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वह फागुन की एक शाम थी

wo phagun ki ek shaam thi

प्रत्यूष चंद्र मिश्र

प्रत्यूष चंद्र मिश्र

वह फागुन की एक शाम थी

प्रत्यूष चंद्र मिश्र

और अधिकप्रत्यूष चंद्र मिश्र

    जब शिवाले पर पहली बार देखा था तुम्हें होली गाते

    नब्बे की उम्र ही होगी तुम्हारी और

    और हमारी तो तब दाढ़ भी नहीं उगी थी

    ‘भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे-भर फागुन’

    ‘गोरिया करीके सिंगार अँगना में पिसेला हरदिया’

    झाल और ढोलक से गूँज रहा था शिवाला

    और गूँज रही थी तुम्हारी आवाज़

    फागुन की उस शाम में

    हमारी तब इतनी उमर नहीं थी

    कि इन गीतों का अर्थ समझते

    लेकिन ‘फगुनहट’ का स्पर्श अपने बदन पर

    महसूस करने लगे थे हम उन दिनों

    स्पर्श और आवाज़ का बिरवा

    तब हमारे भीतर फूटा ही था

    और तुम्हारी वह मादक आवाज़

    वह तन्मयता

    वह नब्बे की उमर में तुम्हारा झूमता हुआ बदन

    और वह फागुन की मादक हवा

    पड़ोस की खिड़की से आती हुई

    यह नब्बे का दशक था

    हमारे सब कुछ आँखें खोलकर देखने

    और ध्यान से सुनने का समय

    शहर में भरते गाँव

    और गाँव में भरते हुए शहरों का समय

    हमारी धरती ख़ून से लाल थी

    लेकिन बचा हुआ था उसका हरापन

    हम ख़ून के धब्बे मिटाते

    तो मिट जाता धरती का हरा रंग

    और जब हरापन बचाते

    तो ख़ून के छींटे भी बच जाते

    अपनी आत्मा, अपने दिल और अपने दिमाग़ पर

    एक मिट पाने वाले दाग़ के साथ

    हम शहर आए भयजनित सपने लेकर

    भय शहर की भीड़ में खो जाने का नहीं

    गाँव से रगेद दिए जाने का था

    जैसे रगेद दिए गए तमाम लोग

    अपने घरों से, गलियों से

    खेतों और खलिहानों से

    इच्छाओं और सपनों से

    हमें लील लिया शहर के कंक्रीटों ने

    सुविधाओं ने बढ़ाया हमारा लालच

    छीन लिया इस शहर ने हमारे समय

    हमारी आज़ादी को

    लेकिन इतना आसान नहीं था हमें

    अपनी स्मृतियों से अलग करना

    हमारे पास तुम्हारे गीत थे

    हत्याएँ, नफ़रत और हताशा के दौर को

    काटने का सबसे बड़ा हथियार

    इस तरह हमने इस सूखी नदी के देश में

    बचाए रखी थोड़ी-सी नमी

    हमने तो रोना छोड़ा गाना

    और इस तरह मनुष्य बने रहने की

    बुनियादी शर्तों के साथ

    अपना संघर्ष जारी रखा

    और यह संघर्ष आज भी जारी है

    कि आओ हम लौट चलें अपने पेड़ों के पास

    अपने ढोरों और डँगरों के पास

    अपने तालाबों और अपने लोगों के पास

    लहरा दो हवा में अपनी मुट्ठियाँ

    और चिल्लाओ ज़ोर-ज़ोर से

    कि यह धरती अब भी हमारी है

    यह आकाश अब भी हमारा है

    देखो कि हमारे लबों से फूट रहे हैं गीत

    और उग रही है हमारी इच्छाओं की घास

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रत्यूष चंद्र मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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