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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

दुःख में, विपत्ति में, विद्रोह में, विप्लव में प्रकाशहीनता का आवेश काटकर मनुष्य स्वयं को प्रबल आवेग में उपलब्ध करना चाहता है।

अनुवाद : चंद्रकिरण राठी