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विजय देव नारायण साही

1924 - 1982 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-आलोचक। ‘जायसी’ शीर्षक आलोचना-पुस्तक के लिए उल्लेखनीय।

समादृत कवि-आलोचक। ‘जायसी’ शीर्षक आलोचना-पुस्तक के लिए उल्लेखनीय।

विजय देव नारायण साही का परिचय

विजय देव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर 1924 को उत्तर प्रदेश के बनारस के कबीर चौरा मोहल्ले में हुआ। उनकी हाई स्कूल तक की शिक्षा बनारस में हुई, उसके बाद बड़े भाई के पास इलाहाबाद चले गए। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी और फ़ारसी विषय में स्नातक की परीक्षा पास की, फिर वहीं से अँग्रेज़ी साहित्य में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ एम.ए. की परीक्षा पास की। उनके अध्यापन-कर्म का आरंभ काशी विद्यापीठ से हुआ, फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग से संबद्ध हो गए।

विजय देव नारायण साही की मूल पहचान एक कवि, आलोचक और समाजवादी आंदोलन के प्रखर बौद्धिक नेता की है। उनकी कविताएँ सर्वप्रथम ‘तीसरा सप्तक’ में प्रकाशित होकर चर्चा में आईं। इसी पुस्तक में प्रकाशित उनके वक्तव्य से संकेत मिलता है कि पारिवारिक परिस्थितियों को ठंडे बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत, मूल्यों एवं प्रतिमानों का जामा पहनाने की प्रवृत्ति से उनके विचारों और अनुभूतियों को काफ़ी सामग्री मिलती रही। आज़ादी के बाद का मोहभंग और किसान-मज़दूरों के बीच सक्रिय कम्यूनिस्ट प्रगतिवादियों की धूर्तताएँ भी उनके उत्प्रेरण का स्रोत रहीं जो रह-रहकर व्यक्त होती रहीं। मज़दूरों की हड़ताल की अगुवाई करने, गोलवलकर को काला झंडा दिखाने और जवाहरलाल नेहरू की मोटर के सामने किसानों का प्रदर्शन करने के लिए तीन बार जेल भी गए। 

साहित्य-जगत में ‘बहस करता हुआ आदमी’ के रूप में प्रख्यात विजयदेव नारायण साही अपनी बहसतलब टिप्पणियों और व्याख्यानों से इसे एक ऊर्जा प्रदान करते रहे। उन्होंने कविताएँ कम लिखी, शेष लेखन के प्रकाशन के प्रति भी अनिच्छुक बने रहे। समाजवादी आंदोलनों में सक्रियता के कारण उन्हें लेखन का अधिक अवकाश भी प्राप्त नहीं हुआ। उनके जीवनकाल में उनका एक ही काव्य-संग्रह ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हुआ था। 5 नवंबर, 1982 को हृदयाघात से उनकी मृत्यु के बाद उनकी विदुषी पत्नी कंचनलता साही ने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित-अप्रकाशित उनकी बहुतेरी रचनाओं का प्रकाशन कराया। 

मछलीघर (1966), साखी (1983) और संवाद तुमसे (1990) उनके काव्य-संग्रह हैं जबकि आवाज़ हमारी जाएगी (1995) में उनकी कुछ कविताओं और ग़ज़लों का संकलन किया गया है। उनके व्याख्यानों का संकलन ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ और उनके समाज-राजनीति विषयक निबंधों का संकलन ‘लोकतंत्र की कसौटियाँ’ में किया गया हैं। ‘जायसी’ (1983) उनकी आलोचना-कृति है जिसे हिंदी-समालोचन में अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। अन्य आलोचनात्मक लेखों का संकलन ‘छठवाँ दशक’ (1987), ‘साहित्य क्यों’ (1988) और ‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) में किया गया है। उन्होंने ललित-निबंध, कहानी, नाटक और प्रहसन जैसी विधाओं में भी कार्य किया था, जबकि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एवं अन्य कुछ मित्रों के साथ उन्होंने ‘सड़क साहित्य’ का भी सृजन किया। ‘आलोचना’ और ‘नई कविता’ पत्रिकाओं के संपादन में उनका सहयोग रहा। 

जायसी की ‘दहाड़ती हुई चुप्पी’, कविता में ‘लघु मानव’ की अवधारणा और समकालीन आलोचन-स्थापनाओं को चुनौती देते रहने के लिए उन्हें विशेष यश प्राप्त है। उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ भी कहा गया है जिन्होंने मार्क्सवाद को भारतीय लोकतंत्र की ज़मीन में प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्ष किया।

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