श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं; इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वतः सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं—सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।