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कृष्ण भट्ट

1668 - 1752 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

रीतिकालीन कवि। वीरकाव्य के रचयिता।

रीतिकालीन कवि। वीरकाव्य के रचयिता।

कृष्ण भट्ट का परिचय

उपनाम : 'कलानिधि'

जन्म :वाराणसी, उत्तर प्रदेश

कृष्ण भट्ट ‘काव्यनिधि’ का जन्म 1668 ई. के लगभग काशी में हुआ। ये तैलंग ब्राह्मण थे। कृष्ण भट्ट को विभिन्न कृतियों में उसके अन्य नाम 'कृष्ण कवि’ ‘कलानिधि', 'काव्य कलानिधि' और 'कृष्ण शर्मा' मिलते हैं। उससे कोई सात पीढ़ी पहले उनके पूर्वज दक्षिण भारत से चल कर काशी में जा बसे थे। शास्त्रों आदि के पठन-पाठन की परंपरा तब भी इस घराने में यथावत् बनी रही। कवि-कलानिधि के प्रपितामह माधव भट्ट को मुगल सम्राट अकबर ने सम्मानित किया था। तब से ही माधव भट्ट के वंशजों का राजस्थान के राजघरानों के साथ संपर्क स्थापित हो गया था। वहीं उन्होंने अलंकार, मीमांसा, दर्शन आदि शास्त्रों का अध्ययन किया, तंत्रादि विषयों में विशेष सिद्धि प्राप्त की और संस्कृत के साथ ही भाषा और प्राकृत में भी काव्य साधना की।

उसके पांडित्य से प्रभावित होकर बूंदी के राव राजा बुधसिंह ने उसको आश्रय देकर अपना राजकवि बनाया तब वहाँ राजा के निर्देशानुसार कृष्ण भट्ट ने सन् 1712 ई. के लगभग ‘शृंगार रसमाधुरी’ और 'विदग्ध रसमाधुरी' नामक दो ग्रंथों की रचना की। आमेर के महाराजा सवाई जयसिंह ने जब कवि कलानिधि की कीर्ति सुनी तब उसे अपने राजदरबार में ले आया। यहाँ सवाई जयसिंह के आदेशानुसार कवि कलानिधि ने ब्रजभाषा तथा संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की। उसकी काव्य- रचना से प्रसन्न होकर सवाई जयसिंह ने उसे 'काव्य-कलानिधि' अथवा 'कवि-कलानिधि' की उपाधि प्रदान की थी। सवाई जयसिंह के देहांत के बाद उसके उत्तराधिकारी महाराजा ईश्वरी सिंह तथा तदनन्तर महाराजा माधोसिंह ने भी उसे पूर्ण संरक्षण प्रदान किया।

भरतपुर के नवोदित जाट घराने के साथ भी कलानिधि का घनिष्ठ संपर्क था और बदनसिंह का साहित्यप्रेमी पुत्र प्रतापसिंह भी कवि कलानिधि का विशेष आदर करता था। कवि के देहांत से संबंधित कोई निश्चित जानकारी प्राप्य नहीं है, परंतु अनुमान यह होता है कि मई, 1751 ई. में माधोसिंह के राजगद्दी पर बैठने के कुछ वर्ष बाद तक वह जीवित था क्योंकि माधोसिंह के समय में कृष्ण भट्ट ने 'पद्य-मुक्तावलि' नामक स्फुट काव्य संग्रह संपूर्ण किया था।

कवि-कलानिधि ने संस्कृत और ब्रजभाषा में अनेक ग्रंथों की रचना की थी। प्राकृत भाषा में भी रचित कुछ छंद 'पद्य-मुक्तावली' में मिलते हैं। शृंगार रसमाधुरी' और 'विदग्ध रसमाधुरी’ कलानिधि की प्रारंभिक रचनाएँ हैं, जिनकी रचना बूंदी नरेश बुधसिंह की प्ररेणा से, ‘दुर्गाभक्ति-तरंगिणी' की रचना भरतपुर के जाट शासक बदनसिंह के पुत्र प्रतापसिंह की प्रेरणा से और संस्कृत तथा ब्रजभाषा के अन्य सभी ग्रंथों की रचना कवि ने जयपुर नरेश की प्रेरणा से की थी। संभवतः 'पद्य-मुक्तावली' कवि की अंतिम रचना थी।

कवि कलानिधि ने कुल कितने ग्रंथों की रचना की थी, इसका कहीं भी कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। संस्कृत के कई ग्रंथों के अलावा ब्रजभाषा में रचित ‘अंलकार-कलानिधि’, ‘शृंगार-रसमाधुरी, ‘विदग्ध-रसमाधुरी’, ‘सांभर-युद्ध’, ‘जाजऊ-युद्ध’, ’बहादुर विजय’, ’जयसिंह-गुण-सरिता’, ’रामचंद्रोदय’ (लंका कांड), ’रामरास’, ‘वृत्तचंद्रिका’, ’नखसिख वर्णन’, ’दुर्गाभक्ति तरंगिणी’, ’नवसई’, ’रामायण-सूचनिका’, ’वाल्मीकि रामायण’ और ‘समस्या-पूर्ति’ की सूची साहित्येतिहासकारों ने दी है। उल्लिखित नामों में से अधिकतर ग्रंथों का मात्र नामोल्लेख मिलता है; उनकी पूरी या अधूरी प्रतियाँ अब तक कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सकी है।

कृष्ण भट्ट की सर्वाधिक चर्चित और उपलब्ध कृति ‘सांभर युद्ध’ (लगभग 1734 ई.) दोहा, त्रिभंगी और छप्पय छंदों में रचित है जिसमें जयपुर नरेश सवाई जयसिंह और दिल्ली के सैयद भाइयों के युद्ध का वर्णन है। कवि ने इस युद्ध की न तो तिथि दी है, और न उस युद्ध की किसी घटना विशेष का कोई ब्योरेवार वर्णन ही उसमें है। सवाई जयसिंह महाराजा अजीतसिंह और सैयद हुसैन के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति के नाम का भी उल्लेख इस काव्य में नहीं है। ‘जाजऊ-युद्ध’, ‘बहादुर विजय’, ‘जयसिंह-गुण-सरिता’ आदि ग्रंथों में महाराजा जयसिंह का यशोगान किया गया है। सुविख्यात महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक पात्रों पर आधारित ये ग्रंथ प्रधानतया साहित्यिक ही है; ऐतिहासिक आधार-सामग्री के रूप में इनका कोई महत्व नहीं है।

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