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कण्हपा

सिद्ध कवि। समय : 840 ई. के आस-पास। पौराणिक रूढ़ियों और उनमें फैले भ्रमों के विरुद्ध कविताई की।

सिद्ध कवि। समय : 840 ई. के आस-पास। पौराणिक रूढ़ियों और उनमें फैले भ्रमों के विरुद्ध कविताई की।

कण्हपा का परिचय

उपनाम : 'काहणु'

सिद्ध साहित्य परंपरा के महत्त्वपूर्ण कवि। इन्हें सिद्ध साहित्य में काणेरी, काणोंरी, कानपा, कृष्णपाद, कानफा आदि नामों से भी जाने जाते हैं। सिद्ध परंपरा में इन्हें ‘नागार्जुन का शिष्य’ कहा जाता है। इसकी पुष्टि में इन्होंने स्वयं कहा है—

‘पूछे काणोंरी सुनि हो नागा अरजंद,
पिंड छूटे प्रान कहाँ समाई’

एक दूसरी मान्यता यह भी है कि ये मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे, क्योंकि इन्होंने एक स्थल पर आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का उल्लेख किया है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये कर्णाटदेशीय ब्राह्मण थे किंतु डा. विनयतोष भट्टाचार्य ने इन्हें उड़ीसा वासी बताया है तथा इनकी भाषा को उड़िया कहा है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नाथ ‘सिद्धों की बानियाँ’ में सती काणेरी और कणेरीपाद के पदों को अलग-अलग रखा है। उनके अनुसार ‘कणेरी’ शब्द के ईकारांत होने के कारण उन्हें स्त्री समझा गया जबकि कणेरीपाद ने स्वयं अपने पदों में सती कणेरी का उल्लेख किया है—

‘आदिनाथ नाती, मछेंद्रनाथ पूता,
सती कणेरी हम बोल्यो रे ले’

राहुल सांकृत्यायन ने इनके मगही में लिखित जिन छ: ग्रंथों का उल्लेख किया है, वे हैं— ‘कन्हपा गीतिका’, ‘महाढुंढुल मूल’, ‘बसंत तिलक’, ‘असंबद्ध दृष्टि’, ‘वज्रगीति’ और ‘दोहाकोश’। इनमें से ‘दोहाकोश’ महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के संपादन में प्रकाशित हो गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी ‘नाथ सिद्धों की बानियाँ’ में इनके कुछ पदों को संकलित किया है।

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