मुज़फ़्फ़रपुर
देवकीनंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारी
शाम होते-होते सफ़ेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुएँ में
कहकहे गूँजते हैं और
राजा के महल में हर रात ग़ायब हो जाती है एक लड़की!
वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र ग़ायब ही रहीं
न माँ को मिलीं न पिता को
रोज़ खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरा
पलक झपकते ही
गुम हुई चुपाई लिए क़स्बों से
बीच सड़क गली-गलियारों से
जैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पाँव!
कुछ प्रेम में बरगलाई गईं
कुछ रात तक मारी जाने वाली थीं
कुछ ज़हर नहीं खा पाईं
कुछ इतनी डरपोक कि ट्रेन से कटने जातीं
तो उसकी आवाज़ से डर जातीं
आत्महत्या के असफल प्रयासों के क़िस्सों से भरी हैं ये लड़कियाँ
सुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता है
कुछ इतनी अनपढ़ थीं कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागीं
बहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चला
तो हताश होकर शून्य में निहारने लगीं
नर्क के दरवाज़े खुले मिले तो उसी में घुस गईं!
इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरत
जिन्होंने इन्हें पहले-पहल तौला और बेच दिया
वैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ!
तुम्हारी भाषा बज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैं
पर अभी हम बच्चियाँ हैं
तुम अपने भाषा-संस्कार में हमें गढ़ई कहना
न, न हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई-से
तुम हमें कुआँ कहना
पर हम कैसे कुएँ हैं
जो ख़ुद चलकर जाते हैं प्यासे के पास
इस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैं
उसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते!
खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयते
सब इस घुप्प अँधेरे कमरे की खूँटी पर चढ़ते-उतरते रहते हैं
जन-मन-गण नहीं है
गन-धन गणिकाएँ हैं मुज़फ़्फ़रपुर की ये लड़कियाँ...
- रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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