठा और उनके दिन-दिमाग़ पर जमी ही चली जाती है मोहभंग की परत-दर-परतें। पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों से हमारे देश का बच्चा-बच्चा स्वानुभव से इसी दारुण क्लेशकर स्थिति से भली-भाँति परिचित ही तो होता चला आ रहा है।
राजेंद्र के इस उपन्यास में आज फूल-फल रही विषम परिस्थितियों के बीज स्पष्ट देखे जा सकते हैं। मेरे निकट यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है। शरद, जया, देशबंधुजी और उनकी प्रियतमा मायादेवी तथा क्रांति का 'बिगुल' बजाने की कामना पोसता 'एंग्री यंग' पत्रकार सूरज इन मुट्टी-भर पात्रों को लेकर चलनेवाला 'उखड़े हुए लोग' इन पाँच पात्रों के माध्यम से हमारे समाज का उस समय सच लगनेवाला दर्पण हमें दिखलाता प्रतीत होता है।
इस उपन्यास के प्रूफ़ पढ़ने के दौरान मेरी एक विशिष्ट उपलब्धि यह भी रही कि तब तक मेरी आँखों पर चढ़ रहे माइनस सात वाले चश्मे का पॉवर बढ़ते-बढ़ते माइनस बारह तक पहुँच गया। उस ज़माने में किताबें हाथ से कंपोज़ हुआ करती थीं। कलकत्ता के अधिकांश प्रेसों के मालिक बँगाली होते थे। वे अपने यहाँ अलग से प्रूफ़ रीडर कम ही रखते थे। उनकी निगाह में हिंदी का मैटर कंपोज़ करने वाले कर्मचारी के लिए हिंदी की अच्छी जानकारी क़तई ग़ैर-ज़रूरी थी। पुस्तक ठीक-ठाक छप जाए, इसका उत्तरदायित्व उनके प्रेस का नहीं, लेखक अथवा उसके द्वारा नियुक्त किए गए प्रूफ़ रीडर मित्र का हुआ करता था।
वह तो कहिए, प्रशांत रक्षित मेरा अच्छा दोस्त था और साथ-साथ 'सिंधिया एंडेवर' का मुद्रक भी। लिहाज़ा मेरे जैसे स्वघोषित नौसिखिए प्रूफ़ रीडर द्वारा बार-बार छोटी-बड़ी ग़लतियाँ खोज निकालने पर वह बिना खीजे, बिना झुँझलाए फिर से पूरी गैली का मैटर कंपोज़ करने दे दिया करता। वैसे भी, यह प्रूफ़ पढ़ने का काम है भी तो घर बुहारने सरीखा ही। जितनी बार बुहारेंगे, थोड़ी-बहुत धूल तो समेट ही लेंगे। अतएव प्रत्येक फर्मे को पाँच-छः बार झाड़ने-पोंछने का यह अंजाम तो होना ही था कि भविष्य में मैं गर्व से कह सकूँ कि मैं ही नहीं, मेरा चश्मा भी बड़ा पॉवरफुल है।
'उखड़े हुए लोग' का प्रकाशन राजकमल से हुआ था, मगर शायद राजेंद्र का आग्रह था कि उपन्यास उसकी देख-रेख में ही छपेगा। उसकी व्यवस्था के अंतर्गत उपन्यास कलकत्ता में छपना था और बिल राजकमल को दिया जाना था।
पुस्तक प्रकाशित होकर आते ही एक बड़ा रोचक प्रसंग बताए बिना नहीं रहा जा रहा है। कॉफ़ी हाउस के हमारे मित्र साहित्यकारों में से अधिकतर लोगों को तो राजेंद्र ने अपनी आदत के मुताबिक़ अंदाज़ ही नहीं होने दिया था कि उसका नया उपन्यास कहाँ और कैसे छप रहा है। प्रकाशन के दो-तीन दिन बाद एक शाम 'सनीचर' के सुप्रसिद्ध (?) संपादक ललितजी मुझे कॉफ़ी हाउस से बाहर ले जाकर अत्यंत रहस्यमय ढंग से मेरे कानों में लगभग फुसफुसाते हुए कहने लगे, ठाकुर साब, आपको पता है, यादव ने अपने नए उपन्यास में आपकी और कृष्णाचार्य जी की बड़ी बुराई की है? आपको उसने खुलेआम अपना पुराना दुश्मन घोषित किया है और बेचारे कृष्णाचार्य जी को तो उसने पागल करार दे दिया है। आप दोनों को उस पर कोई कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। मैं आपके साथ हूँ। और भी बहुत-से साहित्यकार आपके पक्ष में रहेंगे।
उस समय मेरे लिए उस बेचारे ललित की समझ पर तरस खाने के अलावा और कोई चारा था नहीं। ललित बड़ी तेज़ी से उस जमांत में शामिल होता जा रहा या जिसके लिए गोसाईजी 'जे बिनु काज दाहिने बाएँ' वाली चौपाई लिख गए हैं। सो उस समय तो मैंने यह कहकर अपनी जान छुड़ा ली कि उस वक्त तक मुझे 'उखड़े हुए लोग' की प्रति राजेंद्र ने दी ही नहीं। मिलते ही, उसे पढ़ लेने के बाद में ललित से अवश्य संपर्क कर उसकी सलाह के मुताबिक़ जो करना होगा, ज़रूर करूँगा।
उसके चले जाने के बाद में तो मारे हँसी के फटा जा रहा था। वापस कॉफ़ी हाउस में जाकर जब मैंने यारों को यह क़िस्सा सुनाया तो हम सब बड़ी देर तक जी खोलकर हँसते रहे थे। हुआ यह था कि राजेंद्र ने प्रस्तावना का आरंभ ही यह कहते हुए किया था कि 'कृष्णाचार्य को समझदारी के दौरे आते हैं। और अंतिम पैरा में आभार प्रदर्शन करते हुए लिख दिया था कि 'मनमोहन ठाकौर तो मेरे पुराने दुश्मन हैं।' दोनों ही वाक्यों में उसने हमारे प्रति अपने गहरे स्नेह का इज़हार किया था। लेकिन अभिधा तक स्वयं को सीमित रखनेवाले धुरंधरों की न तब कोई कमी थी, न आज है। रांगेय राघव के शब्दों में एक ढूँढ़ो, हज़ार घर पर आकर टक्कर मारते हैं।
इस उपन्यास ने राजेंद्र के उपन्यासकार पर बाक़ायदा स्वीकृति की मुहर लगा दी। अब अपने लेखन को प्रकाशित करने के लिए उसे प्रकाशकों के दरवाज़े खटखटाने की ज़रूरत नहीं रह गई। उसके लिए उस समय के सभी प्रतिष्ठित प्रकाशकों के द्वार उन्मुक्त हो गए। वह धड़ल्ले से प्रकाशित भी होने लगा और उसकी कृतियाँ चर्चित भी ख़ूब होने लगीं।
उन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ का कार्यालय कलकत्ता में ही था। श्रीमती रमा जैन के सक्रिय संरक्षण तथा श्री लक्ष्मीचंद्र जैन के कुशल निर्देशन में ज्ञानपीठ लगातार प्रकाशन किए जा रहा था। उनका 'ज्ञानोदय' भी जगदीश जी के सधे संपादन में देश-भर में अपने झंडे गाड़ रहा था। वे सन् 1956 में ही राजेंद्र यादव का कहानी संग्रह, 'खेल-खिलौने' प्रकाशित कर चुके थे। अब उन्होंने उसके द्वारा अनूदित 'चेखव के तीन नाटक' और उसके साथ उसका एकमात्र कविता संग्रह 'आवाज़ तेरी है' को प्रकाशित कर राजेंद्र के लेखन का एक अल्पख्यात आयाम भी उद्घाटित कर डाला था।
अठारह से अट्ठाईस के बीच का क़रीब-क़रीब हर नौजवान अपने दो शौक़ तो पूरे कर ही लेता है। एक तो वह जहाँ भी, जैसी भी सहज ही उपलब्ध हो जाए, उसके साथ प्रेम अवश्य करने लग जाता है। और दूसरे, वह उसकी शान में क़सीदों का ढेर लगाने लग जाता है। राजेंद्र भी उम्र के उस दौर में इन दोनों स्थितियों से गुज़र रहा था। लिहाज़ा, आगरा के उदीयमान कवि, श्री राजेंद्र सिंह यादव 'कण' ने कलकत्ता से पहले ही अपने कण का तो झाड़ फेंका था पर अपनी काव्य प्रतिभा की प्रेरणास्रोत को 'आवाज तेरी है' की ईमानदार स्वीकृति देकर अपना कविता संग्रह ज्ञानपीठ से प्रकाशित करवा लिया।
सन् 1956-57 का यह काल राजेंद्र के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रहा था। उसकी लेखकीय प्रतिभा तथा ऊर्जा तेज़ी से विकसित होती चली जा रही थी और उसी अनुपात में विकीर्णित होती जा रही थी उसकी ख्याति। अब उसे स्वीकृति पाने की चेष्टा ने कविता, कहानी, उपन्यास, अनुवाद आदि-आदि विभिन्न विधाओं में क़लम भाँजने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। अब यह स्थिरचित्त से स्वयं को उपन्यास-लेखन तक ही सीमित रखने में सक्षम हो गया था।
शायद उसने बहुत पहले ही समझ लिया था कि अच्छे लेखन के लिए अधिक-से-अधिक और लगातार पढ़ते रहना पहली शर्त होती है। इसीलिए मैं तब भी उसके कमरे में जान-जहान की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का अंबार लगा देखता था, आज भी देखता हूँ। उस अंबार को देखकर तब भी मेरी लार टपकती थी, आज भी टपकती है। तब भी राजेंद्र के उस ज़ख़ीरे से मुझे ईष्या होती थी, आज भी होती है। लेकिन चढ़ती जवानी में ही गहन स्वाध्याय का मंत्र सिद्ध कर लेने का ही नतीजा है कि एम. ए. क्या साहित्यरत्न राजेंद्र यादव आज सिर्फ़ हिंदी की नहीं, यूरोप और अमरीका के साहित्यिक रुझानों पर 'हंस' के संपादकीय से साधिकार फतवे देता रह सकता है।
सन् 1956-57 के ये दो वर्ष राजेंद्र की निजी ज़िंदगी के लिए भी उतने ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए थे। इसी दौरान उसका मन्नू जी के साथ परिचय हुआ था। तब मन्नू जी कलकत्ता में ही बालीगंज शिक्षा सदन में हिंदी की अध्यापिका थीं। मेरे घर के काफ़ी नज़दीक लैंसडाउन रोड पर अपने बहनोई श्री पराक्रम सिंह भंडारी के साथ रहती थीं। महानगर के प्रख्यात समाजसेवी श्री भगवती प्रसाद खेतान ने उनके स्कूल की लाइब्रेरी में हिंदी पुस्तकों के लिए दो हज़ार रुपयों का अनुदान दिया था। मन्नू जी पर पुस्तकों के चयन का दायित्व आया तो वे जा पहुँचीं नेशनल लाइब्रेरी और वहाँ संयोगवश उनसे टकरा गए श्रीमान राजेंद्र यादव। कृष्णाचार्य ने परिचय कराया तो मन्नू जी ने राजेंद्र जी से पुस्तकों के चयन में हाथ बँटाने का अनुरोध कर डाला। राजेंद्र जी तो जन्म से आज तक महिलाओं के किसी भी अनुरोध को आज्ञा ही मानते चले आए हैं ओर पवनपुत्र हनुमान की भाँति ‘राम-काज करीबे को आतुर’ रहते हैं।1
नतीजे में उसी दिन शाम ढलते ही वे सीधे आ पहुँचे थे 5 ए, ग्रीक चर्च रो और मजबूर कर डाला था मुझे अपने साथ मन्नू जी के घर जाने के लिए। राजेंद्र को मालूम था कि मन्नू जी, उनकी बड़ी बहन सुशीला जी और बहनोई, श्री पराक्रम सिंह भंडारी के साथ मेरी जान-पहचान कोमल कोठारी दो-तीन वर्ष पहले ही करवा गया था। अतएव उस शाम उसने मेरा उपयोग गेट-पास के रूप में कर डाला। उस दिन लगभग दो घंटे तक राजेंद्र जी मन्नू भंडारी के साथ न जाने कहाँ-कहाँ की बातें करते रहे। मैं तो प्रायः मूक-बधिर श्रोता बना कुर्सी पर अपने कोण बदलता बैठा रहा। मुझे बात करने का कोई 'स्कोप' ही नहीं दिया था, न मन्नू जी ने, न राजेंद्र ने। कान मेरे उन दिनों वाक़ई ख़राब थे। अतः उनकी बातें सुनने की भी कोई गुंजाइश नहीं थी।
लेकिन माहौल में ऐसा कोई अव्यक्त तत्त्व व्याप्त हो रहा था कि मेरी छठी हिस ने मेरे दिमाग़ में ख़तरे की घंटी बजा दी। मन्नू जी से विदा लेने के बाद नीचे उतरते ही मैंने राजेंद्र को उस घर में, जिसके साथ मेरे धनिष्ठ पारिवारिक संबंध स्थापित हो चुके थे, कोई अवांछनीय हरकत न कर बैठने की सख़्त ताकीद भी कर दी। जवाब में राजेंद्र उल्टे मेरी ही मलामत करते हुए झिड़क दिया था कि 'बड़ा गंदा दिमाग़ है आपका, ठाकुर साब। हमेशा ग़लत सोचते हैं। किंतु आख़िरकार मेरी आशंका सच साबित हुई और राजेंद्र और मन्नू जी नज़दीक आते ही चले गए।
सन् 1957 हमारे प्रथम स्वाधीनता संग्राम की शताब्दी का वर्ष था। मन्नू जी के बालीगंज शिक्षा सदन की प्रिंसिपल, पुष्यमयी बोस ख़ुद भी कम्युनिस्ट पार्टी के काफ़ी निकट थीं। उन्होंने अपने स्कूल में इस शताब्दी के उपलक्ष्य में एक सात दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन किया। मन्नू जी को उसका संयोजन करना था। उन्होंने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालनेवाले सात भाषणों की व्यवस्था कर दी। उद्घाटन भाषण देना था श्री मोहनसिंह सेंगर को स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता के योगदान के संबंध में। उसके बाद बोलना था मुझे, कांग्रेस की स्थापना से लगाकर स्वाधीनता प्राप्ति तक के इतिहास पर। दोनों भाषण ठीक-ठाक निबट गए।
तब बारी आई तीसरे व्याख्यान की—स्वाधीनता संग्राम में हिंदी साहित्य की भूमिका। भाषण देने वाले थे श्री राजेंद्र यादव। आज तो सोच पाना भी असंभव होगा, परंतु वास्तविकता यह थी कि उस दिन राजेंद्र की घिग्घी बँध गई थी। वह एक शब्द भी नहीं बोल पाया था, उन नन्हीं-नन्हीं स्कूली छात्राओं और उनकी प्राध्यापिकाओं के हज़ार इसरार के बावजूद। पर जान पड़ता है, उस दिन के बाद से राजेंद्र ने डिमास्थनीज की भांति, स्वयं को आमूलचूल परिवर्तित करने की ठान ली। नतीजे में, आज तो वह धड़ल्ले से बोलता चला जाता है—सामने कौन बैठा है, कौन नहीं की चिंता किए बग़ैर। अपनी घनघोर-से-घनघोर विवादग्रस्त मान्यताओं को भी निस्संकोच अभिव्यक्ति देने से तनिक भी हिचके बग़ैर।
राजेंद्र और मन्नू जी के रोमांस के समानांतर ही चल रहा था कृष्णाचार्य जी का अपना प्रेम-प्रसंग। कृष्णाचार्य भरी जवानी में विधुर हो गए थे। उनकी एक पुत्री तो फिर भी कुछ बड़ी हो चली थी, एक पुत्र और एक पुत्री तो अभी बच्चे ही थे। ऐसी कच्ची गृहस्थी को संभालने के लिए बड़े धैर्य और जीवट की ज़रूरत पड़ती है। कृष्णाचार्य में ये दोनों गुण थे भी। परंतु वह बेचारा भी कब तक पराई स्त्री को बहन-बेटी समझता रहता? ख़ासकर उस स्थिति में जब नेशनल लाइब्रेरी में सुबह से शाम तक वी. ए. एम. ए. तथा पी. एच. डी. की शोघ-छात्राएँ आचार्य के चारों ओर भिनभिनाती रहती हों। आख़िर इस विश्वामित्र को भी एक मेनका ने खोज ही निकाला। कृष्णाचार्य और कुमारी विजयलक्ष्मी रस्तोगी को नेशनल लाइब्रेरी के विशाल, विस्तृत तथा वृक्षाच्छादित परिसर में नित्य नए एकांत खोज निकालने में क़तई कोई कठिनाई कभी नहीं होती थी।
कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते। राजेंद्र का नहीं छिप पाया था। कृष्णाचार्य एकदम छिपा ले गए थे। कॉफ़ी हाउस में राजेंद्र तो 'हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स' में जा बैठता था, मुझे 'हाउस ऑफ़ कॉमन्स' में यारों के चटखारे भरी अफ़वाहों, धारदार व्यंग्य-वाणों और जिज्ञासा भरे प्रश्नों को झेलना पड़ जाता था। उधर, इस संबंध में राजेंद्र कभी कोई चर्चा करता नहीं था, और मन्नू जी से कुछ पूछ पाना मेरी शराफ़त को गवारा नहीं था। तो मैं लोगों को क्या बताता?
हक़ीक़त यह है कि ख़ुद अपनी निगाह में राजेंद्र चाहे जितना चालाक बने, है वह बेहद सादालौह इंसान। वह अपने राज़ को सात पर्दों में छिपाए रखने की जितनी ज़्यादा कोशिश करता है, अपनी किसी-न-किसी हरकत से उतनी ही जल्दी उसका पर्दाफ़ाश भी कर देता है। उसकी इस कमज़ोरी से मैं भी बख़ूबी वाक़िफ़ हूँ और कमलेश्वर तथा मोहन राकेश भी भली-भाँति परिचित थे। इसीलिए वे दोनों राजेंद्र को केंद्र कर ढेरों मज़ाक़िया क़िस्से गढ़-गढ़कर मज़ा लेते रहते थे।
इस दिशा में महाशय कृष्णाचार्य जी कहीं अधिक चौकन्ने सिद्ध हुए। उन्होंने किसी को कानों-कान ख़बर तक न होने दी। कदाचित् उस नितांत निरीह, भद्र दिखने वाले प्रौढ़ से उस क़िस्म की उम्मीद हममें से किसी ने दूर-दूर तक नहीं की थी। पर वह भला आदमी तो पोखरन-दो के अणु-विस्फोट की भाँति धमाके करने के बाद ही सूचना प्रसारित करने निकला था। एक दिन सुबह साढ़े नौ बजे मैं दफ़्तर जाने के लिए सड़क पर उतर ही रहा था कि हजरत नमूदार हुए और बिना किसी भूमिका के मुझे अपने साथ मैरिज रजिस्ट्रार के दफ़्तर चलने का फ़रमान सादिर कर बैठे। बोले, उन्हें तीन गवाहों की ज़रूरत थी। सो एक तो रहेंगे उनके सहकर्मी श्री नागराज, दूसरा मैं और तीसरे सज्जन का नाम मुझे इस वक़्त याद नहीं आ रहा।
पर आज अच्छी तरह याद है कि उस दिन शनिवार था और तब तक शनिवार को हमें दफ़्तर में आधे दिन, डेढ़ बजे तक, काम करने के बाद ही छुट्टी मिल पाती थी। मुझ पर मेरा क्लर्कों वाला मध्यमवर्गी लोभ सवार हो गया। मैंने सोचा कि आधे दिन के लिए, पूरे दिन की छुट्टी क्यों बर्बाद की जाए। अतएव मैंने सड़क पर खड़े-खड़े ही कृष्णाचार्य को अपने स्थान पर कमला को बतीर गवाह ले जाने को राज़ी कर लिया। साथ ही उससे यह वादा भी करा लिया कि रजिस्ट्रार के दफ़्तर से निवृत्त होते ही वह और विजयलक्ष्मी मेरे घर आकर ही मुँह मीठा करेंगे।
कृष्णाचार्य विवाह तो चुपचाप जाकर कर आए परंतु विजयलक्ष्मीजी को पत्नी बना कर अपनी गृहस्थी में प्रवेश कराने में उन्हें काफ़ी पापड़ बेलने पड़े। लगभग तीन-चार महीने बाद पता चलने पर विजया जी के परिवार वालों ने ख़ासा बावेला मचाया। मामला मारपीट की हद तक जाता-जाता बचा। कुछ समय के लिए विजया जी को एक कमरे में ताला बंद कर रख छोड़ा गया। क़रीब छः महीने लग गए थे विजया जी की ज़िद के सामने उन्हें घुटने टेक देने में। और तब एक दिन हम सब बराती, कृष्णाचार्य को घोड़ी पर बैठाकर, बाजे-गाजे के साथ विवाह-मंडप तक ले गए और आधी रात के वक़्त दुल्हन विजया जी को नेशनल लाइब्रेरी वाले फ़्लैट में ला पाने में समर्थ हो सके।
उस विवाह-प्रसंग की चर्चा इतने विस्तार से अकारण ही नहीं कर रहा हूँ। इस विवाह में शैतान राजेंद्र के मज़ाक़ ने ही मदन बाबू के साथ मेरी घनिष्ठता संभव कर दी थी। हुआ यह कि बाक़ायदा सात फेरे डालकर शादी करने का फ़ैसला लिए जाने के बाद, मित्रों को विवाह के निमंत्रण-पत्रों का एक बंडल कृष्णाचार्य ने मुझे भी थमा दिया। बातों-बातों में मैं कह बैठा कि अगर किसी ने पूछ लिया कि मैं किस हैसियत से ये कार्ड बाँट रहा हूँ, तो मैं क्या कहूँगा। इस पर कृष्णाचार्य ने उसी रौ में कह डाला था; कह दीजिएगा कि आप मेरे बाप हैं। ठीक इसी प्रकार वे मदन बाबू के घर जाकर उसकी धर्मपत्नी प्रतिभा जी से विवाह में माँ के कर्तव्य निभाने का अनुरोध कर आए थे।
उस समय तक मेरा न मदन बाबू के साथ प्रत्यक्ष परिचय हुआ था, न प्रतिभा जी के साथ। राजेंद्र दोनों को जानता था। तो, जब हम लोग बरात में शामिल होने के लिए कृष्णाचार्य के घर जमा हुए राजेंद्र ने पहले तो मदन बाबू को मेरा परिचय कृष्णाचार्य के बाप के रूप में दिया और फिर वहीं खड़े-खड़े प्रतिभा जी को पास बुलाकर मदन बाबू से पूछने लगा, “इन्हें जानते हैं? ये हैं कृष्णाचार्य की माँ।” इसके फ़ौरन बाद उसने कृष्णाचार्य को बीच में खड़ा कर एक फ़ोटो भी खिंचवा डाली, “ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत काम आए।“
लोग ठहाके लगा रहे थे। मेरा चेहरा बैंगनी पड़ता जा रहा था। प्रतिभा जी का लाल हो रहा था। मदन बाबू और कमला हँस-हँसकर दुहरे हो रहे थे। पूरा माहौल शादी-हँसी-ख़ुशी से भर गया था राजेंद्र की इस निश्छल विनोदप्रियता के कारण। बनारस के आपादमस्तक रससिक्त मदन बाबू की उदार ज़िंदादिली ने मुझ आगरा वाले के विनोदप्रिय हृदय पर बहुत ही गहरा असर छोड़ा था। फिर तो हम दोनों इस तेज़ी से एक-दूसरे के निकट आते चले गए थे कि साल-दो साल बीतते-न-बीतते प्रतिभा जी ने मुझे अपनी 'सौत' घोषित कर डाला।
राजेंद्र के माध्यम से जिन दो परिवारों ने मुझे और मेरे समूचे परिवार को आज तक अपना अटूट स्नेह दिया है वे हैं मदन बाबू-प्रतिभा अग्रवाल का तथा श्री श्यामनारायण तथा श्रीमती प्रतिभा नारायण का। बल्कि, राजेंद्र के दिल्ली आ-बसने के बाद तो इनके द्वारा राजेंद्र की अपेक्षा मुझ पर होने वाली स्नेहदृष्टि की मात्रा और भी बढ़ गई थी। 1979 में मदन-बाबू के नितांत अकल्पित एवं अप्रत्याशित निधन तथा नारायण साहब के कलकत्ता छोड़कर मसूरी-अहमदाबाद जा बसने के बावजूद गत चार दशकों में उक्त स्थिति में रंचमात्र परिवर्तन नहीं आया है। 'ज्यों-ज्यों भीगे स्यामु रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।'
एक से बढ़कर एक अनेक प्यारे-प्यारे लोगों की निकटता प्राप्त कर लेने के लिए ही राजेंद्र के सौ ख़ून माफ़ हो जाने चाहिए थे। उसने तो इससे आगे बढ़कर भी कई अच्छे काम किए हैं—कम-अज-कम मेरे संदर्भ में तो किए ही हैं। मेरे ख़िलाफ़ राजेंद्र की शुरू से ही शिकायत रही है कि दोस्त उसके होते हैं, और उन्हें पटा में लिया करता हूँ। ग़नीमत है कि उसका यह आरोप उसके पुरुष मित्रों के ही संबंध में हुआ करता है। महिला मित्रों को तो यदि उसका वश चले तो असूर्यंपश्या बनाकर रख छोड़े। बहरहाल उसके पुरुष मित्रों को मेरी मित्रता भी स्वीकार हो जाए—कुछ ज़्यादा ही हो जाए—तो उसमें मेरा क्या दोष?
घनश्याम अस्थाना उसका मित्र था। आगरा कॉलेज में दोनों ने साथ-साथ वी. ए. किया। फिर अगले दो वर्ष राजेंद्र हिंदी में एम. ए. करता रहा, घनश्याम अँग्रेज़ी में। दोनों हमउम्र थे। दोनों कवि थे। दोनों सहपाठी। घनश्याम का चाचा पूरनचंद अस्थाना मेरे साथ गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ता था। घनश्याम का तब कहीं अता-पता भी नहीं था। घनश्याम को कलकत्ता आने का निमंत्रण भी राजेंद्र ने ही दिया था। आकर वह रुका भी राजेंद्र ही के साथ था।
अलबत्ता यह शराफ़त राजेंद्र की ही थी कि वह उसे मुझसे मिलवाने मेरे घर ले आया। फिर कुछ ऐसा हुआ कि एक-दो दिन बाद ही घनश्याम का ज़्यादातर वक़्त मेरे साथ गुज़रने लग गया। घनश्याम रांगेय राघव का फ़ैन था। उसने रांगेय राघव से हमारे ज़माने के ढेर सारे क़िस्से सुन रखे थे। वह ख़ुद भी मेरे मुहल्ले के पास ही गोकुलपुरा का रहनेवाला था। हमारे परस्पर जाननेवालों की तादाद काफ़ी थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह और मैं दोनों ही खुलकर कहकहे लगा लेते थे। इसलिए हमारी मित्रता को गाढ़ी होते तीन-चार दिन भी नहीं लगे।
यही हुआ था चंदर के साथ। चंदर, अर्थात् चंद्रप्रकाश अग्रवाल। उसकी भी राजेंद्र के साथ आगरा से ही मित्रता हो चुकी थी। दिल्ली का आदिम निवासी चंदर भी आगरा कॉलेज का ही छात्र था। यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा ली जाने वाली देश की उच्चतम परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद उसे साउथ ईस्टर्न रेलवे की विभिन्न ट्रेनिंग लेने खड़गपुर भेजा गया था। वहाँ से अक्सर शनि-रवि चक्कर में बेचारा जगतियानी भी पाक-दामन बना रहने पर बाध्य हो जाता। मुझसे बहुत छोटा था, इसलिए उसके चरित्र की भी ज़िम्मेदारी मुझे ही संभालनी पड़ रही थी। इलायची-पीपरमेंट डला पान चबा लेने के बाद ही हम घर वापस लौटा करते थे।
घर में घुसते ही गुलाब थकान के बहाने अपने बिस्तर पर जा पसरता था। मैं जा बैठता था बाई के पास। बाई अर्थात् राजेंद्र जननी। एक बड़ी मज़ेदार बात लक्ष्य की थी मैंने उन तीन दिनों में, बाई ‘टोटल माँ’ थी जिसकी चिंतन और जिसकी भावनाओं के केंद्र में चौबीसों घंटे उसके राजो, सत्त, भूपे, मुन्ना, कुसुम, माधवी, सुमन, अरुणा और दोनों बेबियों उपस्थित रहा करतीं। मुझसे अपने राजे के कलकत्ता प्रवास-काल की दिनचर्या के बारे में खाद-खोदकर सवालों-पर-सवाल करती बाई उस बार मुझे मैक्सिम गोर्की की 'माँ' की याद दिलाती रही थीं।
बाई के साथ बातें करने में मुझे बड़ा मज़ा आता था। बाई थी भी अद्भुत व्यक्तित्व की धनी। महाराष्ट्र के अमरावती नगर में जन्मी, पली-बढ़ी बाई की मातृभाषा मराठी थी। हिंदी तो उसने सोलह-सत्रह वर्ष की आयु में विवाह होने के बाद सीखी। 1958 तक बाई ख़ासी अच्छी हिंदी बोल लेती थी। पर बीच-बीच में, साफ़ झलकता रहता था कि हिंदी उन्होंने सीखी है, उनकी अपनी ज़बान नहीं है।
उस बार एक और बड़े दिलचस्प तथ्य का पता चला था मुझे। ख़ुद राजेंद्र के पिताजी की पढ़ाई-लिखाई उर्दू में हुई थी, हिंदी में नहीं। वे भी उन असंख्य लोगों में एक थे जो देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता, चंद्रकाकांता संतति, भूतनाथ आदि पढ़ने की ख़ातिर हिंदी सीखने पर मज़दूर हो गए थे और इसी कारण राजेंद्र यादव की शिक्षा-दीक्षा भी अलिफ़-बे-पे-ते से आरंभ हुई थी, अ-आ इ-ई से नहीं। उसने भी खेल के मैदान में पाँव पर लगी गहरी चोट की वजह से क़रीब तीन साल तक अस्पताल और घर में शैया-सेवन करने की मजबूरी के दौरान ही हिंदी का अभ्यास आरंभ किया था।
बाई के साथ बातें करते समय हम दोनों ही घूम-फिरकर राजेंद्र की शादी के प्रश्न पर टिक जाया करते। बाई को चिंता सता रही थी कि उसका राजे अब तीस का होने आ गया था। अब तो उसका विवाह हो ही जाना चाहिए। इस विषय में मेरी भी गहरी दिलचस्पी थी। साथ ही, मुझे यह देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ था कि बाई को भी राजेंद्र और मन्नू जी के बीच चल रहे चक्कर की ख़ासी जानकारी हो चुकी थी। कदाचित् सुमन ने कलकत्ता में उसकी गंध सूँघ ली थी। इस दिशा में महिलाओं की घ्राणशक्ति पुलिस के खोजी कुत्तों की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र हुआ करती है। और यों भी, इश्क़ और मुश्क कब किसी के छुपाए छुपे हैं?
बाई की भावी पुत्रवधू के संबंध में अपनी राय जताने से पहले मैंने बाई से उसकी अपेक्षाएँ जान लेनी चाही थीं। बाई ने एक वाक्य में अपने दिल की बात कह दी थी—“भैया, तुम्हारी कमला जैसी कोई गुजराती लड़की होनी चाहिए—देखने में गोरी, स्वभाव की हँसमुख और घर के कामकाज में हमेशा आगे।” कुछ ही दिन पहले, बूँदी जाते समय, कमला बाई के साथ कुछ घंटे बिता ही नहीं गई थी, पूरे यादव परिवार पर अपना सिक्का जमा गई थी।
लेकिन उस दिन बाई और उसे घेरकर बैठी लड़कियों को में यह समझाने में समर्थ हो गया था कि कमला जैसी तो दुनिया में सिर्फ़ कमला ही गढ़ी जा सकी थी क्योंकि उसके बाद वह साँचा बूढ़े अल्लाह मियाँ के काँपते हाथों से छिटककर चूर-चूर हो गया। अतएव, मैंने आम चर्चा को ख़ास बनाने के उद्देश्य से, दबे-दबे लहज़े में, जब राजेंद्र की आगरावाली पसंद की ओर इशारा किया, तो उसकी बेहद तीखी प्रतिक्रिया सुनकर में तो स्तंभित ही रह गया। कारण पूछने पर मुझे बताया गया कि जो तितलियों की तरह दिन-भर साइकिल और बाद में स्कूटर पर इधर-उधर भटकती रहती हो, वह मर्दानी लड़की यादव-परिवार की सबसे बड़ी भाभी के उच्च सिंहासन पर कदापि अभिषिक्त नहीं की जा सकती।
मुझे याद आया कि उस बेचारी के संबंध में कमला ने भी कुछ ऐसी ही राय लिख भेजी थी। बूँदी जाने से पहले राजेंद्र ने कमला से उस लड़की से मिलकर अपनी 'निष्पक्ष' राय बताने का अनुरोध कर दिया होगा। अपने दायित्व का पालन करते हुए कमला ने बूँदी पहुँचे बाद मुझे लिखे पत्र में सूचना दी थी कि उसे तो वह लड़की सूरत-शक्ल, चाल-ढाल, बोलचाल, सबसे 'पठान' लगी। अब राजेंद्र की बहिनों की समवेत राय सुनने के बाद मेरा यक़ीन और भी पक्का हो गया था कि नारी ही नारी की शत्रु होती है। मुझे उसे देखने का आज तक अवसर नहीं मिला है। अतएव इस संबंध में कोई भी राय देने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। परंतु जितना भर सुना-समझा है, उसके आधार पर मेरी समस्त सहानुभूति उस महिला के साथ है जिसने निष्ठापूर्वक राजेंद्र के प्रति आज तक प्रेम का निर्वाह किया है।
बहरहाल, उस समय तो हम राजेंद्र के प्रेम नहीं, विवाह की समस्या से जूझ रहे थे। इसलिए जब इस सिलसिले में मन्नू जी का नाम उठा, तो मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि बाई को उसमें कोई ऐतराज़ नहीं था। बल्कि वे तो 'इतनी पढ़ी-लिखी, कमाती-धमाती और नाम की हुई लड़की' के साथ राजेंद्र के विवाह की कल्पना मात्र से गद्गद् हो रही थीं। बहुत कुछ यही स्थिति राजेंद्र की बहिनों की भी थी। उस समय तक मन्नू जी की 'मैं हार गई' और 'तीन निगाहों की तस्वीर' ने हिंदी के पाठकों में धूम मचा दी थी।
स्वीकार करता हूँ कि स्वयं मन्नू जी का पक्षधर होने के बावजूद, मुझे उन लोगों की यह प्रतिक्रिया अत्यंत विडंबनापूर्ण लगी। एक जानी-पहचानी लड़की जिसके साथ राजेंद्र का काफ़ी अरसे से चक्कर चल रहा था, उसकी आधुनिकता को तो वे पचा नहीं पा रही थीं, और एक अनदेखी, अनजान मन्नू जी की आधुनिकता को वे न केवल आत्मसात् करने को प्रस्तुत थीं, बल्कि उसमें वे कहीं गर्व और गौरव दोनों अनुभव कर रही थीं। मेरे दिमाग़ में दो कहावतें एक साथ चक्कर काटने लग गई थीं—पहली, अति परिचयात् अवज्ञा और दूसरी, दूर के ढोल सुहावने।
आज जब पीछे मुड़कर उस दृश्य को स्पष्ट देख रहा हूँ तो एक और बात पर भी मुझे हँसी आ रही थी। उस निरीह आगरावाली लड़की को उसके खुले, मुक्त व्यवहार पर अस्वीकार करने को तत्पर उन लड़कियों में से अधिकांश ने ख़ुद प्रेम करने के बाद ही विवाह किए हैं और आज उनमें उस मध्यवर्गीय पिछड़ी मनोवृत्ति का कहीं कोई अंश तक दिखाई नहीं देता। राजेंद्र यादव के परिवार की उस कस्बाई मनोवृत्ति को जकड़े, आगरा में जमे बैठे हैं केवल राजेंद्र के तीसरे भाई, भूपेंद्र यादव जिनकी उच्चतम महत्त्वाकांक्षा का आदि और अंत उनके पिताजी द्वारा बनवाए गए मकान पर सालिम क़ब्ज़ा कर लेने तक ही सीमित है।
उस बार आगरा में बिताए गए तीन दिनों में एक बात साफ़ समझ में आ गई थी कि उसका सारा परिवार राजेंद्र को बेहद प्यार करता था और वे सभी राजेंद्र के विवाह की उत्सुक प्रतीक्षा कर रहे थे। उसकी एकमात्र चिंता यही थी कि राजेंद्र का ऊँट किस करवट बैठेगा। उस ज़माने के राजेंद्र में आज के राजेंद्र से बहुत फ़र्क़ था भी। आज तो अपने लेखन और भाषणों से आपके सम्मुख वह एक ऐसे बुद्धिजीवी के रूप में उपस्थित होता है जो अपनी मान्यताओं को हठधर्मी की सीमा तक जकड़े रहता है, उनकी ख़ातिर लोकप्रियता भी निरंतर दाँव पर लगाता चलता है। लेकिन 1958 में स्थिति ऐसी नहीं थी। राजेंद्र की अनिश्चयता बार-बार स्पष्ट होती रहती थी। ख़ासकर अपने बारे में कोई निर्णय लेने से पहले वह अपनी भावनाओं से कहीं अधिक अपने आसपास के लोगों की राय पर भरोसा करता था।
इन लोगों की विडंबना यही रही कि बार-बार यह कहते रहने पर भी कि हज़ारों सालों से पुरुष ने स्त्री को देह से अधिक कुछ भी नहीं माना और उसकी देह के स्वामित्व पर ही उसने संस्कृति का सारा वितान खड़ा कर लिया, इन्होंने उसकी देह को नकारकर उसे यह समझाना शुरू कर दिया कि देह की क्या पवित्रता, क्या अपवित्रता? एक बार रगड़कर ही देह फिर से तरोताज़ा हो जाती है। इसलिए नहा लेते यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्। इनका विश्वास था कि आज के युग में विवाह संस्था नितांत अप्रासंगिक होती जा रही है। कौन किसके साथ हमबिस्तर होता है, इसका कदापि कोई महत्त्व नहीं जब जिसका जिससे जी मिल जाए उस युग्म को जी में आए, करने की छूट होनी चाहिए। उनकी निगाह में क्रांति का यह देहिक मुद्दा आर्थिक तथा सामाजिक मुद्दों से रत्ती-भर कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। शायद यही कारण था कि राजेंद्र और राजेंद्र के समकालीन लगभग सभी साहित्यकार अपने जीवन में देह का आह्वान फिर-फिर सुनते रहे, जैनेंद्र जी की भाँति ईमानदारी से विश्वास करते रहे कि हरेक बुद्धिजीवी को एक अदद बीवी के साथ कम-से-कम एक अदद माशूक़ा रखने की इजाज़त समाज द्वारा दी ही जानी चाहिए।
आगरा के इस प्रवास के दौरान रांगेय राघव से भेंट नहीं हो पाई। वह मई 1956 में विवाह करने के बाद बयाना के पास अपने पैतृक गाँव वैर में जा बसा था। आगरा में परिचितों के नाम पर रह गया था केवल घनश्याम अस्थाना जिसके साथ राजेंद्र के कारण कलकत्ता में परिचय गहरा गया था। दिन में एक बार उसके साथ भी बैठक जम जाती—कभी मैं गोकुलपुरा में उसके घर जा पहुँचता, कभी वह राजेंद्र के यहाँ चला आता था। हँसने बोलने में वह भी माहिर था और मैं भी। पप्पू और राजेंद्र की टाँगखिंचाई करते (परोक्ष में तो और खुलकर) हमारा वक़्त ख़ासा बीत जाता था।
इस प्रकार वे तीन दिन कहाँ निकल गए, अंदाज़ ही नहीं हुआ। चौथे दिन तूफ़ान मेल पकड़कर जगतियानी और मैं वापस चल पड़े कलकत्ता के अपने-अपने नीड़ों में जा दुबकने। राजेंद्र की अनुपस्थिति में उसके विवाह के संबंध में निर्णय ले पाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। तथापि इन तीन दिनों में उसके परिवार का निकट से परिचय प्राप्त कर तथा उनका स्नेह पाकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। अब तक कलकत्ता में केवल राजेंद्र ही मेरे परिवार का सदस्य बना था। अब आगरा आकर में भी उसके परिवार द्वारा अपना लिया गया, इससे बढ़कर संतोष मुझे और क्या हो सकता था?
घटनाक्रम इस तेज़ी से करवटें बदलेगा, इसका कोई अंदाज़ उस समय मैं नहीं लगा पाया था। राजेंद्र उन दिनों दिल्ली-आगरा-इलाहाबाद के बीच घूमता रहता था और मैं अपने दफ़्तर की यूनियन की नेतागिरी करते हुए कलकत्ता-बंबई के बीच। हम दोनों अपने-अपने वर्तमान से पूरी तरह संतुष्ट थे।
उधर मन्नू जी ने दुर्गापूजा की छुट्टियों में पहले दिल्ली और वहाँ से इंदौर हो आने का प्रोग्राम बना लिया था ताकि वे राजेंद्र, राकेश और कमलेश्वर के तिगड्डे के साथ कुछ समय दिल्ली में बिताकर इंदौर में अपनी सबसे बड़ी बहन से मिल आएँ। मन्नू जी की बड़ी बहन सुशीला भंडारी और मैं मन ही मन आस लगाए बैठे थे कि शायद राजेंद्र मन्नू जी को आगरा लेकर अपने परिवार से भी मिलवा लाएगा।
एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ गया था मुझे इस मामूली से अंतर को समझाने में। मैंने चौदह वर्षों के अपने पतित्व के अनुभव को आख़िर दाँव पर लगा दिया था। राजेंद्र ने बड़ी आसानी से यह कहकर मेरे तर्क की काट कर दी थी कि 'ठाकुर साब, आपको तो विवाह से पहले किसी के साथ प्रेम करने का कोई अनुभव कभी मिला ही नहीं। दस वर्ष की आयु में आपके पिताजी ने जहाँ भी तय कर दिया, उसी के साथ ब्याह रचाकर गृहस्थी ज़माने पर मजबूर हो गए। आपकी समझ में ये तमाम बातें कैसे आएँगी, कहाँ से आएँगी?'
उसके दस पुरजोर तर्क का केवल एक ही उत्तर हो सकता था जिसका मैंने रामबाण के रूप में प्रयोग किया था। मैंने कहा था, “अच्छा ही है जो मेरी समझ में तुम्हारी ये सब बातें नहीं आतीं। शायद इसी वजह से कमला और मैं पिछले चौदह वर्षों से इतना सुखी दांपात्य जीवन बिताने में समर्थ हो रहे हैं।” निरुत्तर रह गया था राजेंद्र यह सुनकर, हमारे अन्य पारिवारिक मित्रों की तरह वह भी मेरी गृहस्थी का पिछले चार वर्षों से निकट का तथा प्रत्यक्षदर्शी, साक्षी, रहता चला आया था।
अब सोचता हूँ तो लगता है कि कलकत्ता में तीन-चार वर्ष रहने के दौरान ही राजेंद्र के अंतर्मन में भी कहीं ऐसे ही सहज, सफल और इसीलिए सुखी दांपत्य जीवन बिताने की अभिलाषा अंकुरित हो चली थी, जैसा न केवल मैं, बल्कि हमारी मित्र-मंडली के अधिकतर लोग जी रहे थे। श्रीमती सुशीला भंडारी के 'सर्क्युलर' टेलीफ़ोन पर 'परनिंदा गोष्ठी' में सम्मिलित होने के लिए आए दिन दिए जाने वाले निमंत्रणों से जिस मुक्त रूप से No holds barred, तथापि किसी भी प्रकार की कुत्सा अथवा द्वेष से रहित, मज़ाक़ों का सामूहिक आदान-प्रदान होता रहता था, उसका प्रभाव बहुत गहरा तथा चिरस्थायी होता था। राजेंद्र भी उससे कैसे और कब तक अछूता रह सकता था।
आख़िर तीसरे दिन की हमारी बहस एक निर्णायक मोड़ पर आ खड़ी हुई जब रात के क़रीब दो बजे राजेंद्र ने अपने हथियार डाल दिए और मुझसे कह दिया, अच्छा, चलो, अब आप ही तय कर दें कि मैं किसके साथ शादी करूँ। आप जो भी कहेंगे, मैं मान लूँगा। उसके इस कथन पर मेरे मस्तिष्क में कौंध गया गीता के अठारहवें अध्याय का श्लोक जिसमें अर्जुन ने द्विधारहित शब्दों में कह डाला था—
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा तत्प्रसादान्मयाच्युतः।
स्थितोसंस्मिगतसन्देहः करिष्येवचनं तव। 18/73
लेकिन मैं कोई कृष्ण तो था नहीं जो लोहा तप चुका देखते ही उस पर हथौड़ा चलाते हुए कह देता कि—
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय, कृत निश्वय।
मैं भी आगरे की यमुना का पानी पीकर ही बड़ा हुआ था। लिहाज़ा अब मैंने अपने नखरे दिखाना आरंभ कर दिया। नहीं भैया राजेंद्र, शादी तो तुम्हें अपने ही फ़ैसले के मुताबिक़ करनी पड़ेगी। मैं कह दूँ कि तुम फलाँ से कर लो, और कल को तुम्हारी उसके साथ न बने तो तुम ज़िंदगी भर मुझे कोसते रहोगे कि ठाकुर साहब ने मुझे फँसा दिया। और अगर सब ठीक-ठाक चला तो उसका पूरा श्रेय ख़ुद ले उड़ोगे, वग़ैरा-वग़ैरा ऐसे अवसरों पर कही जानेवाली सारी सूक्तियाँ दुहराता चला गया था मैं, और इस संबंध में कभी कुछ न कहने, मुझे कोई दोष न देने का वचन देता चला गया था राजेंद्र यादव।
अतएव रात के ठीक तीन बजकर बीस मिनट पर हमने एकमत होकर प्रस्ताव पारित कर ही डाला कि श्रीमान राजेंद्र यादव को कुमारी मन्नू भंडारी के साथ विवाह करने में क़तई कोई आपत्ति नहीं होगी। अब हमें केवल यह देखना बाक़ी था कि हमारे इस सर्वसम्मत प्रस्ताव की मन्नू जी तथा उनके परिवार के सदस्यों पर क्या प्रतिक्रिया होती है।
आज स्मरण नहीं आ रहा है कि दूसरे दिन रविवार था या कि मैंने दफ़्तर से छुट्टी ले ली थी। परंतु यह बड़ी अच्छी तरह याद है कि सुबह जल्दी ही नहा-धोकर, नाश्ते के साथ, मैं और कमला क़रीब साढ़े दस-ग्यारह के आसपास लैंसडाउन रोड जा पहुँचे। तब तक भंडारी परिवार को मैंने राजेंद्र के कलकत्ता-आगमन की हवा तक नहीं लगने दी थी। जब तक राजेंद्र किसी निश्चय पर न पहुँच जाए, उन लोगों से इस संबंध में चर्चा करने से कोई लाभ भी नहीं था। उल्टे, नुक़सान होने की ही आशंका अधिक थी।
भंडारी साहब घर पर नहीं थे। केवल सुशीला थीं। एक प्रकार से यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि उनके मन में उन दिनों राजेंद्र के प्रति जो आक्रोश पल रहा था उसका मुझे इसी तरह आभास था। श्री पराक्रम सिंह भंडारी के लिए मन्नू जी उसकी छोटी साली कम, पुत्री अधिक है। उनका यह मनोभाव आज तक अक्षुण्ण बना हुआ है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति मन्नू जी के क्लेश का कारण हो जाए, तो वे उसे सहज ही क्षमा नहीं कर पाते। साथ ही, वे मुझसे भी कहीं अधिक ऊँची श्रेणी के पत्नी-भक्त हैं।
इतनी ऊँची श्रेणी है उनकी कि जब एक बार मैंने गंभीरतापूर्वक प्रस्ताव रखा कि हम सब मित्र मिलकर एक Henpecked Husbands Association की स्थापना कर भंडारी साहब को उसके अध्यक्ष पद पर अधिष्ठित कर दें, तो भंडारी साहब ने उतनी ही गंभीरतापूर्वक कहा था, The word Henpecked is redundant. The vey fact that you are a husband, it is obvious that your career as a husband can lost only as long as you remain henpecked.
मेरी मूक उपस्थिति में कमला ने सुशीला जी को पिछली तीन रातों की बैठक का क़रीब-क़रीब पूरा ब्योरा शब्दशः सुना दिया। सुशीला जी निर्विकार भाव से सुनती रहीं। अंत में उन्होंने कहा कि हमें उसी दिन शाम को सात बजे एक बार फिर आने का कष्ट करना पड़ेगा ताकि वे भंडारी साहब के अतिरिक्त अपने भाई बसंत बाबू साहब और प्रभात बाबू साहब को भी बुलाकर उनकी भी सलाह से कोई निर्णय ले सकें। साथ ही उन्होंने यह भी आग्रह किया कि फ़िलहाल यादव जी को इस चर्चा में सम्मिलित न करना ही ठीक रहेगा। दोनों बातें क़ायदे की थीं, लिहाज़ा कमला और मैंने तुरंत ही मान लीं।
शाम को दुबारा पहुँचा तो पाया कि वहाँ का सारा माहौल ही बदल चुका था। सुबह वाली ख़ामोशी, कुछ-कुछ तनाव, काफ़ी-सा तनाव-किसी का भी दूर-दूर तक अता-पता नहीं रह गया था। बसंत बाबू और प्रभात बाबू ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे थे। सुशीला जी उनके साथ-साथ दुहरी हो रही थीं। भंडारी साहब अपनी चिर-परिचित मुद्रा में मंद-मंद मुस्कान छिटका रहे थे। हमें देखते ही बसंत बाबू, और उनसे भी अधिक प्रभात बाबू ने हमेशा की तरह उच्च-स्वर में बड़े तपाक से स्वागत-वाक्यों का उच्चार किया। पिछले कई वर्षों से मुझे इस घर के ऐसे ही माहौल की आदत पड़ी हुई थी। इसलिए मैं भी तुरंत ही सहजतापूर्वक उसमें फिट हो गया था।
शीघ्र ही हम अपनी उस सांध्यकालीन विचारगोष्ठी के सर्वप्रधान एजेंडा पर विचार-विमर्श करने लग गए किंतु कदाचित् मैं यह बात कुछ ग़लत कह गया हूँ। हमने न अधिक विचार-विनिमय किया था, न विमर्श। और हमारे बीच विमर्श वाली स्थिति की कभी कोई गुंजाइश रहती ही नहीं थी। जान पड़ता है, हमारे पहुँचने से पहले ही सुशीला जी ने उन सभी भंडारियों को पूरी तरह से 'ब्रीफ़' कर दिया था, और उन लोगों ने सर्वसंपत्ति से निर्णय ले रखा था कि अब मन्नू जी और राजेंद्र का विवाह संपन्न हो जाने में ही सबकी भलाई है।
सुशीला जी बार-बार ज़ोर दे रही थीं कि—
(1) मन्नू जी को इंदौर से फ़ौरन वापस बुला लिया जाए।
(2) यादव जी को वापस न दिल्ली जाने दिया जाए, न आगरा।
(3) विवाह हो जाने के बाद वे दोनों जहाँ चाहे रहें, जैसे चाहे रहें।
(4) विवाह यथासंभव शीघ्र संपन्न हो जाना चाहिए।
बाक़ी तीन मुद्दों पर तो किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं था। आश्चर्य हुआ था यह देखकर कि जब हम सब यथासंभव शीघ्र ही किसी निश्चित परिभाषा पर एकमत होने का समवेत प्रयत्न करने में संलग्न थे, तब भंडारी साहब अपना विरोध प्रकट करने का साहस कर बैठे। उन्हें सिविल मैरिज होने में तो ऐतराज नहीं था परंतु विवाह की तिथि तथा मुहूर्त के लिए वे किसी पंडित ज्योतिषी से सलाह लेना चाहते थे।
सौभाग्यवश उन्हें मेरा यह तर्क समझ में आ गया कि तिथि और मुहूर्त के लिए वर और वधू दोनों की जन्मपत्रियों की आवश्यकता पड़ती है। मन्नू जी की जन्मपत्री भले उनके पास हो, राजेंद्र की तो आगरा में ही उपलब्ध हो सकेगी, बशर्ते राजेंद्र उसे वहाँ से मँगवाने के लिए राज़ी हो जाए। कुछ देर बाद हम सवने बसंत बाबू साहब के इस फ़तवे से सहमति प्रकट कर दी कि किसी भी शुभ काम के लिए रविवार ही ठीक रहता है, क्योंकि उस दिन सबकी छुट्टी रहती है।
तुरंत कैलेंडर देखा गया और 22 नवंबर, 1959 को दुपहर एक-डेढ़ के बीच माल्य-विनिमय तथा पाणिग्रहण का पवित्र मुहूर्त हम सभी पंडितों ने निर्धारित कर दिया।
22 नवंबर में अभी 15-20 दिन बाक़ी थे। इस बीच मन्नू जी को इंदौर से वापस आना था। राजेंद्र के सगे-संबंधियों तथा बंधु-बांधवों को कलकत्ता चले आने की सूचना भिजवानी थी। भंडारी परिवार को अपनी प्रिय मन्नू को ससुराल भेजने की तैयारियाँ भी करनी थीं। भले हवनकुंड के सात फेरे लगाए जाएँ अथवा मैरिज रजिस्ट्रार द्वारा सर्टिफ़िकेट प्रदान किया जाए, विवाह तो आख़िर विवाह ही होता है। चाहे सूक्ष्म हो या भव्य उसके लिए कुछ तैयारियाँ तो करनी ही होती हैं। आज के बहुप्रचलित मुहावरे के अनुसार उस दिन क्या-क्या, कैसे-कैसे और कब-कब किया जाएगा, इसकी modalities (विधि-विधान) निर्धारित करने के लिए राजेंद्र के साथ भी एक दिन बैठकर विचार करना आवश्यक था।
दूसरे दिन कमला को बूँदी चला जाना था। उसने बड़ी हिम्मत जुटाकर उस वर्ष राजस्थान बोर्ड की हाईस्कूल परीक्षा देने का निश्चय कर डाला था। बूँदी की पिछली यात्रा में वह फ़ार्म भरकर फ़ीस भी जमा कर आई थी। परीक्षा के पहले चार-पाँच महीने कसकर पढ़ाई कर पाना उसके पीहर में ही संभव हो सकता था। कलकत्ता के हमारे सामाजिक जीवन के कारण वह कदापि संभव न हो पाता।
घर आकर हमने राजेंद्र को अत्यंत उत्साह भरे मूड में विस्तार से सारी बातें बताकर तुरंत ही बाई और भाई-बहिनों को कलकत्ता बुलवाने की व्यवस्था करने को कहा। गंभीर मुद्रा में राजेंद्र चुपचाप सुनता रहा। हाँ-हूँ के अतिरिक्त उसमें से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी। केवल, जब कमला ने दूसरे दिन सुबह की तूफ़ान मेल से सफ़र योग्य सामान सूटकेस में ज़माना आरंभ किया तो ज़िद पकड़ ली कि वह बूँदी न जाए। विवाह होने तक कलकत्ता ही रहे। ऐसा कर पाना अब संभव नहीं रह गया था क्योंकि मथुरा पर उसके भाई ने आकर उसे बूँदी ले जाएँगे, यह व्यवस्था पहले ही सुनिश्चित कर दी गई थी। बड़े हाथ-पैर मारे थे राजेंद्र ने। लेकिन हमारी भी अनिच्छा के बावजूद कमला को दूसरे दिन बूँदी जाना पड़ गया।
दो दिन बाद भंडारी साहब के घर पर फिर एक बैठक हुई। इस बार राजेंद्र को भी वहाँ बुलाया गया। आख़िर उसे ही तो बताना था कि उसकी ओर से बारात में कौन-कौन आएँगे, कितने लोग आएँगे, उनके स्वागत सत्कार की क्या और कैसे व्यवस्था की जानी है।
बड़ी उमंगों से पूछे गए तमाम प्रश्नों पर राजेंद्र ने यह कहकर पानी फेर दिया था कि उसकी बारात में शामिल होने के लिए वह न अपनी माताजी को बुलाएगा, न किसी भाई-बहिन को। केवल ठाकुर साहब उसकी ओर से आएँगे, और कोई नहीं। यह सुनकर औरों पर क्या बीती, मुझे पता नहीं क्योंकि उसके बाद काफ़ी देर के लिए मेरा दिमाग़ सुन्न पड़ गया। अब तक मैं ख़ुद स्वयं को किसी से सूत भर कम आधुनिक नहीं समझता आया था परंतु राजेंद्र ने तो मेरी सारी आधुनिकता को उस क्षण धूल चटा दी।
वापस लौटने पर मैंने सुना कि अपनी ओर से राजेंद्र ने केवल एक माँग रखी थी—कि इस विवाह में कदापि कोई 'फस' (झंझट) नहीं होगा। इतनी सहज ही समझ में आ जानेवाली और मामूली प्रतीत हुई थी उसकी यह माँग कि उसे तत्काल और सहर्ष स्वीकार करने में किसी को एक क्षण भी नहीं लगा था। उस वक़्त किसने सोचा था कि उसकी यह बात वामन के तीन पग धरती की याचना सिद्ध होती चली आएगी।
मुझे यह देखकर परम आश्चर्य हुआ कि जिस प्रकार राजेंद्र अपने परिवार के किसी भी सदस्य को न बुलाने का निश्चय कर बैठा था, उसी प्रकार भंडारी परिवार भी एक स्वर से मन्नू जी के माता-पिता को इस विवाह में आमंत्रित करने के पक्ष में नहीं था। कारण पूछने पर मुझे बताया गया कि मन्नू के पिता, श्री सुखसम्पतराय भंडारी को न उनका यह प्रणय पसंद आया था, न परिणय आएगा। उन्हें घोर नहीं, घनघोर आपत्ति थी इस संबंध में।
श्री सुखसम्पतराय भंडारी अजमेर में रहते थे। परंतु वे केवल अजमेर में ही नहीं, समूचे राजस्थान में साहित्यिक रुचि संपन्न व्यक्ति के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। सन् 1949 में कलकत्ता जाने के पहले मैंने तीन वर्ष बूँदी में बिताए थे। तभी मैंने अनेक लोगों से उनकी देशभक्ति, उनके प्रगतिशील विचारों तथा उनके द्वारा लिखी जा रही एक अपने ढंग की अनूठी डिक्शनरी के चर्चे सुन रखे थे। अब उन्हीं के बेटे-बेटियों से उनकी आपत्तियों के विषय में विस्तार से जानकारी मिलने पर मुझे गहरा धक्का लगा। उनके दर्शन करने का मुझे कभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका। होता, तो मैं अवश्य ही सीधे-सीधे उन्हीं से उनकी आपत्तियों की विशद व्याख्या माँगता।
अब स्थिति यह हो गई थी कि इस विवाह में न मन्नू जी के माता-पिता सम्मिलित हो रहे थे, न राजेंद्र की माँ अथवा भाई-बहिन। घर लौटने पर राजेंद्र बार-बार आग्रह करने लग गया कि मैं कमला को 22 नवंबर के पहले ही बुलवा लूँ। पर जो दो-तीन दिन पहले ही गई हो, उसे वापस आने को मैं कैसे कह सकता था? विशेषकर, जब वह हाईस्कूल की परीक्षा देने गई थी। अब मुझे आभास होने लगा था कि राजेंद्र की ओर से केवल अकेला मैं ही रह जाऊँगा। बहुत ही अजीब लग रहा था मुझे।
अतएव मैंने राजेंद्र से अनुरोध किया था कि कम-से-कम कमलेश्वर और मोहन राकेश को ही पत्र लिखकर उन्हें तुरंत कलकत्ता आने को कह दे। राजेंद्र ख़ुद पत्र लिखने को भी राज़ी नहीं हुआ। बोला, “लिखना हो तो आप ही लिख दें।” उत्साहातिरेक में मैंने यह भी नहीं सोचा कि कमलेश्वर जी के साथ तो इलाहाबाद जंक्शन पर दस मिनट मिल भी लिया था, मोहन राकेश को तो मैंने, जान-पहिचान तो दूर, कभी देखा तक नहीं था। पत्र लिख बैठा। और राकेश जी ने आने में असमर्थता प्रकट करता उत्तर भी दे दिया।
इस विवाह के प्रसंग में ही मैंने पहली बार जाना था कि राजेंद्र कितना ज़िद्दी है। उसने न जाने कब कमला के पिताजी को मेरे नाम से टेलीग्राफ़िक मनीऑर्डर भेजकर कमला को तुरंत कलकत्ता भिजवा देने का फ़रमान सादिर कर दिया। मुझे तो जब, बिना किसी पूर्वसूचना के ऑफ़िस से लौटने पर कमला अचानक घर आई मिली, तब कहीं राजेंद्र की इस हरकत का पता चला। नतीजे में आज तक कमला को नॉन-मैट्रिक ही रहना पड़ा। किंतु न कमला को इसका मलाल है, न मुझे और राजेंद्र को तो क़तई नहीं है।
उधर सबसे अधिक उत्साहित हो रहे थे श्री पराक्रम सिंह भंडारी। उनकी अपनी बेटी, नीरा, अभी छोटी थी। उसके विवाह में बहुत देर थी। उन्हें अरमान पूरे करने का यह अवसर मिल गया था, जिसका वे भरपूर उपयोग कर लेना चाहते थे। तो एक दिन ग्रीक चर्च से आकर राजेंद्र को कार में अपने साथ ले गए। वापस आने पर पता चला कि उसके लिए सूट सिलवाना था। राजेंद्र सूट पहनेगा। शादी के एक दिन पहले तक मेरे पड़ोसी नागरबंधु इसके लिए जमकर राजेंद्र की टाँग खिंचाई करते रहे थे सारी ज़िंदगी कुर्ता-पाजामा पहनने वाला राजेंद्र कैसा गुड्डा-गुड्डा-सा दीखेगा। मुझे विश्वास है कि स्वयं राजेंद्र अपने उस बबुआ रूप की कल्पना पर मन-ही-मन झेंप रहा होगा। पता नहीं, उसने भंडारी साहब का यह अनुरोध क्या सोचकर स्वीकार कर लिया था।
आज मुझे याद नहीं आ रहा कि पहले इंदौर से मन्नू जी आई थीं अथवा बूँदी से कमला। बहरहाल, दोनों ही शादी के चार-पाँच दिन (या संभव है, अधिक-से-अधिक सप्ताह-भर) पहले कलकत्ता आ पहुँचीं। हमें तो कुछ करना-धरना था नहीं। सारी व्यवस्था तो भंडारियों को ही करनी थी। हाँ, विवाह से पहले राजेंद्र एक बार मन्नू जी के साथ लंबी बातचीत कर लेना चाहता था। परंतु नियम, परंपरा तथा समझदारी उन दोनों के एकांत मिलन की इजाज़त नहीं दे रहे थे। अतएव हल यह निकाला गया कि वे किसी सार्वजनिक स्थल पर —कदाचित् देशप्रिय पार्क में—मिल लें। स्पष्ट है कि उनकी यह बातचीत यथेष्ठ संतोषप्रिय रही होगी।
विवाह-स्थल न तो मैरिज रजिस्ट्रार का दफ़्तर तय हुआ था, न लैंसडाउन रोड का भंडारी साहब का निवास। निश्चय यह किया गया था कि लॉर्ड सिन्हा रोड स्थित श्री गोविंदजी कानोडिया की विशाल लॉन में घिरी कोठी में रजिस्ट्रार को दुपहर एक-डेढ़ बजे बुलाकर विवाह संपन्न कर लिया जाएगा और फिर वहीं लॉन पर सायंकाल रिसेप्शन आयोजित कर लिया जाएगा। कलकत्ता की अपनी एक अनन्य विशेषता है वहाँ के मारवाड़ी-बहुल हिंदीभाषी समाज में भरपूर मात्रा में उपलब्ध होने वाला अद्भुत पारस्परिक सौजन्य एवं सौमनस्य। दिल्ली और मुंबई में इसकी कल्पना तक कर पाना असंभव नहीं तो भी अत्यंत कठिन अवश्य है। इसी सौजन्य तया सहयोग के कारण वहाँ सहज ही सफल आयोजन होते रहते हैं। बड़ी आत्मीयता मिलती है आपको कलकत्ता में। राजेंद्र और मन्नू जी के विवाह में क़दम-क़दम पर इसके दर्शन होते रहे।
22 नवंबर, 1959 को ग्रीक चर्च रो में सबसे अधिक उत्साह और उमंगों में भरे हुए थे मेरे पिताजी। हालाँकि मैंने उन्हें पहले ही समझा दिया था कि राजेंद्र अपने साथ मुझे, कमला और हमारे नौ वर्षीय पुत्र दीप के अतिरिक्त और किसी को नहीं ले जाएगा, क्योंकि 'बरात' के साथ विवाह-स्थल पर पहुँचने का अर्थ उसकी निगाह में अनावश्यक 'फस' हो जाएगा। फिर भी मेरे पिताजी इस विचार से गद्गद् हुए जा रहे थे कि 'दूल्हा' उन्हीं के निवास स्थान से जाएगा। न जाने कब वे लेक-मार्केट से एक मोटा-ताज़ा फूलों का हार ले आए और उसे हम सबकी निगाह बचाकर कहीं छुपा रखा था।
क़रीब साढ़े बारह पर भंडारी साहब द्वारा भेजी गई कार ने हॉर्न बजाया। राजेंद्र ने बालकनी से देखकर सन्देह मिटा लिया कि कार को कहीं फूलों से तो नहीं सजा दिया गया है। फिर, आश्वस्त होने के बाद, एक रात पहले भिजवाया गया सूट धारण करना आरंभ किया था उसने। बेहद गंभीर मुखमुद्रा से बोला था, “ठाकुर साहब, ज़िंदगी में पहली बार सूट पहन रहा हूँ।” मेरा उत्तर था, “बेटा, शादी भी तो पहली बार ही कर रहा है। फिर जब पहन ही रहा है, तो इतना सड़ा-सा मुँह क्यों बनाए हुए है? जान पड़ता है सूट नहीं, वल्कल धारण कर रहा हो।” तब कहीं राजेंद्र के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थिरक उठी।
लेकिन सच कह रहा हूँ, बहुत फब रहा था उस पर वह नीला सूट और उस नीले सूट में राजेंद्र। नज़र लगने की सीमा तक। अब बाक़ायदा दूल्हा बने बाद, जब वह दरवाज़े पर पहुँचा तो देखा कि बाहर मेरे पिताजी फूलों का हार लिए खड़े थे। उन्हें वहाँ खड़ा देखकर राजेंद्र, कमला और मैं तीनों ही चौंक उठे। हममें से किसी ने उन्हें दरवाज़े से बाहर जाते नहीं देखा था। उनका राज़दार था केवल मेरा नौ वर्षीय पुत्र दीप जो अपने दादाजी के आदेश का पालन कर बिल्कुल अनजान बने रहने का सफल अभिनय करता रहा था।
“अरे-अरे काका साहब, यह क्या कर रहे हैं”, राजेंद्र कहता रहा और पिताजी उसके ऐतराज की उपेक्षा कर उसको वह हार पहनाकर ही रहे। साथ-साथ मंत्रोच्चार भी करते जा रहे थे—
मंगलम् भगवान विष्णुः
मंगलम् गरुड़ध्वजः
मंगलम् पुंडरीकाक्षः
मंगलायतनो हरिः।
किसी प्रकार का कोई 'फस' न करने और न होने देने की राजेंद्र की प्रतिज्ञा पर प्रथम कुठाराघात हुआ था मेरे पिताजी के हाथों।
राजेंद्र को साथ लिए-लिए उस कार में हम ढाई सवारी पीछे की सीट पर बड़े आराम से बैठे थे। राजेंद्र ड्राइवर के पास आगे की सीट पर मुँह सुजाए गुमसुम बैठा था, हँसा पाने की मेरी हर चेष्टा को असफल करता। शायद तीस वर्ष की आयु तक मुक्त, बोहेमियन जीवन व्यतीत करनेवाले बुद्धिजीवी परिंदे को विवाह के पिंजरे में क़ैद हो जाने के एहसास ने उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम कर रखी थी।
तभी अचानक मुझे राजेंद्र का आर्तनाद सुनाई दे गया, ठाकुर साब, ये क्या हो रहा है? मैंने पहले ही कहा था कि कोई 'फस' नहीं होगा। फिर ये सब क्या है? बाहर देखने पर पता चला कि कार लॉर्ड सिन्हा रोड में गोविंद जी कानोडिया की कोठी पर पहुँचने ही वाली है जहाँ प्रवेश-द्वार पर टँगे लाल बैनर में बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में लिखा 'वैलकम' राजेंद्र को मुँह चिढ़ाता प्रतीत हो रहा था। घनघोर क्राइसिस की उस वेला में मेरे मुँह से स्वतः ही निकल पड़ा था, “अबे, तो क्या यहाँ राजेंद्र यादव गो बैक लिखवाते? बैठा रह चुपचाप।” यह सुनने के बाद आगरा वाला राजेंद्र भी ठहाका लगाने पर मजबूर हो गया। इस प्रकार 'फ़स नं. 2' की समाप्ति भी ठंडे-ठंडे निबट गई थी।
किंतु 'फस नं. 3' इन दोनों से बढ़कर सिद्ध हुआ। जिस कमरे में विवाह की रजिस्ट्री होनी थी, उसे अत्यंत सुरुचिपूर्वक फूलों, हारों, स्तवकों आदि से सुसज्जित किया गया था। इस 'अनावश्यक' साज-सज्जा को देखने के साथ-साथ राजेंद्र की भृकुटियाँ टेढ़ी हो चली थीं। लेकिन, इस बात पर विरोध जताने का न मौक़ा था, न माहौल और न ही दस्तूर। दूसरे, ठीक तभी लाल बनारसी जोड़े में लिपटीं, नमित नयना, विनतवदना मन्नू जी को भी वहाँ ले आया गया था। अतएव किसी भी प्रकार के 'फस' के कट्टर दुश्मन श्री राजेंद्र यादव को बड़ी मुश्किल से दाँत भींचे, छाती पर पत्थर रखे, मौन रह जाना पड़ गया था।
इसके कुछ ही क्षण पश्चात् घट गया था 'फस नं.3'। हुआ यह कि श्री पराक्रम सिंह भंडारी ने कमरे में एक विशालकाय धूपदान लाकर रख दिया जिसमें बड़े-बड़े अँगारे धधक रहे थे। उसमें जलती धूप के धुएँ ने हम सबके रंध्र-रंध्र में प्रवेश कर हमारी नाक में दम कर दिया। कदाचित् उस अवसर पर हमने धुएँ के उस आक्रमण को सहन भी कर लिया होता परंतु राजेंद्र की सूक्ष्म निगाहों से उन सुलग रहे अँगारों में निहित नाजायज़ हरकत छुपी न रह सकी और इस बार तो वह विस्फ़ोट कर ही बैठा।'बहुत ग़लत बात है यह, ठाकुर साहब। बहनोई साब ने जान-बूझकर यह हरकत की है। हटवाइए, फौरन हटवाइए इसे।' मेरी मंदबुद्धि को 'हरकत' का निहितार्थ समझने में थोड़ी-सी देर लग गई थी। पर बात जब समझ में आ गई तो अच्छा मुझे भी नहीं लगा था बहनोई साहब के परंपरागत संस्कारों को, अग्नि की साक्षी के अभाव में विवाह संपन्न हो, यह गवारा नहीं हो रहा था। अतएव उन्होंने हवनकुंड के प्रतीक रूप में वह धूपदान ला स्थापित किया था। उन्हें अभी मालूम नहीं था कि राजेंद्र अपनी मान्यताओं के साथ कभी समझौता नहीं कर पाता।
बहरहाल, सौभाग्यवश, उस क्षण केवल मुझे ही नहीं, सुशीला जी, बसंत बाबू साहब, प्रभात बाबू साहब, यहाँ तक कि स्वयं मन्नू जी को भी राजेंद्र की आपत्ति बिल्कुल उचित नहीं लगी थी। बेचारे धूपदान को तुरंत ही सिंहासनच्युत होना पड़ गया। वहाँ उपस्थित प्रत्येक नर-नारी ने उसके आक्रामक अगरुधूम से, तथा उसके कारण उपस्थित हो गए विवाद से, मुक्ति प्राप्त कर सामान्य श्वास-प्रश्वास लेना पुनः प्रारंभ कर दिया।
इसके बाद वही सब हुआ जिसके लिए हम सब वहाँ एकत्रित हुए थे विवाह का कर्मकांड। पहले मैरिज रजिस्ट्रार महोदय के सामने राजेंद्र और मन्नू जी ने मैरिज सर्टिफ़िकेट पर दस्तख़त किए। फिर राजेंद्र की ओर से मैंने और मन्नू जी की ओर से बालीगंज शिक्षा सदन की कार्यकारिणी के अध्यक्ष श्री भगवती प्रसाद खेतान ने तथा श्री पराक्रम सिंह भंडारी ने गवाहों की हैसियत से उसी सर्टिफ़िकेट पर अपने-अपने ऑटोग्राफ़ टिकाए। रजिस्ट्रार मोशाय ने I hereby pronounce you as man and wife. वाला पुनीत मंत्रोच्चार कर राजेंद्र और मन्नू जी का हस्तमिलाप करवा दिया और अंत में नवपरिणीत युग्म ने पुष्पहारों का परस्पर विनिमय कर लिया। खेल ख़त्म हो गया था। अब केवल बाक़ी था पैसा हज़म होना।
कसर उसमें भी राई-रत्ती की नहीं रखी गई थी। उस शाम गोविंद जी कानोडिया का वह मखमली लॉन धीरे-धीरे गुलज़ार हो उठा उन सजी-धजी महिलाओं तथा पुरुषों से जिन्हें अँग्रेज़ी मुहावरे में महानगर कलकत्ता की 'मलाई' (क्रीम) की संज्ञा से अभिहित किया जाता था। उनमें हिंदी और कुछ बँगला के भी, ख्यात-अख्यात लेखक-लेखिकाएँ तो थी हीं, उनके अतिरिक्त थे स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के सुधी अध्यापक-अध्यापिकाएँ। ख्यातनामा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के उच्च पदस्थ कर्मचारी और उन्हीं प्रतिष्ठानों के अनेक कोट्याधिपति अधिष्ठातागण। कलकत्ता की एक से बढ़कर एक स्वनामधन्य हस्तियाँ। सब हँस-बोल रहे थे। अनेक ठहाके लगाते श्री विष्णुकांत शास्त्री के स्तर पर हँसने का असफल प्रयास कर रहे थे। एक सोफ़े पर बैठे राजेंद्र और मन्नू जी बालीगंज शिक्षा सदन की अध्यापिकाओं से घिरे प्रीति-उपहार ग्रहण करते चले जा रहे थे।
लॉन के दूसरे छोर पर खड़ा मैं अपने 'सिंधिया एंडेवर' के सह-संपादक फ्रेंक बैरेटो के साथ गपशप कर रहा था, तभी लॉन को चीरती ठाकुर साऽऽब की चीख़ मेरे कानों को भेद गई। चीख़ राजेंद्र की थी, इसका निश्चय होते ही में दौड़ा चला गया था उसके पास। राजेंद्र ने कोठी के पहले तल्ले पर से माइक लगाकर बजाए जाने वाले संगीत की ओर तर्जनी से इशारा करते हुए झुँझलाए स्वरों में एक बार फिर अपनी टेक दुहरा दी थी, अब यह क्या हो रहा है? मैंने पहले ही कह दिया था कि कोई 'फस' नहीं होगा। बंद करवाइए इसे।
उसका यह ऐतराज मेरे सब्र के ऊँट की पीठ पर लाद दिया गया आख़िरी तिनका साबित हुआ। इस बार मैं फट पड़ा था, “अबे औरंगज़ेब की औलाद! फने मौसीकी के दुश्मन। इस मौक़े पर गाना-बजाना नहीं तो क्या मर्सिये पढ़े जाएँगे? चुपचाप बैठा रह।”
बहुत प्रसन्न हुई थीं, मेरे जवाब पर श्रीमती सुशीला सिंघी। उन्होंने ही वह माइक चालू करवाया। आख़िर राजेंद्र यादव को उन्होंने अपना भाई जो मान रखा या। सुशीला जी भी आगरा में ही जन्मी थीं।
काफ़ी देर तक चलता रहा था कलकत्ता के संभ्रांत लोगों का हँसी-ख़ुशी की फुहारें छोड़ता वह जमावड़ा। पूर्व दिशा में होने के नाते कलकत्ता में अँधेरा कुछ जल्दी ही घिरने लग जाता है। क़रीब नौ बजे प्रभात बाबू साहब मुझे 'चलिएँ ठाकुर साब, अब घर के लोग भी खाने बैठ रहे हैं', कहकर अपने साथ ले गए। वैसे भी राजस्थानियों का भोजन बहुत 'रिच' हुआ करता है। पर यदि वे राजस्थानी ओसवाल हों तब भी आपके पेट का बस ख़ुदा ही मालिक है। हर पदार्थ इतना स्वादिष्ट कि बिना खाए आप रह न सकें और खाए बाद-चार-पाँच दिनों तक उसकी याद कर अश-अश करते बिताने पर मजबूर हो जाएँ।
इस दावत की याद एक अन्य विशेष कारण से भी रह गई है। दावत के पहले कमला को सास की साड़ी ओढ़ाई गई थी। अच्छा हुआ कि यह रस्म केवल महिलाओं की उपस्थिति में ही अदा कर ली गई थी अन्यथा राजेंद्र भले इसे 'फस' मानता, न मानता, मैं तो इसे अनौपचारिकता के क्षेत्र में औपचारिकता का अनधिकार प्रवेश की संज्ञा देकर अपनी तीव्र आपत्ति अवश्य ही जताता। बहरहाल, उस साड़ी ने राजेंद्र और मेरे बीच उसी दिन से एक बड़ा मज़ेदार स्थायी संबंध स्थापित कर दिया है—मैं उसे सार्वजनिक रूप से अपना सबसे ज्येष्ठ कपूत घोषित करता रहता हूँ और वह मुझे वक़्त पड़े पर बनाया गया बाप। है न क़ाबिले रश्क हमारे बीच का यह संबंध।
बताशे बँट चुके थे। नमाज़ ख़त्म हो गई थी। मुसल्ला उठने का वक़्त तेज़ी से नज़दीक आता जा रहा था। वर-वधू की मघुयामिनी से संबंधित कोई सूचना मुझे नहीं दी गई थी। लिहाज़ा कमला और मैं घर जाने के लिए टैक्सी की तलाश में सड़क पर आए, तो देखा वहाँ भंडारी साहब, बसंत और प्रभात बाबू साहब तथा श्री भँवरमल सिंघी बड़े ज़ोर-ज़ोर से आपस में सलाह-मशविरा कर रहे थे। मुझे देखकर उठे 'आइए ठाकुर साब' के समवेत स्वर से मुझे कुछ क्षण रुक कर उनसे बाक़ायदा विदा-नमस्कार कर घर जाने का अवसर मिल गया। कमला और मैं भी उस दल में शामिल हो गए।
थोड़े ही समय में विवाह की सारी तैयारियों में व्यस्त भंडारी परिवार को राजेंद्र और मन्नू जी की मधुयामिनी कहाँ मिलेगी, इस संबंध में कोई निर्णय लेने की याद नहीं आई थी। उस क्षण उसी विषय पर गंभीर विचार-विमर्श किया जा रहा था। 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना' वाली स्थिति उपस्थित हो गई थी। सिंघी जी ने नवदंपति को लेक गार्डन में, भंडारी साहब के घर के निकट ही अपने निवास स्थान पर ले जाने का प्रस्ताव पेश किया था। भंडारी साहब तुरंत ही ग्रांड होटल में एक कमरा बुक करने के पक्ष में जनादेश हासिल करने की प्रचेष्टा में लगे हुए थे, और प्रभातबाबू साहब के मतानुसार सुदूर शालीमार पेंट्स के लगभग निर्जन एकांत से अधिक उपयुक्त और कोई स्थान हो ही नहीं सकता था—कम-अज-कम हनीमूनाकांक्षी युगल के लिए।
मैंने तीनों सुझावों को एक वाक्य में 'वीटो' कर दिया था—“बारात मेरे घर से चली थी, वापस भी वहीं जाएगी। और कहीं नहीं।” इसे सुनकर और सब तो सकते में पड़े क्षण-भर के लिए चुप रह गए, दाद दी थी केवल सिंघी जी ने, “वाह, ठाकुर साब, I admire such definite assertions, so logical, वाह! सिंघी जी के इस ज़ोरदार समर्थन ने सारा वाद-विवाद समाप्त कर दिया। दस-पंद्रह मिनट बाद, राजेंद्र और मन्नू जी एक गाड़ी में और दूसरी में हम ढाई सवारी ग्रीक चर्च रो की दिशा में प्रस्थान कर चुके थे। मुझे टैक्सी नहीं तलाशनी पड़ी।
घर पहुँचने पर मेरे पिताजी की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा था। उनके घर में लक्ष्मी का आगमन हुए चौदह लंबे वर्ष बीत चुके थे। आज सहसा उनके वात्सल्य को छलक उठने का अवसर मिल रहा था। उन्होंने तुरंत लेक मार्केट से दो बड़े हार और ताज़ा रसगुल्ले मँगवाने का फ़रमान जारी कर डाला। राजेंद्र और मन्नू जी की तमाम आपत्तियाँ रद्द कर दी गई। संयोग भी ऐसा हो गया कि उसी समय एक पेशेवर वृद्ध वादक हमारी गली में वायलिन बजाता गुज़र रहा था। पिताजी ने उसे रोककर, आधे घंटे तक हमारी खिड़की के नीचे मस्ती भरी धुनें बजाने का आदेश दे डाला। मैं नागर बंधुओं के साथ एक कमरे की सजावट की व्यवस्था करने में जुट गया था।
उस रात मन्नू जी ने हम सबके छलछलाते, बिछलते उत्साह पर बड़ी निर्ममता से पानी फेर दिया था। बड़ी मिन्नत-समाजत के बाद उन्होंने एक रसगुल्ले का रस निचोड़कर गुल्ला चबाने का अनुग्रह तो कर डाला, परंतु 5ए, ग्रीक चर्च रो में रात बिताने को वे किसी भी शर्त पर तैयार नहीं हुई।
बेचारे राजेंद्र के लिए बड़ी विषम स्थिति हो गई थी। जाड़े की रात के साढ़े दस ग्यारह बजे मन्नू जी की इस अप्रत्याशित और क़तई ग़ैर-वाजिब ज़िद का वह क्या समाधान खोजे, उसकी समझ में नहीं आ रहा था। विवाहित जीवन के उस प्रथम 'क्राइसिस' ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ बना डाला था। मन्नू जी के दुराग्रह ने मेरे मन में भी गहरी वितृष्णा घोल दी। इतने वर्षों की जान-पहचान, पारिवारिक मित्रता, स्नेह, सम्मान यदि वे यह सब एक झटके में बुहार फेंक सकती हैं, तो मैं ही क्यों परेशान होऊँ। जाएँ, जहाँ उनकी इच्छा हो, खटखटाएँ जाकर अपने चहेतों के द्वार। आहत अपमान की ज्वाला में सिर से पाँव तक लिपटा, मैं चुपचाप टैक्सी लेने चला गया था।
टैक्सी लेकर लौटा तब तक मन्नू जी श्री भँवरमल सिंघी के यहाँ जाने पर राज़ी हो गई थीं। राजेंद्र, मन्नू जी और कमला नीचे उतरे तो राजेंद्र हठ करने लग गया कि मैं उन्हें सिंधी जी के घर तक छोड़ आऊँ। मेरा मन-मिजाज तो पहले ही ख़राब हो चुका था और ज़िद्दी में भी किसी से कम नहीं हूँ। मैं उनके साथ जाने के लिए क़तई राज़ी नहीं हो रहा था और राजेंद्र मेरे बग़ैर जाने को प्रस्तुत नहीं था। हुज्जत बढ़ते देखकर कमला ने मुझे ठेल दिया था। टैक्सी में। सिंघी जी के घर पहुँचे तो लगभग अर्द्ध रात्रि हो चली थी।
- पुस्तक : हमारे युग का खलनायक राजेंद्र यादव (पृष्ठ 70)
- संपादक : भारत भारद्वाज,साधना अग्रवाल
- रचनाकार : मनमोहन ठाकौर
- प्रकाशन : शिल्पायन
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