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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

जगत् अपूर्ण है, इसीलिए गतिशील है। मानव-समाज अपूर्ण है, तभी तो वह प्रयासोन्मुख है और हमारा आत्म-ज्ञान भी अपूर्ण है, इसीलिए हम आत्मा को 'समस्त' से अलग जानते हैं। वास्तव में दुनिया की गतिशीलता में ही शांति है, दुःख में, प्रयास में ही, सफलता है। भेद में ही प्रेम है।

अनुवाद : विश्वनाथ नरवणे