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वह 'कहीं'

wo kahin

ई. ई. कमिंग्स

अन्य

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ई. ई. कमिंग्स

वह 'कहीं'

ई. ई. कमिंग्स

और अधिकई. ई. कमिंग्स

    वह 'कहीं' जहाँ मैं कभी नहीं पहुँचा, किसी भी अनुभूति

    के सुखद उस पार

    तुम्हारी आँखों का मौन है :

    तुम्हारी सबसे सुकुँवार भंगिमाओं में कुछ है जो

    मुझे चारों ओर से मूँद लेता है

    या उसे मैं छू भी नहीं पाता वह इतना अंतरंग है

    तुम्हारी हल्की-सी निगाह मुझे आसानी से खोल देती है

    हालाँकि मैंने अपने को मुट्ठियों की तरह बंद कर रक्खा है

    तुम मुझे सदा एक-एक पाँखुरी कर खोलती हो जैसे चैत

    खिला देता है (एक सावधान रहस्यस्पर्श से)

    अपना पहला गुलाब

    या अगर तुम मुझे मूँदना चाहो तो मैं

    और मेरा जीवन बड़ी ख़ूबसूरती से मुँद जाएगा, अकस्मात्

    जैसे यह फूल जब इसको ख़्याल जाता है

    चारों ओर धीरे-धीरे गिरते हुए तुहिन का

    कुछ ऐसा नहीं है मेरी निगाह में इस तमाम दुनिया में

    जो मुक़ाबला कर सके, तुम्हारी चरम सुकुँवारिता की

    असीम शक्ति का

    जिसका स्पर्श मुझे विवश कर देता है अपने विभिन्न प्रदेशों के

    उठते-गिरते रंगों से

    जिसकी हर साँस में मृत्यु और अनंतकाल प्रस्तुत होता है

    (मैं नहीं जानता कि वह क्या है तुममें जो मूँदता है

    खोलता है; केवल यह कि मुझमें कुछ है जो समझता है

    तुम्हारी आँखों की आवाज़ तमाम गुलाबों से अथाह है)

    कोई नहीं, यहाँ तक कि बरखा बूँदों की हथेलियाँ भी इतनी

    नन्हीं नहीं होतीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 52)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : ई. ई. कमिंग्स
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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