मोहन की संपूर्ण रचनाएँ

दोहा 104

एक-रदन विद्या-सदन, उमा-नँदन गुन-कोष।

नाग-बदन मोदक-अदन, बिघन-कदन हर दोष॥

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प्रियतम को पोख्यो चहैं, प्रेम-पियासे नैन।

आँसु निगोरे चहत हैं, औसर पै दुख दैन॥

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रति-मदहर-वृषभानुजा, मूठि गुलालहि संग।

भेंट कियो ब्रजराज को, चंचल चित्त मतंग॥

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सरद-रैनि स्यामा सुभग, सोवति माधौ-संग।

उर उछाह लिपटति सुघर, राजत अंग अनंग॥

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फूलत कहा सरोज! तू, निज छबि अतुलित जान।

मम प्यारी मुख-कंज लखि, मिटि जैहै अभिमान॥

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सोरठा 3

 

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