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राही मासूम रज़ा

1927 - 1992 | ग़ाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-कथाकार और पटकथा-लेखक। ‘आधा गाँव’ और ‘टोपी शुक्ला’ सरीखे उपन्यासों के लिए स्मरणीय।

समादृत कवि-कथाकार और पटकथा-लेखक। ‘आधा गाँव’ और ‘टोपी शुक्ला’ सरीखे उपन्यासों के लिए स्मरणीय।

राही मासूम रज़ा का परिचय

मूल नाम : राही मासूम रज़ा

जन्म : 01/09/1927 | ग़ाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश

निधन : 15/03/1992 | मुंबई, महाराष्ट्र

राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को ग़ाज़ीपुर के गंगौली गाँव में हुआ था। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा ग़ाज़ीपुर में ही हुई। क़िस्सा है कि बचपन में एक बार बीमार पड़े तो स्कूल जाना छूट गया। पड़े-पड़े घर में मौजूद सारी किताबें पढ़ गए। क़िस्सों से उनका दिल बहलाने के लिए एक मुलाज़िम कल्लू काका भी रखे गए थे। उन्होंने बाद में सुनाया कि कल्लू काका न होते तो उन्होंने शायद कोई कहानी न लिखी होती। आगे की पढ़ाई अलीगढ़ से हुई जहाँ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ पर पीएच।डी। की। फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही उर्दू के प्राध्यापक लग गए। अलीगढ़ से उनका बेहद लगाव रहा। अलीगढ़ ‘मजाज़’ का था तो चर्चा में वह भी पीछे न थे। बाद में लिखा था कि उनकी तीन माएँ थीं, नफ़ीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा—गंगा जो गंगौली में बहती थी। अलीगढ़ में ही नय्यरा से मिले जो उनकी जीवनसाथी बनीं। अलीगढ़ में ही वह कम्युनिस्ट भी हो गए थे। इतने कम्युनिस्ट कि नगरपालिका चुनाव में भूमिहीन मज़दूर प्रत्याशी कॉमरेड पब्बर राम के पक्ष में न केवल अपने पिता के ख़िलाफ़ प्रचार किया, उन्हें हरवा भी दिया। उनका यह साम्यवादी नज़रिया आगे भी बना रहा। वह वास्तविक अर्थों में ‘सेकुलर’ दृष्टिकोण भी रखते थे। 
लेखन का आरंभ उन्होंने शायरी से किया था और शेरो-सुख़न में एक मुक़ाम भी पाने लगे थे। फिर शायरी छोड़ दी और गद्य लिखने लगे। एक साथ कई चीज़ें लिखा करते थे। शाहिद अख्तर, आफाक़ हैदर और आफ़ताब नासिरी उनके ही अलग-अलग नाम थे जो उन दिनों अलीगढ़ में रूमानी और जासूसी नॉवेल में चर्चा पा रहे थे। वह बाद में अलीगढ़ छोड़ बंबई चले गए। फ़िल्मों से उन्हें शुरू से ही आकर्षण रहा था। बंबई में संघर्ष लंबा चला। तब उनकी मदद धर्मवीर भारती और कमलेश्वर ने की। बाद में बी।आर। चोपड़ा और राज खोसला की दोस्ती काम आई जो उन्हें फ़िल्में देने लगे थे। ‘महाभारत’ यहीं घटित हुआ जब बी।आर। चोपड़ा ने बाद में बेहद लोकप्रिय हुए इस धारवाहिक का पटकथा-लेखन उनसे कराया।      
बंबई उनके लिए साहित्यिक लेखन के दृष्टिकोण से भी उर्वर रही जहाँ उन्होंने ‘आधा गाँव’, ‘दिल एक सादा काग़ज़’, ‘ओस की बूँद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’ जैसे उपन्यास लिखे थे। ये सभी कृतियाँ हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में नज़्म और ग़ज़ल लिखते रहे थे। उन्होंने उर्दू में एक महाकाव्य भी लिखा था जो बाद में हिंदी में ‘क्रांति कथा’ शीर्षक से छपी। 
‘टोपी शुक्ला’, ‘कटरा बी आर्ज़ू’, ‘मुहब्बत के सिवा’, ‘असंतोष के दिन’, ‘नीम का पेड़’ उनके अन्य उपन्यास हैं। ‘नया साल’, ‘मौजे-गुल: मौजे-सबा’, ‘रक्से-मय’, ‘अजनबी शहर के अजनबी रास्ते’, ‘ग़रीबे शहर’ उनके प्रमुख उर्दू काव्य-संग्रह हैं। उनकी उर्दू कविताओं के हिंदी अनुवाद को ‘मैं एक फेरीवाला’, ‘शीशे के मकां वाले’, ‘ग़रीबे शहर’ संकलनों में प्रकाशित किया गया है। ‘देश में निकला होगा चाँद’ उनकी बेहद लोकप्रिय लोकप्रिय नज़्म है जिसे जगजीत सिंह – चित्रा सिंह ने पहली बार गाया था। उन्होंने कई फ़िल्मों और धारवाहिकों के लिए पटकथा और संवाद-लेखन किया था। ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ फ़िल्म की पटकथा के लिए उन्हें ‘फ़िल्म फ़ेयर’ मिला था। भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया।   
15 मार्च 1992 को 64 वर्ष की आयु में बंबई में उनका निधन हो गया।

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