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विष्णु सीताराम सुकथंकर के उद्धरण

किसी प्रगतिशील जाति के जीवन में सजीव शक्ति बने रहने के लिए महाकाव्य को मंद गति से परिवर्तनशील ग्रंथ होना ही चाहिए। परिशोधन और विस्तार तो इस बात के बाह्य संकेत मात्र हैं कि यह प्रेरणा देने और मार्गदर्शन करने वाला ग्रंथ रहा है, न कि पुस्तकों की धूल-धूसरित अलमारी में पड़ा अप्रुक्त तथा विस्मृत ग्रंथ।