मौलाना आज़ाद

maulana azad

पद्मसिंह शर्मा

पद्मसिंह शर्मा

मौलाना आज़ाद

पद्मसिंह शर्मा

और अधिकपद्मसिंह शर्मा

     

    अरबी फ़ारसी के पारदर्शी विद्वान्, उर्दू कविता को नए नेचुरल साँचे में ढालनेवाले, उर्दू साहित्य के आदर्श आचार्य और सुप्रसिद्ध कवि शमसुल-उल्मा मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़द जिस्म की क़ैद से आज़ाद होकर 22 जनवरी (सन् 1610 ई०) को स्वर्ग सिधार गए!!
     
    आज़ाद एक अद्भुत प्रतिभाशाली कवि और लेखक थे। उनकी 'आब-ए-हयात' ने उर्दू भाषा को सचमुच 'आब-ए-हयात' पिलाकर अजर-अमर बना दिया है, जब तक उर्दू भाषा पृथ्वी पर है, आज़ाद का नाम भी उसके साथ है−
    'जयंति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
    नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम्॥
    आज़ाद के पांडित्य, प्रतिभा, कविता शक्ति और लेखन कौशलका पता उनकी प्रत्येक पोथी से मिलता है। यहाँ इस ज़रा सी टिप्पणी में उनका गुणगान करना एक छोटे से बिंदु में समुद्र दिखलाने की चेष्टा करना है।
     
    आज़ाद में एक ऐसा अपूर्व गुण था जो अन्य मुसलमान लेखकों में नहीं पाया जाता। वह सारग्राही और हृदय के उदार थे। उन्होंने अपनी पुस्तकों में जहाँ-तहाँ संस्कृत भाषा और उसके कवियों की तथा हिंदी-कविता की खुले दिल से प्रशंसा की है, अपने 'तारीख़-ए-उर्दू' वाले मज़मून में हिंदू, पारसी और बौद्धमतावलंबियों का नाम इस आदर से लिया है कि एक हिंदू लेखक अपने दूसरे सहयोगी हिंदू लेखक का भी नहीं लेता!
     
    हज़रत आज़ाद एक अर्से से ख़लल दिमाग़ में मुब्तला थे, जिसने उन्हें साहित्य-सेवा से बलात् पृथक् कर दिया था, परंतु इस दशा में भी उनकी दिनचर्या निराली और नियमित थी, उसमें ज़रा भी फ़र्क़ न आने पाता था। अब से कोई तीन वर्ष पहले हमें लाहौर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ; इच्छा हुई कि मौलाना आज़ाद के दर्शन करते चलें। अपने दो एक मित्रों के साथ पूछते-पूछते अकबरी-दरवाज़े, जहाँ मौलाना रहते थे पहुँचे, मालूम हुआ मकान पर नहीं हैं, कहीं गए हैं, दोबारा शाम को फिर गए, तब भी न मिले। जहाँ हम ठहरे हुए थे वहाँ से वह जगह दो ढाई मील दूर थी, अगले दिन प्रातःकाल ही हमें लाहौर से लौटना था, आज़ाद के दरवाज़े पर खड़े हुए हम यह सोच ही रहे थे कि क्या करें, उन्हें कैसे पावें, कि इतने में एक हिंदू के दुकानदार जो उनके मकान के नीचे की दूकान में बैठता था, आ गया, और हमें देखकर पूछा कि किसकी तलाश है?
     
    हमने सब क़िस्सा सुनाया, उसने कहा कि आप बेवक़्त आए, इस समय वह न मिलेंगे, फिर उसने उनकी अटूट दिनचर्या सुनाकर कहा कि कल दोपहर के समय बारह और एक बजे के दरमियान आना। दर्शनों की उत्कट इच्छा थी, इसलिए चलना मुलतवी रक्खा और अगले दिन ठीक समय पर पहुँचे। उसी दूकानदार को साथ लेकर दहलीज़ के अंदर गए, देखा कि हजरत आज़ाद हाथ में तसबीह लिए चारपाई पर लेटे-लेटे कुछ पढ़ रहे हैं (जप कर रहे हैं)। हमने दूर से झुककर सलाम किया, देखते हो उठ खड़े हुए, और हमारे पास आकर कुछ घबराहट के स्वर में बोले−'आप कौन हैं? कहाँ से आए हैं? मुझसे क्या चाहते हैं?’ मैंने कहा, 'हम लोगों ने आपकी किताबों से बहुत फ़ायदा उठाया है, सिर्फ़ आपकी ज़ियारत के लिए हाज़िर हुए हैं, और कुछ नहीं चाहते'। आँख मींचकर और ऊपर को हाथ उठाकर फ़र्माने लगे−मैंने तो कोई किताब नहीं लिखी, कभी किसी ने लिखी होगी, मैं नहीं जानता'−आज़ाद को उस दशा में देखकर जी भर आया, सोचा कि क्या सचमुच 'आब-ए-हयात' नैरंग-ए-ख़याल के लिखने वाले आज़ाद यही हैं? जी चाहता था कि इनके पास बैठें और कुछ सुनें, क्योंकि हमने सुना था कि आज़ाद अब भी जब कभी मौज में आते हैं तो अद्भुत बातें और कविता सुनाते हैं, परंतु यह वक़्त उनके आराम का था; ज़ियादा तकलीफ़ देना मुनासिब न समझकर अतृप्त चित्त से हम लौटे। चलते समय हमारे लिए दोनों हाथ उठाकर आज़ाद ने दुआ पढ़नी प्रारंभ की, और जब तक हम उन्हें दीखते रहे, वह बराबर उसी प्रकार पढ़ते रहे।
     
    आज़ाद ठिगने क़द के, पतले दुबले आदमी थे, उर्दू के महा कवि ज़ौक के प्रधान शिष्य और दिल्ली के रहने वाले थे, लाहौर में मुद्दत तक गवर्नमेंट कॉलेज में अरबी के प्रोफ़ेसर रहे, और आख़िर दम तक वहीं रहें। लाहौर में उनके सुयोग्य पुत्र सदरआला या सबजज हैं। अफ़सोस उर्दू में आज़ाद की गद्दी को सँभालने वाला अब कोई नहीं दीखता, उनके साथी मौलाना हाली के पीछे टकसाली उर्दू लिखने वाले पुराने शाइरों का बस ख़ात्मा हो जाएगा, अब ऐसे बाकमाल कहाँ पैदा होते हैं। 'हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था।'
     
    कविता के संबंध में आज़ाद के विचार यूनान के फ़लासफ़रों का कथन है कि दुनिया में दो चीज़ें अत्यंत अद्भुत और आश्चर्यजनक हैं। एक मनुष्य की नाड़ी, जो बिना बोले अंदर का हाल बयान करती है, दूसरी कविता, कि उन्हीं शब्दों को आगे-पीछे कर देने से वाक्यों में एक चमत्कार−जो हृदय पर नया प्रभाव डालता है, आ जाता है। प्रायः पुस्तकों में कविता का अर्थ सानुप्रास पद्यरचना−(कलाम-ए-मौज़ूँ और मुक़फ़्फ़ा)−लिखा है, पर वास्तव में चाहिए कि वह चमत्कृत और प्रभावोत्पादक (मयस्सर) भी हो, ऐसा कि मज़मून उसका सुनने वाले के दिल पर असर करे। यदि कोई वाक्य छंद-ओ-बद्ध (मौज़ूँ) तो हो पर चमत्कार से शून्य हो तो वह एक ऐसा खाना है कि जिसमें कोई स्वाद (मज़ा) नहीं, न खट्टा, न मीठा; जैसा यह शेर किसी उस्ताद का है−
    'दंदाने-तो जुम्ला दर दहानंद,
    चश्मान तो ज़ेर-ए-अब्रू वानंद।'
    अर्थात् तेरे सब दाँत मुँह के अंदर हैं, और तेरी आँखें भँवों के नीचे हैं।
     
    जब आदमी के दिल में क़ुव्वत-ए-गोयाई... अक्षा या वक्तृत्व शक्ति) और मज़मून (प्रतिपाद्य विषय) का जोश, जमा होते हैं तो तबीअत से ख़ुद-ब-ख़ुद कलाम-ए-मौज़ूँ (पद्य को तराज़ू में जँचा-तुला वाक्य) पैदा हो जाता है। ज़ाहिर है कि जिस क़दर ऐसी क़ुव्वत (शक्ति) और उस क़ुव्वत का जोश ख़रोश ज़ियादा होगा उसी क़दर कलाम पुर-तासीर (प्रभावोत्पादक) होगा।
     
    पृथिवी पर पहला ग़म (शोक) 'हाबील' का था कि 'क़ाबील' के कारण हज़रत 'आदम' के दिल पर पैदा हुआ, उसे शोकाधिक्य का परिणाम समझना चाहिए कि यद्यपि उस समय तक कविता का नाम भी कोई नहीं जानता था, पर शोकावेश में जो वाक्य उनकी (आदम की) वाणी से निकला; वह पद्यमयी-कविता थी। निदान वह कविता 'सुरयानी' भाषा में अब तक मौजूद है। बस जब कि कलाम-ए-मौज़ूँ−(पद्य,कविता) की जड़ बाबा आदम से हुई तो उसको (आदम की) सुयोग्य संतान आदमो का मौज़ूतबा होना बाप की मीरास से है।
     
    इसमें संदेह नहीं कि आदमी और हैवान (पशु) में क़ुव्वत-ए-गोयायी-भाषण-शक्ति या भाषा ही का भेद है, इस कारण मनुष्यशक्ति-क़ुव्वत-ए-इंसानी-भी उसी में कामिल समझनी चाहिए जिसमें 'क़व्वत-ए-गोयाई' कामिल हो। पद्य, गद्य की अपेक्षा तबीअत पर ज़यादा ज़ोर डालने से पैदा होता है, यही कारण है कि गद्य से उसका प्रभाव बढ़कर होता है। कोई विषय (मज़मून), कोई भाव (मतलब), कोई विचार (ख़याल) जो आदमी के दिल में आवे, या मुख़ातिब (श्रोता) को समझाना चाहे तो वाणी-द्वारा उस विकसित भाव को शब्द-चित्र के रूप में प्रकट करता है, इस कारण कवि मानो एक चित्रकार है; पर वह चित्रकार नहीं जो गधे, ऊँट, वृक्ष या, पत्थर का चित्र काग़ज़ पर खींचे, बल्कि वह ऐसा चित्रकार है कि भाव का चित्र हृदय-पटल पर खींचता है, और प्रायः अपने कवित्व के चमत्कृत रंग से-अपनी फ़साहत की रंगीनीं से−प्रतिबिंब (अक्स) को बिंब (अस्ल) से भी सुंदर बना देता है। वह चीज़ जिनके चित्र चित्रकार की लेखनी से नहीं खिंच सके, यह वाणी से खींच देता है। यह चित्र ऐसे चिरस्थायी होते हैं कि हज़ारों सफ़ेद काग़ज़ भीग कर गल-सड़ गए, नष्ट हो गए, पर सैकड़ों वर्ष से आज तक उनकी तसवीरें वैसी की वैसी ही बनी हैं! कभी ग़म की तसवीर दिल के काग़ज़ पर खींचता है, कभी ख़ुशी के मज़मून से तबीअत को गुलज़ार करता है, कमाल है कि जब चाहता है हँसा देता है, जब चाहता है रुला देता है। अरब के निवासी लड़ाई के मौक़ों पर जोशीली कविता गाते थे, भारत वर्ष में भी कभी राजाओं की सेना में शूर-वीर, रावत, भाट, वह वह कड़के (करखे) कवित्त कहते थे कि लोग जानें अपनी मौत के मुँह में झोंक देते थे; और अब तक यह हाल है कि जब सुने जाते हैं, बदन पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिकंदर-आज़म 'होमर' की किताब वीररस-संबंधी काव्य को बराबर देखता था और सोने में भी उसे जुदा न करता था।
     
    कवि यदि चाहे तो पदार्थ के रूप को बदल कर बिलकुल नए रूप में दिखा दे, पत्थर को बुला दे, रुला दे, पृथ्वी में गड़े वृक्षों को चला दे, स्थावर को जंग में कर दे, भूत को वर्तमान, वर्तमान को भविष्यत् कर दे, दूर को नज़दीक, ज़मीन को आसमान; मिट्टी को सोना, अँधेरे को उजाला कर दे। यदि विचार कर देखो 'अक्सीर' और 'पारस' इसी को कहना चाहिए, कि जिसे छू जाए, सोना हो जाए। ज़मीन और आसमान और दोनों जहान, शेर के दो मिसरों में पद्य के दो पदों में हैं, तराज़ू उसकी कवि के हाथ में है, जिधर चाहे झुका दे!
     
    पद्य (नज़्म) वास्तव में फ़साहत को फुलवारी की एक फूली हुई लता है। जिस तरह फूलों के रंग और सुगंध से आदमी का दिमाग़ तर-ओ-ताज़ा होता है, शेर (कविता) से रूह (आत्मा) तर-ओ-ताज़ा होती है, फूलों की गंध से दिमाग़ तरह तरह की ख़ुश्बू महसूस (अनुभव) करता है, किसी की गंध तेज़ (उग्र) है, किसी की बू मस्त है, किसी बू (गंध) में नफ़ासत और लताफ़त−सुकुमारता और मनोहरता है, किसी में सुहानापन है। इसी तरह कविता के विषयों−शेर के मज़मूनों का भी हाल है, जिस तरह फूल की कभी फलवारी में; 'कभी हार में, कभी इत्र खिंचकर, कभी अर्क़ में जाकर, कभी दूर से, कभी पास से, मुख़्तलिफ़ इस प्रकार विचरता और हकूमत करता है जैसे कोई अपने घर के आँगन में फिरता है। पानी में मछली और आग में समंदर (आग का कीड़ा) हो जाता है, हवा में पंछी बल्कि आसमान में फ़रिश्ते की तरह निकल जाता है, जहाँ के मजमून चाहता है बेतकल्लुफ़ लेता है और अपने इख़्तयार से उन्हें जैसे चाहता है बरतता है। अहोभाग्य उसके जिसे इस संसार का (कविता-संसार का) प्रभुत्व प्राप्त हो! कविता दिव्य विनोद वाटिका का फूल है, अलौकिक वाक्य पुष्पों की गंध है, लेखन कला के प्रकाश की झलक है, ज्ञान का इत्र (पुष्पसार है, आत्मिक शक्तियों का सार है शब्दार्थ का सत् है, अंतरात्मा के लिए अमृत है, वह शोक और विषाद की धूल को दिल से धोती है, चित्तकलिका को विकसित करती है, विचारों को ऊँचा उठाती है। हृदय को संतोष और शांति देती है। प्रतिभा को उड़ने के पंख लगाती है, चिंता के गर्द-ग़ुबार ये अंत:करण के वस्त्र को स्वच्छ रखती है। एकांत में मनोविनोद कराती है, एक में अनेक और अनेक में एक का तमाशा दिखाने, घर बैठे परदेश की सैर कराने वाली दूरबीन और सैरबीन यही है। यद्यपि कवि सदा चिंताओं और उलझनों में डूबा और उलझा रहता है, पर एक सूक्ति (पद्य, शेर) कहकर जो आनंद उसे प्राप्त होता है, वह सप्तद्वीप-विजयी सम्राट को भी नहीं मिलता, कविता के रसास्वादन से हृदय में जो चमत्कारपूर्ण आनंद का अनुभव होता है, उसका वर्णन लेखनी या वाणी द्वारा नहीं हो सकता, वह अनिर्वचनीय है, ब्रहमानंद के समान 'स्व संवेद्य' है। इस अलौकिक रसानुभव से कभी-कभी जो दुःख-प्रतीति (करुण रस के प्रकरण में) होती है, सहृदय का हृदय ही जानता है कि उसमें जो मज़ा है वह सैकड़ों ख़ुशियों से बढ़कर है। खेद है कि सहृदयता की प्राप्ति अपने वश की बात नहीं, यह ईश्वर की देन है, इसे ईश्वर ने अपने ही हाथ में रक्खा है। सूफ़ी सरमद ने कहा है−
    ''सरमद ग़म-ए-इश्क़ वुल्हवसरा न दिहंद,
    सोज़-ए-दिल-ए-परवाना मगसरा न दिहंद।
    उम्र बायद कि यार आयद बकिनार,
    ईंदौलत-ए-सरमद हमा कपरा न दिहंद॥
     
    यानी—सरमद! इश्क़ का गम (सच्चे प्रेम का रोग) विषयी पामर-जनों के लिए नहीं है। सोज़-ए-दिल—दिल की जलन-परवाने (पतंग) का ही हिस्सा है, गंदी मक्खी का नहीं। एक उम्र चाहिए कि यार से भेंट हो, यह 'दौलत-ए-सरमद' (हमेशा रहने वाली दौलत) हर कस-नाकस को नहीं मिली!
     
    जनून (उन्माद) भी एक प्रकार से कविता की आवश्यक सामग्रियों में एक साधन है। कई फ़लासफ़रों का कथन है कि दीवाने (उन्मत्त) आशिक़ (प्रेमी) और कवि के विचार बहुत से अवसरों पर जा मिलते हैं। कवि के लिए आवश्यक है कि वह सब ओर से मुँह मोड़कर और सब विचारों को छोड़ कर इसी में तल्लीन और तन्मय हो जाए, और ऐसी तन्मयता सिवाय मजनून (उन्मत्त) और प्रेमी के जो कि कवि के सहधर्मी भाई हैं—दूसरे में नहीं हो सकती। मजनून को अपने जनून से और आशिक़ को अपने माशूक़ के सिवा दूसरे से कुछ ग़रज़ नहीं, ईश्वर यह नेमत सबको नसीब करे।
     
    अकसर लोग ऐसे हैं कि जिस्मानी मेहनत से मर-खपकर उन्होंने लिखना पढ़ना तो सीख लिया है पर कविता के रसास्वाद से वंचित हैं। यदि सारी उम्र भी गँवा दें तो भी एक चमत्कृत वाक्य उनकी ज़बान से न निकले। कुछ ऐसे भी हैं कि उनसे पद्य पढ़ा भी नहीं जाता, पढ़ना तो दूर रहा उन्हें गद्य-पद्य में अंतर भी नहीं प्रतीत होता, यह ईश्वर का कोप है, परमात्मा इससे बचावे। कुछ कवि मज़मून तो अच्छा निकालते हैं पर ज़बान साफ़ नहीं—भाषा पर अधिकार नहीं कि फ़साहत से बयान कर सकें, कुछ ऐसे है कि ज़बान उनकी साफ़ है, भाषा पर अधिकार है—पर मज़मून ऊँचे दरजे का नहीं।
     
    यह भी देखा जाता है कि मज़मून की सूझ-बूझ और प्रतिभा के विकास के लिए कुछ मौसम ख़ास हैं। बसंत और वर्षा ऐसे समय ख़ास हैं कि कवि तो कवि साधारण हृदय में भी एक उमंग उठती है, तबीअत 'ठोक पीटकर कविराज' बनाना चाहती है।
     
    मौसम की तरह वक़्त और मुक़ाम भो कविता के लिए ख़ास हैं। एकांत स्थान जहाँ तबीअत और ख़याल न बँटे, ऐसा स्थान चाहे घर का कोई कोना हो, या बाग़, जंगल या नदी का किनारा हो; जहाँ चित्त को एकाग्रता प्राप्त हो सके, सब कुछ भूलकर उसी में तल्लीन हो सके। रात का ऐसा समय जब सारी सृष्टि अपने-अपने कामों से थककर सो जाती है, तब कवि अपने काम में तत्पर होता है, जब संसार में चारों ओर सुनसान और सन्नाटा छा जाता है, तब उसकी तबीअत में जोश और ख़रोश उठता है, ज्यों-ज्यों रात ढलती जाती है, ख़याल ऊँचा होता जाता है और मज़मून पैरता जाता है। ख़ासकर पिछली रात और आसन्न प्रभात का सन्नाटा, सब मीठी नींद में चुपचाप पड़े सोते हैं, मन-बुद्धि विशुद्ध, वायु स्वच्छ, चित्त का कमल खिला है, प्रतिभा से वाणी से प्रसन्न गंभीर पदावली टपकती है
     
    कवि को चाहिए कि उसका अंत:करण तत्त्वग्राही और संवेदना-शील हो, स्वच्छ जलप्रवाह की तरह कि जो रंग उसमें पड़ जाता है, वही उसका रंग हो जाता है, और जिस चीज़ पर पड़े वैसा ही रंग देता है। 'मायल' कवि की रुबाई मुझे इस जगह याद आर्इ−
    'काबे में भी हमने उसे जाते देखा,
    और दैर में नाक़ूस बजाते देखा,
    शामिल है ब-हफ़्तादो-दो मिल्लत मायल
    हर रंग में पानी सा समाते देखा।'
     
    उसका अपनी ही तबीअत का असर होता है कि जो मज़मून, हर्ष या शोक का, युद्ध का या शृंगार का बाँधता है, जितनी उसकी तबीअत उससे मुतअस्सिर (प्रभावान्वित) होती है, उतना ही असर सुनने वाले के दिल पर होता है।
     
    दुनिया में कुछ आदमी ऐसे हैं कि जब वह कविता सुनते हैं तो दिल बेक़रार और तबीअत बे-इख़्तियार हो जाती है। सबब इसका यह है कि इनका दिल आईने (दर्पण) की तरह साफ़ और तबीअत असर पकड़ने वाली है। और कुछ ऐसे 'महापुरुष' भी हैं कि उनके सामने यदि चमत्कृत भावों के सागर को गागर में भरकर रख दें तो भी उन्हें ख़बर न हो, इसका कारण उनके अंत:करण की कालिमा है, काले तवे पर सूर्य की किरणें क्योंकर चमके! भावुक सहृदयों की दृष्टि में सूर्य का उदय और अस्त, दोनों संध्याओं के दृश्य, हज़ारों बसंत-विकासी उद्यानों की छटा का मनोहर दृश्य उपस्थित कर देते हैं, और हृदयहीन कलुषितांत:करण जनों की समझ में वह एक ख़रास की चक्की या रहट है कि दिन रात चक्कर में चला जाता है।
     
    गान-विद्या की हृदयहारिता और पुष्पों की नयनानंददायिनी छटा का अकथनीय प्रबल प्रभाव प्रकट है, पर जो आँखें और कान नहीं रखते, वह बेचारे उस आनंद से वंचित हैं। इसी प्रकार जो अंतःकरण भावना और सहृदयता से शून्य हैं वह कविता के चमत्कार को क्योंकर समझे! इससे बढ़कर यह कि कुछ ऐसे भी सज्जन हैं कि जिन्हें कविता से एकदम बैर और द्वेष है और कारण इसका यह बतलाते हैं कि इससे (कविता से) कुछ लाभ नहीं। यदि लाभ से अभिप्राय यह है कि जिससे चार पैसे हाथ आए, तो निःसंदेह कविता एक व्यर्थ का व्यापार है, और इसमें संदेह नहीं कि संसारी व्यापारियों ने आजकल कविता को एक ऐसी ही दशा में डाल दिया है। तथापि कविता अर्थकारिणी हो सकती है। बहुत से महात्मा कहते हैं कि कविता कुरुचि उत्पन्न करती है और गुमराह करती है। बेशक आजकल को कविता का अधिकांश ऐसा ही है, पर यह कविता का नहीं, कवियों का अपराध है, कारीगरी का दुरुपयोग करने वाले कारीगर बुरे हैं, करीगरी बुरी नहीं। शैतान सकल-गुणनिधान और फ़रिश्तों का 'आदिगुरु' होकर भी 'गुमराह' हो गया तो क्या इससे वह विद्याएँ जिनका शैतान आचार्य था, बुरी हो गई? देव-गुरु का नाम धारण करने वाले 'बृहस्पति' ने तर्कशास्त्र का उपयोग नास्तिकतावाद में किया तो क्या तर्क और दर्शन शास्त्र हेय हैं। सन्मार्गदर्शक महर्षि वाल्मीकि, भगवान् वेदव्यास जी और गोसाईं तुलसीदास जी भी तो कवि थे। यदि उद्धत कवियों के दोष से कविता में कुछ दोष आ गए हैं तो उनका निराकरण होना चाहिए, कविता का निरादर नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पद्म पराग, भाग-1
    • संपादक : पारसनाथ सिंह
    • रचनाकार : पद्मसिंह शर्मा
    • प्रकाशन : भारती पब्लिशर्स लिमिटेड, पटना
    • संस्करण : 1929

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