जी. शंकर कुरुप के उद्धरण

मैं भी जानती हूँ प्रेम का मूल्य, किंतु जब उसकी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य भाव से तुलना करती हूँ प्रेम-एक तुषार की कणिका-सा बन जाता है और मातृभूमि के प्रति कर्तव्य भाव अमूल्य रत्न-सी दिखाई पड़ता है।
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