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उमस के दिनों में शरद की अनुपस्थिति

umas ke dinon mein sharad ki anupasthiti

हर्षित मिश्र

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हर्षित मिश्र

उमस के दिनों में शरद की अनुपस्थिति

हर्षित मिश्र

और अधिकहर्षित मिश्र

    घटते समय के साथ

    धीरे-धीरे धुँधलाने लगा है यह समय भी।

    अविराम घटनाओं की रेखा में

    एक और सावन—

    बिना शोर,

    बिना स्मृति—

    भीतर ही भीतर रिसकर बह गया।

    लेकिन इस निरंतर गिरावट में

    सब कुछ घट रहा है—

    भीतर कुछ भी नहीं बदल रहा—

    बदल पाने की विवशता में,

    बस बढ़ता जा रहा है

    बढ़ने का क्रम—

    बढ़ रही है उम्र—

    जैसे किसी दीवार पर

    चुपचाप फैलता हो

    नमी का एक अदृश्य धब्बा।

    बढ़ रही हैं साँसें—

    हर नई साँस,

    पिछली से अधिक बोझिल।

    बढ़ रही हैं त्रासदियाँ, महामारियाँ—

    मानो हर भूख, हर भय, हर प्रेत

    काल के कंधों पर चढ़

    हर देह में उतर रहा हो।

    और

    बढ़ रही है हृदय में—

    उमस—

    एक ऐसी गंधहीन चिपचिपाहट,

    जो समय को छूकर

    भीतर गीला कर जाती है।

    वर्षा के बाद भी

    हृदय में नहीं उतर रही शरद—

    टूट रही है धीरे-धीरे

    वर्षा के बाद शरद के आगमन की परंपरा।

    अब वर्षा,

    शरद को जन्म नहीं देती—

    वह स्वयं ही थकी हुई दाई बन गई है,

    जो पुराने कपड़े समेटकर

    मौन बैठी रहती है।

    इन भीगे दिनों में,

    जब मैं बालकनी से देखता हूँ—

    तो दिखता है

    पशु-पक्षियों का संघर्ष,

    क्रूरता भरी बिजली की कड़कड़ाहटों में

    कुत्तों का रुदन—

    चूहों के घरों का दमन।

    छिपते चूहे—

    रोते कुत्ते—

    और उनके डर के बीच

    डूबती जा रही है—

    मिट्टी से उठने वाली

    पहली वर्षा की सुगंध की परंपरा।

    अब प्रेम में भी नहीं उतरती शरद—

    वहाँ भी पसरी हैं

    उमस की परतें—

    जो छूने पर

    छोड़ जाती हैं

    स्मृतियों की गंध।

    अब विरह, तकिए पर नहीं—

    कमरे की हर दीवार पर उग आया है—

    जैसे कोई फफूँदी—

    धीरे-धीरे आत्मा तक

    चढ़ती हुई।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हर्षित मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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