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आलम

1583 - 1603

रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रेमोन्मत्त कवि। कविता में हृदय पक्ष की प्रधानता। परिमार्जित भाषा और अनूठी उत्प्रेक्षाओं के लिए विख्यात।

रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रेमोन्मत्त कवि। कविता में हृदय पक्ष की प्रधानता। परिमार्जित भाषा और अनूठी उत्प्रेक्षाओं के लिए विख्यात।

आलम का परिचय

रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्य-धारा के प्रमुख कवियों में से एक। ‘ब्रजभाषा’ हेतु ‘ब्रजभाषा ही न अनुमानों' को प्रमाणित करने के लिए भिखारी दास ने अपने 'काव्यनिर्णय' में जिन कवियों के नाम गिनाये हैं उनमें रहीम, रसखान, और रसलीन से पूर्व आलम को स्थान दिया है। 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' 'कविता कौमुदी', मिश्रबंधु विनोद', 'हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण' आदि हिंदी के अनेक ग्रंथों में अब तक यह प्रतिपादित किया जाता रहा है कि आलम नाम के दो कवि हुए हैं। एक आलम अकबर के समकालीन सूफ़ी कवि थे जिन्होंने 'माधवानल कामकंदला' की रचना की और दूसरे आलम औरंगजेब के पुत्र मुअज्जमशाह के आश्रित थे। यह दूसरे आलम ही रीतिकालीन प्रसिद्ध कवित्त-सवैया में शृंगारिक मुक्तकों के रचयिता थे। 'शेख' वाली किंवदंती भी इन्हीं के साथ संबद्ध है।

ब्रजभाषा साहित्य में आलम की स्त्री तथा स्वयं एक श्रेष्ठ कवयित्री के रूप में शेख की पर्याप्त मान्यता रही है। आलम के कवित्त-संग्रह 'आलमकेलि' में कतिपय छंद 'शेख' छाप के भी उपलब्ध होते हैं, जिनकी रचना का श्रेय हिंदी के अनेक इतिहासकारों द्वारा इन्हीं को दिया गया है। परंतु 'पोद्दार अभिनंदन ग्रंथ’ में 'आलम और रसखान' शीर्षक से प्रकाशित भवानीशंकर याज्ञिक के लेख में यह मंतव्य साधार व्यक्त किया गया है कि 'शेख' आलम नाम के पूर्व प्रयुक्त होने वाला जातिसूचक शब्द मात्र है तथा 'शेख' वाले सभी छंद आलम के ही रचे हुए हैं। उनके मत से शेख को प्रचलित किंवदन्तियों के आधार पर आलम की स्त्री मानना सर्वथा श्रामक है। प्राचीन ग्रंथों में सूदन कवि की सूची में शेख का नाम मिलता है तथा ‘कालिदास हज़ारा’ में भी शेख के छंद संगृहीत हैं। शुक्लजी ने आलम का परिचय देते हुए शेख के विषय में लिखा है- "ये जाति के ब्राम्हण थे पर शेख नाम की रंगरेजिन के प्रेम में फंसकर पीछे से मुसलमान हो गये और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से जहान नामक एक पुत्र भी हुआ। शेख रंगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी।" इसके पश्चात उन्होंने निम्नलिखित दोहे से संबद्ध किंवदंती देते हुए बताया है कि इसका उत्तरार्द्ध शेख द्वारा विरचित है और पूर्वाद्ध आलम कृत है—
"कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन।
कटि कंचन को काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन।।"

'शिवसिंह सरोज' में आलम को औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम शाह का समकालीन मानते हुए प्रमाण में एक किंवदंती का ही सहारा लिया है। कहते हैं कि शेख बहुत ही चतुर और हाजिर जवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा—“क्या आलम की औरत आप ही हैं?” शेख ने चट उत्तर दिया—“हाँ, जहाँपनाह! जहान की माँ मैं ही हूँ।" इन जनश्रुतियों में शेख की प्रत्युत्पन्नमति का जो परिचय मिलता है, उससे उसके प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व का आभास मिलता है। ब्रजभाषा काव्य-प्रेमियों ने 'आलमकेलि’ के नेत्र-विषयक ‘लोह के पियासे कह पानी ते अघात हैं’ जैसी चमत्कारिक पक्तियों वाले अनेक सशक्त कवित्तों की रचना का श्रेय ही शेख को नहीं दिया, वरन 'आलम' छाप वाले कवित्तों में भी कौन-कौन सी पंक्ति शेख की जोड़ी हुई है, इसका लेखा-जोखा भी प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ ‘प्रेम रंग पगे जगमगे’ से आरंभ होने वाले कवित्त का अंतिम चरण ‘चाहत हैं उड़िबे को देखत मयंक मुख, जानत हैं रैनि ताते ताहि में रहत हैं’ शेख कृत बताया जाता है। शेख के अस्तित्व संबंधी विश्वास की इस विकसित एवं परिपक्व स्थिति में याज्ञिक का पूर्वोक्त मंतव्य अविश्वसनीय प्रतीत होता है परंतु उनके द्वारा दिये गए तथ्यों पर ध्यानपूर्वक विचार करने से यही धारणा बनती है कि कदाचित शेख-विषयक प्रचलित विवरण निराधार हैं और शेख नामक कोई कवयित्री ऐसी नहीं हुई, जिसका आलम से पृथक अस्तित्व प्रमाणित किया जा सके। उनके द्वारा तीन प्रमुख कारण दिये गये हैं। पहला, शेख नाम किसी स्त्री का होना असंगत जान पड़ता है। दूसरा, शेख शब्द मुसलमानों के एक समुदाय विशेष का द्योतक है, और तीसरा, 'आलमकेलि' की प्राचीन हस्तप्रतियों के आदि अंत में ‘शेख आलमकृत’ शब्दों का स्पष्ट प्रयोग। निष्कर्ष रूप में याज्ञिक का कथन इस प्रकार है कि "शेख और आलम एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। शेख तथा आलम छापयुक्त छंद सभी प्रतियों में ऐसे घुले-मिले हैं और उनके भाव, भाषा आदि इतना अधिक साम्य रखते हैं कि दोनों प्रकार के छंदों में कोई विशेष अंतर नहीं प्रतीत होता।....कुछ ऐसे छंद भी हैं, जो आलम अथवा शेख दोनों के नाम से भिन्न-भिन्न प्रतियों में मिलते हैं। यदि एक प्रति में ‘आलम’ छाप है तो दूसरी में वही छंद कुछ पाठ-भेद से ‘शेख’ के नाम से मिलता है।" बहरहाल, वर्तमान में दोनों ही मत चले आ रहे हैं। जब तक कोई ठोस आधार नहीं मिल जाता, तब तक किसी भी एक मान्यता को ग्रहण करना या छोड़ देना व्यर्थ होगा।

प्रारंभ से ही आलम एक विख्यात कवि रहे हैं। कहते हैं कि 'गुरुग्रंथ साहब' के अंतिम भाग में दी हुई ‘रागमाला’ इनके ग्रंथ 'माधवानल कामकंदला' का अंश है। 'गुरुग्रंथ साहब' का वर्तमान रूप वही है जो 1504 ई. तक निश्चित हो चुका था। मुअज्जम शाह के समय के कवि आलम की रचना का अंश उसमें होना संभव नहीं है इस विचार से कुछ सिक्ख 'रागमाला' को प्रक्षिप्त मानने लगे हैं।

आलम की तीन कृतियाँ ‘माधवानल कामकंदला’, ‘श्याम सनेही’, और ‘आलम के कवित्त’ प्रामाणिक मानी जाती हैं। एक चौथी कृति 'सुदामाचरित्र' का भी उल्लेख मिलता है पर वह संदिग्ध ही लगता है। 'माधवानल कामकंदला' में माधवानल और कामकंदला के पारस्परिक प्रेम की कथा प्रेमाख्यानक शैली में सफी प्रभाव के साथ वर्णित की गयी है। इसके दो रूप मिलते हैं। छोटा रूप बड़े की अपेक्षा प्राचीनतर प्रतीत होता है। कामकंदला के नृत्य-गान वर्णन में कवि ने अपने संगीत ज्ञान का विशेष परिचय दिया। यही अंश 'रागमाला' नाम से 'गुरुग्रंथ साहब' में संगृहीत हुआ है। 'श्याम सनेही' में रुक्मिणी विवाह की कथा है और इसकी रचना भी दोहा-चौपाई शैली में हुई है। 'आलम के कवित्त' कवि के रीति शैली के स्फुट पद्यों का संग्रह है। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में इसके अनेक नाम मिलते हैं। जैसे-'कवित्त आलम के', 'रसकवित्त', 'आलमकेलि', 'अक्षरमालिका' और 'चतुःशती' आदि; जिनमें से कोई सर्वमान्य नहीं हैं। 'आलमकेलि' के कुछ कवित्तों में 'शेख' छाप मिलती है, कुछ में 'आलम'। ग्रंथ की पुष्किाओं से ज्ञात होता है कि कवि का पूरा नाम 'शेख आलम' था तथा उसे 'शेख साईं’ नाम से भी जाना जाता था।

आलम की ख्याति अधिकतर मुत्तकों के कारण ही हुई, अतः 'आलमकेलि' कवि की सर्वप्रमुख रचना कही जा सकती । यह नाम 'कवित्त आलम के लिख्यते' से ही गृहीत प्रतीत होता है। इस संग्रह के मुक्तकों में निश्चय ही अनेक ऐसे है जिनमें भावात्मक तीव्रता कथन की अतिशयता के साथ मिलकर सूफ़ी काव्य की प्रकृति का परिचय देती है। कवि के भीतर प्रेम की पिपासा विशेष लक्षित होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इनके विषय में लिखा है कि “ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदयतत्व की प्रधानता है। ‘प्रेम की पीर’ या ‘इश्क़ का दर्द’ इनके एक-एक वाक्य में भरा पाया जाता है। उत्प्रेक्षाएँ भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक कही हैं। शब्द-वैचित्र्य, अनुप्रास आदि की प्रवृति इनमें विशेष रूप से कहीं नहीं पायी जाती। शृंगार रस की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती हैं कि पढ़ने और सुननेवाले लीन हो जाते हैं। यह तन्मयता सच्ची उमंग में ही संभव है। प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ और ‘घनानंद’ की कोटि में ही होनी चाहिए।”

आलम के छंदों में उत्सर्ग भावना एवं तन्मयता का ऐसा रूप मिलता है जिसे उनके कवि व्यक्तित्व की निजी विशेषता कहा जा सकता है। उनके द्वारा रचित "जा थल कीन्हें विहार अनेकन ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करे” जैसे मार्मिक सवैया से हिंदी-काव्य-प्रेमी सुपरिचित हैं।

1686 ई० में विरचित कुलपति मिश्र की 'युक्तितरंगिणी' में आलम की प्रशस्ति में यह दोहा लिखा है—
"नवरसमय भूरति सदा, जिन बरने नंदलाल।
आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल॥"

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