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कुमारमणि भट्ट

1746

रीतिकालीन आचार्य कवि। काव्यांग विवेचन और नायिकाभेद के लिए स्मरणीय।

रीतिकालीन आचार्य कवि। काव्यांग विवेचन और नायिकाभेद के लिए स्मरणीय।

कुमारमणि भट्ट का परिचय

उपनाम : 'कुमारमणि शास्त्री'

कुमारमणि भट्ट का जन्म ग्रियर्सन के अनुसार सन् 1746 ई. में हुआ। उनका स्थायी निवास-स्थान गोकुल (ब्रज प्रदेश) था, किंतु बहुत दिनों तक वे दतिया दरबार में रहे। वे वत्सगोत्री तैलंग ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम हरिवल्लभ भट्ट था। प्रसिद्ध गाथा-सप्तशतीकार गोवर्धनाचार्य इसी वंश के थे। हरिवल्लभ की विद्वता एवं पांडित्य से प्रसन्न होकर सागर (मध्यप्रदेश) के गढ़-मंडला-राज्य की रानी दुर्गावती ने उन्हें कनेश और धर्मसी नामक दो गाँव दिये थे, जिन पर अब भी उनके वंशजों का अधिकार है। कुमारमणि संस्कृत और हिंदी दोनों ही भाषाओं के पंडित थे। क्षेमनिधि ने अपने ग्रंथ ‘संक्षेप भागवतामृत’ में कुमारमणि को गुरु रूप में याद किया है।
अब तक कवि की कुल तीन रचनाओं का पता चला है: ‘सूक्ति-संग्रह’ (प्राप्त) तथा ‘सप्तशती’ (अप्राप्त) संस्कृत में और ‘रसिक रसाल’ हिंदी में। ‘रसिक रसाल’ का रचनाकाल सन् 1719 ई. है। यह ग्रंथ कांकरोली (राजस्थान) से संवत् 1994 में प्रकाशित हो चुका है। यह ‘काव्य प्रकाश’ के आधार पर लिखा गया कवि का प्रसिद्ध रीति-ग्रंथ है। इसमें काव्य-कारण, शब्द-शक्तियों, काव्य-भेदों तथा रस के विभिन्न अंगों एवं भेदों, अलंकारों और काव्य के भिन्न-भिन्न गुण-दोषों आदि पर विस्तार से विचार किया गया है। विवेचन-शैली पुष्ट और प्रांजल है। कवि ने वात्सल्य को लेकर रसों की संख्या दस मानी है। मिश्रबंधुओं ने इनको काव्य-परिपाक और प्रौढ़ता पर विचार करते हुए पद्माकर की कोटि का कवि बतलाया है।

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