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चाचा हितवृंदावनदास

1708 - 1793 | अजमेर, राजस्थान

'राधावल्लभ संप्रदाय' से संबंधित। भाव-वैचित्र्य और काव्य-प्रौढ़ता के लिए विख्यात।

'राधावल्लभ संप्रदाय' से संबंधित। भाव-वैचित्र्य और काव्य-प्रौढ़ता के लिए विख्यात।

चाचा हितवृंदावनदास का परिचय

राधावल्लभ संप्रदाय के कवियों में हितवृंदावन दास का प्रमुख स्थान है। काव्य परिमाण की विपुलता और शैली की विविधता की दृष्टि से जितना व्यापक विस्तार वृंदावनदास का है, उतना किसी और कवि का नहीं। हिंदी साहित्य की भक्ति एवं रीतिकालीन काव्य परिपाटी का जितनी समग्रता के साथ इन्होंने निर्वाह किया, गोस्वामी तुलसीदास को छोड़कर और कोई कवि नहीं कर सका। सरस्वती का दिव्य वरदान लेकर वे अवतीर्ण हुए थे, इसीलिए काव्यमयी सरस वाणी का अजस्र निर्झर उनके कंठ से आजीवन प्रवाहित होता रहा। वृंदावनदास के जन्म वर्ष और जन्म स्थान के विषय में अभी तक प्रामाणिक रूप से निर्णय नहीं हो सका है। उनकी कृतियों में उल्लिखित संवतों को ध्यान में रखते हुए सन् 1695 ई. से 1710 ई. के बीच उनका जन्म तथा सन् 1793 ई. के आसपास इनका निधन काल स्थित किया जाता है। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका जन्म स्थान पुष्कर बताया है किंतु इनकी रचनाओं द्वारा अथवा किसी ऐतिहासिक आधार पर इसकी पुष्टि नहीं होती। कृष्णगढ़ के राजा बहादुर सिंह के साथ इनके संबंध का वर्णन अवश्य मिलता है, संभव है उसी के आधार पर पुष्कर को जन्म-स्थान लिखा गया हो। उनकी भाषा को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे ब्रजमंडल के ही निवासी थे और युवावस्था में विरक्त होकर वृंदावन मंप आ गये थे। बाद में मुगलों के आक्रमणों से तंग आकर इधर-उधर अनेक स्थानों में भटकते रहे। ‘हरिकला वेली’ नामक रचना में यवनों के आक्रमणों का उन्होंने बड़े विस्तार से वर्णन किया है।

वृंदावनदास के साथ ‘चाचाजी’ शब्द का प्रयोग इस कारण होने लगा था कि गोस्वामीजी के पिता के गुरु-भ्राता होने के कारण गोस्वामीजी की देखा-देखी और लोग भी उन्हें ‘चाचा’ कहकर पुकारने लगे और समस्त समाज में वे ‘चाचाजी’ नाम से विख्यात हो गये। वृंदावनदास ने अपने उपनाम या छाप के रूप में तीन शब्दों का प्रयोग किया—वृंदावन हितरूप, वृंदावन हित, वृंदावन। वृंदावनदास ने सन् 1738 ई. के आस-पास काव्य-रचना करना प्रारंभ किया होगा। प्रथम रचना में 1800 संवत् का उल्लेख मिलता है किंतु कुछ कृतियों में संवत् नहीं है और वे पहले की रचनाएँ प्रतीत होती हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि वृंदावनदास स्वयं अपने हाथ से नहीं लिखते थे, उनके साथ सदा एक लेखक रहता था और जब उनकी इच्छा होती; पद रचना में लीन हो जाते थे, ब्रजभूमि से बाहर रहने पर भी उन्होंने काव्यरचना नहीं छोड़ी थी। संवत् 1831 से 1836 तक उन्हें ब्रज से बाहर रहने को विवश होना पड़ा था किंतु उस समय भी उन्होंने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘लाड़ सागर’ का प्रणयन किया था। ब्रज के भक्ति-संप्रदायों में जितने कवि हुए हैं, चाचा वृंदावनदास की रचनाओं की संख्या सबसे अधिक है। राधावल्लभीय ग्रंथ सूची ‘साहित्य रत्नावली’ में इनकी ग्रंथ संख्या 158 लिखी है, वैसे सवा लाख पद-रचना की बात भी इनके विषय में वृंदावन में प्रमिद्ध है।

केवल अष्टयाम के संबंध में ही यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने प्रत्येक दिवस के अनुसार 365 अष्टयाम लिखे थे। रामचंद्र शुक्ल ने बीस हज़ार पद-रचना का संकेत अपने इतिहास ग्रंथ में किया है। वृंदावनदास के प्रमुख ग्रंथों में कुछ प्रकाशित हो चुके हैं। इनके उल्लेखनीय ग्रंथों में ‘लाड़ सागर’, ‘ब्रज प्रेमानंद सागर’, ‘वृंदावन जस प्रकाश वेली’, ‘विवेक पत्रिका वेली’, ‘कृपा अभिलाषा वेली’, ‘रसिक पथ चंद्रिका’, ‘जुगल सनेह पत्रिका’, ‘हित हरिवंश सहस्र नाम’, ‘कलि चरित्र वेली’, ‘आर्त पत्रिका’, ‘छबलीला’ और ‘स्फुट पद’ महत्वपूर्ण हैं। बेली-काव्य का सर्वाधिक साहित्य आपका ही रचा हुआ है।

वृंदावनदास के साहित्य में राधावल्लभीय प्रेमभक्ति के इतिहास की सामग्री भी उपलब्ध होती है। 'हरिवंश सहस्र नाम’ में भक्तों का सार रूप में परिचय दिया गया है जो ‘भक्तमाल’ की कोटि में रखा जा सकता है। चाचाजी के काव्य की भाषा व्यावहारिक बोलचाल की ब्रजभाषा है। इसे हम घरेलू ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। कोमलकांत तत्सम पदावली का आग्रह उनमें नहीं था। रीतिकालीन कवियों के समसामयिक होने पर भी सानुप्रासिक परिमार्जित भाषा को बचाकर घरेलू भाषा का प्रयोग उन्होंने जानबूझकर ही किया है। उनकी भाषा में संवादात्मकता अधिक है। ‘लाड़ सागर’ और ‘ब्रज प्रेमानंद सागर’ के आख्यान-प्रसंगों में नाटकीयता लाने के लिए उन्होंने संवादों को अधिक स्थान दिया है। मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। अरबी, फ़ारसी और तुर्की भाषा के शब्द भी उनकी रचनाओं में मिलते हैं। चाचाजी की रचनाओं का मुख्य विषय यद्यपि भक्ति था, फिर भी उन्होंने शृंगार, वात्सल्य, हास्य और करुण रस के अनुकूल अनेक प्रसंगों की अवतारणा अपनी रचनाओं में की है। कलियुग के प्रसंग में करुणरस का अच्छा वर्णन है । शृंगार और वात्सल्य उनके सर्वाधिक प्रिय विषय थे। छंद-विधान में भी इनकी कुशलता सर्वत्र देखी जा सकती है। प्रबंध काव्य के अनुकूल दोहा-चौपाई का प्रयोग भी पर्याप्त है किंतु कवित्त, सवैया, सोरठा, अरिल्ल, छप्पय, मंगल, करघा आदि छंदों का विपुल प्रयोग है । लोकगीतों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। विवाह-वर्णन प्रसंग में गाली गाने के गीत, बन्ना-बन्नी के गीत, घुड़चढ़ी के गीत बिलकुल लोकगीतों की धुन पर आधारित हैं। रास-लीला में आज भी उनके पदों का प्रयोग होता है। रास-लीला के लिए उन्होंने अनेक लीलाएँ संवादात्मक शैली में लिखी थीं। वृंदावनदास के विशाल साहित्य-सागर की सीमाओं का अभी तक न तो पूर्ण रूप से पता चला है और न ज्ञात साहित्य की विधिवत अवगाहना ही हुई है। उनके साहित्य के परिमाण को देखकर कहा जा सकता है कि यदि ब्रजभाषा के आदिकवि के रूप में सूरदास वाल्मीकि हैं तो ब्रजभाषा को विशद व्यापक विस्तार देने का श्रेय महाकवि व्यास के रूप में चाचा वृंदावनदास को प्राप्त है। निश्चय ही वे ब्रजभाषा काव्य के व्यास हैं।

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