रस की इस उन्मत्तता से हमारा चित्त जब मथने लगता है; तब हम उसी को सिद्धि मानने लगते हैं, किंतु नशे को कभी भी सिद्धि नहीं कहा जा सकता है, असतीत्व को प्रेम तो नहीं कहा जा सकता है, ज्वर में विकार की दुर्वार उत्तेजना को, स्वास्थ्य के बल की अभिव्यक्ति नहीं कहा जा सकता है।
अनुवाद :
रामशंकर द्विवेदी