संविधान सुधार दिया गया, उच्चतम न्यायालय कह चुका, पर हमें बच्चों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। वे हमारे बीच रहते हैं; हमारी परछाइयों के घेरे में क़ैद। परछाई से बाहर तभी जाने दिए जाते हैं जब परछाई उन पर पड़ चुकी होती है और उनकी आवाज़ पूरी तरह एक स्वीकृत ज़बान में गढ़ी जा चुकती है। क्या आश्चर्य कि ऐसे समाज में बाल साहित्य न्यून मात्रा में है।