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भक्ति-काव्य की कृष्णभक्त शाखा के माधुर्योपासक कवि। 'राधावल्लभ संप्रदाय' के प्रवर्तक।

भक्ति-काव्य की कृष्णभक्त शाखा के माधुर्योपासक कवि। 'राधावल्लभ संप्रदाय' के प्रवर्तक।

हितहरिवंश का परिचय

हित हरिवंश 'राधावल्लभ' वैष्णव भक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक, राधा के अनन्य उपासक श्री हितहरिवंश गोस्वामी के पूर्वज उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद (प्राचीन देववन) नामक कस्बे के निवासी थे। हरिवंश के जन्म के संबंध में एक किंवदंती वाणी उपलब्ध है। कहते हैं कि हरिवंश के जन्म की भविष्यवाणी उनके पिता व्यास मिश्र के अग्रज नृसिंहाश्रम (केशव मिश्र) ने की थी। कुछ समय पश्चात् मथुरा के निकटवर्ती बादगाँव में तारारानी के गर्भ से निरतिशय सौंदर्ययुक्त बालक का जन्म हुआ। बालक का नाम हरिवंश रखा गया। हरिवंश का जन्म वैसाख शुक्ल एकादशी, सोमवार विक्रम संवत् 1559 (सन् 1502 ई.) को हुआ था। बादगाँव में राधावल्लभीय भक्तों ने एक मंदिर बनवाकर हरिवंश की जन्मस्थली को एक पूज्य स्थान के रूप में सुरक्षित किया है।

हरिवंश का शैशव सामान्य बालकों से भिन्न असाधारण घटनाओं से ओत-प्रोत था। बचपन से ही उनके हृदय में भवगद्भक्ति की प्रेरणा उत्कट रूप से उत्पन्न हो गयी थी और उनके खेल-कूद के कार्यों में भी राधाकृष्ण की लीलाओं का अनुकरण ही प्रायः रहता था। सांप्रदायिक दृष्टि से यह प्रसिद्ध है कि हरिवंश ने किसी पुरुष को अपना गुरु नहीं बनाया, प्रत्युत राधा को अपनी इष्टदेवी तथा गुरु माना था। हरिवंश को सांप्रदायिक दृष्टि से कृष्ण की वंशी का अवतार कहा जाता है।

षोडश वर्ष की आयु में हरिवंश का विवाह रुक्मिनी देवी के साथ संपन्न हुआ। उनका दांपत्य-जीवन सुखी, संपन्न और आदर्श कोटि का था। सोलह वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद उनके मन में ब्रज-यात्रा की इच्छा जागरित हुई और उन्होंने सपत्नीक यात्रा का निश्चय किया किन्तु छोटे बच्चों के कारण रुक्मिनी देवी ने यात्रा करना उचित नहीं समझा, अतः वे एकाकी ही ब्रजभूमि के लिए चल पड़े। गृहस्थाश्रम में रहते हुए हरिवंश ने यह अनुभव कर लिया था कि संसार का तिरस्कार कर वैराग्य धारण करने का मार्ग ही ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र उपाय नहीं है। प्रत्युत गृहस्थाश्रम में रह कर भी ईश्वराराधना की जा सकती है और सब प्रकार का आत्मसंतोष प्राप्त किया जा सकता है। दांपत्य जीवन के अनुभवों की प्रेम की कसौटी बनाकर, उनमें पूर्ण पवित्रता का आरोप करके प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति भगवत् प्रेम की प्राप्ति कर सकता है।

ब्रज-यात्रा के समय उन्होंने मार्ग में ‘चिरथावल’ गाँव के एक धर्म-परायण ब्राह्मण की दो युवती कन्याओं से उनके पिता के परम आग्रह पर विवाह कर लिया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहारी दासी थे।

ये फाल्गुन एकादशी विक्रम सं० 1590 (सन् 1533 ई.) को वृंदावन पहुँचे। वृंदावन पहुँचने पर ‘मदनटेर’ नामक स्थान पर उन्होंने विश्राम के लिए डेरा डाला। उनकी मधुर वाणी और दिव्यरूप पर मुग्ध हो कर दर्शक मंडली एकत्र होने लगी और शीघ्र ही वृंदावन में उनके आगमन का समाचार फैल गया। वृंदावन में स्थायी रूप से बस जाने पर उन्होंने ‘मानसरोवर’, ‘वंशीघाट’, ‘सेवाकुंज’ और ‘रास-मंडल’ नामक चार सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य किया। ये चारों स्थल आज भी वृंदावन में विद्यमान हैं। मानसरोवर अब यमुना के किनारे पर जंगल में एक स्थान है, जहाँ प्रति वर्ष एक मेला लगता है और राधावल्लभीय भक्तों की भीड़ होती है। हितहरिवंश ने अपनी उपासना पद्धति को प्रचलित करने के लिए सेवाकुंज नामक स्थान में अपने उपास्य इष्टदेव का विग्रह सर्वप्रथम स्थापित किया। सं० 1591 में (सन् 1534 ई.) प्रथम पाटोत्सव इसी सेवाकुंज में संपन्न हुआ था। लगभग आधी शती तक सेवाकुंज में ही श्री राधावल्लभ का विग्रह प्रतिष्ठित रहा । संवत् 1641 (सन् 1594 ई.) में अब्दुर्रहीम खानखाना के साथी दीवान या खजांची दिल्ली निवासी सुंदरलाल भटनागर कायस्थ ने लाल पत्थर का मंदिर बनवाया। लाल पत्थर का वह प्राचीन मंदिर आज भी वृंदावन में स्थित है किंतु इसमें प्राचीन विग्रह प्रतिष्ठित नहीं है। ब्रज-प्रदेश में औरंगजेब के आक्रमणों के समय मंदिर से विग्रह को उठाकर कामवन (भरतपुर) ले जाया गया। उसके बाद एक नया मंदिर बनवाया गया और सं. 1842 में (सन् 1785 ई.) पुनः इसमें विग्रह की प्रतिष्ठा हुई।

ईसा की पंद्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ब्रज की भक्ति-साधना के चरम उत्कर्ष का काल है। इस काल में कृष्ण-भक्ति की जो अजस्र निर्झरिणी वृंदावन की कुंज-गलियों में होकर प्रवाहित हुई, वह अद्यावधि किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है। हितहरिवंश के वृंदावन आगमन के साथ ही स्वामी हरिदास, हरिराम व्यास, स्वामी प्रबोधानंद सरस्वती आदि महान् भक्तों का ब्रजभूमि में आगमन हुआ। हरित्रयी की सरस पदावली और ऋजु भक्ति पद्धति ने माधुर्य भक्ति को सर्वजन सुलभ और सर्व-संवेद्य बनाने में अमित योग दिया। कृष्ण-भक्ति के इस नवीन मार्ग के प्रचार के लिए रासलीला अनुकरण की आवश्यकता अनुभव हुई और रास-लीला को अभिनेय बनाने के लिए रासमंडल का निर्माण हुआ। रास-लीला अनुकरण के पुनरुज्जीवन का बहुत कुछ श्रेय हितहरिवंश को प्राप्त है। राधा-वल्लभीय सेवा-पूजा विधि में वैशिष्टय लाने के लिए 'खिचड़ी प्रथा' तथा 'ब्याहुलो' का प्रवर्तन भी हरिवंश ने ही किया था।

हितहरिवंश गोस्वामी के विचार और सिद्धांतों में इतनी नवीनता है कि उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने माध्व या निंबार्क संप्रदाय की दीक्षा ग्रहण करके यह महान् परिवर्तन किया होगा। यथार्थ में वे स्वयं संप्रदाय प्रवर्तक आचार्य की शक्ति लेकर आये थे और उनके सामने विष्णुभक्ति का नया रूप ‘राधा-कृष्ण भक्ति’ के माध्यम से आया था। 'बंगला भक्तमाला' आदि ग्रंथों में गोपाल भट्ट को इनका गुरु सिद्ध करने का जो प्रयत्ल किया गया है, वह बहुत ही भ्रामक है। यदि हरिवंश की विचारधारा का विधिवत् अनुशीलन किया जाए तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि उन्होंने कहीं भी अनुगमन नहीं किया है। वे नूतन मार्ग के अन्वेषक, पथ-प्रदर्शक और नेता बनकर ही अवतरित हुए थे।

हरिवंश ने अपनी विचारधारा और नूतन उपासना पद्धति को व्यवस्थित रूप देने के लिए एक नवीन संप्रदाय का प्रवर्तन किया, जिसका नाम ‘राधावल्लभ संप्रदाय’ है। यह संप्रदाय ब्रज के वैष्णव भक्ति-संप्रदायों में अपनी राधा-भक्ति के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है। माधुर्यभक्ति या प्रेमलक्षणा भक्ति का स्वरूप यद्यपि हरिवंश गोस्वामी से पहले ही प्रकट हो चुका था किंतु ब्रजमंडल में उसका निखार और प्रचार हरिवंश के प्रयत्नों से ही मानना चाहिए। हरिवंश ने अपने ग्रंथों में प्रेम को प्रमुख तत्व के रूप में स्थिर करके ‘रसो वै सः’ की कोटि तक पहुँचाया। प्रेम की गरिमा और प्रभुता स्थापित करने के बाद उसे विलक्षण रूप देने के लिए शाश्वत तत्व माना गया और संसार में दिखायी देने वाली संयोग-वियोग दशाओं से सर्वथा रहित स्थित किया गया। हरिवंश के मतानुसार प्रेम या ‘हित तत्त्व’ ही समस्त चराचर में व्याप्त है। यह प्रेम या हित ही जीव को आराध्य के प्रति उन्मुख करता है। इस प्रेम का पूर्ण परिपाक ‘जुगल प्रेम’ में होता है। जुगल प्रेम (राधा-कृष्ण) को सांसारिक प्रेम से सर्वथा पृथक् और स्वतंत्र मानकर उसका बड़े विस्तार के साथ हरिवंश ने कथन किया है। राधा-कृष्ण के प्रेम में ‘तत्सुखी भाव’ की स्थापना कर उसे सांसारिक स्वार्थ या आत्मसुख कामना से पृथक् करके अलौकिक रूप दिया गया है।

हितहरिवंश गोस्वामी ने अपने संप्रदाय की उपासना पद्धति को ‘रसोपासना’ कहा है। रस-भक्ति या रसोपासना शास्त्रीय भक्ति से सर्वथा नवीन शैली की है। शास्त्रीय मर्यादा का अंकुश इस रसभक्ति में स्वीकार्य नहीं है। विधि-निषेध के प्रपंच भी प्रायः यहाँ नहीं माने जाते। बाह्य विधि-विधान का बड़े प्रबल शब्दों में हरिवंश ने अपने ‘राधा सुधानिधि ग्रंथ’ में खंडन किया है। राधावल्लभ संप्रदाय में नित्य बिहारी राधाकृष्ण की स्वीकृति है। वस्तुतः निकुंज-लीला या नित्य-विहार का समर्थन ही हरिवंश की वाणी का मूल स्वर है।

नित्य विहार से हरिवंश का आशय चार से है—राधा, कृष्ण, वृंदावन और सहचरी। राधा को श्रीकृष्ण से भी उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करके हरिवंश ने अपनी उपासना पद्धति में मौलिकता का समावेश किया है। राधावल्लभ संप्रदाय में राधा को उस अनादि वस्तु का रूप स्वीकार किया गया है, जो इस ब्रह्मांड में व्यक्त होकर अपनी नित्य क्रीड़ा के आनंद की अभिव्यक्ति करती रहती है। हरिवंश ने राधा को रसरूप बताया है। श्रीकृष्ण की स्थिति उनके मत में राधा के बाद अर्थात् गौण है। वृंदावन का भौतिक रूप ही हरिवंश को स्वीकार्य है और इसी के विस्तार का उन्होंने अपने ग्रंथों में वर्णन किया है। सहचरी (सखी) अर्थात् जीवात्मा का ध्येय नित्य-विहार में रत राधा-कृष्ण की निकुंज लीलाओं का दर्शन सुख पाने का अधिकारी बनना है।

हरिवंश गोस्वामी लिखित चार ग्रंथ प्राप्त हैं। दो ग्रंथ संस्कृत के हैं—‘राधा सुधानिधि’ और ‘यमुनाष्टक’ और दो हिंदी के—‘हितचौरासी’ तथा ‘स्फुट वाणी’। ‘हितचौरासी’ उनकी सुप्रसिद्ध रचना हैं। इसमें ब्रजभाषा के चौरासी पद हैं। भाषा में लालित्य और माधुर्य का इतना समावेश अन्यत्र नहीं मिलता। 'स्फुट वाणी' में सिद्धांत प्रतिपादक चौबीस पद हैं। ब्रजभाषा को समृद्ध बनाने में उनके अनुयायियों का योगदान अत्यधिक है। हितहरिवंश का निधन विक्रम सं० 1609 में (सन् 1552 ई.) वृंदावन में ही हुआ। वृंदावन के जिस रसिक समाज की हितहरिवंश ने स्थापना की थी, वह उनके निकुंज गमन के बाद छिन्न-भिन्न हो गया और सांप्रदायिक विद्वेष की भावना फैलने लगी।

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