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रीतिकाल के जैनकवि।

रीतिकाल के जैनकवि।

बुधजन की संपूर्ण रचनाएँ

दोहा 42

बलधन मैं सिंह ना लसैं, ना कागन मैं हंस।

पंडित लसै मूढ़ मैं, हय खर मैं प्रशंस॥

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रोगी भोगी आलसी, बहमी हठी अज्ञान।

ये गुन दारिदवान के, सदा रहत भयवान॥

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अधिक सरलता सुखद नहिं, तेखो विपिननिहार।

सीधे बिरवा कटि गए, बाँके खरे हजार॥

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बोलि उठै औसर बिना, ताका रहै मान।

जैसैं कातिक बरसतैं, निंदैं सकल जहान॥

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मनुख जनम ले क्या किया, धर्म अर्थ काम।

सो कुच अज के कंठ मैं, उपजे गए निकाम॥

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