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तुम मेरे आँगन की चिड़िया हो

tum mere angan ki chiDiya ho

शैरिल शर्मा

शैरिल शर्मा

तुम मेरे आँगन की चिड़िया हो

शैरिल शर्मा

और अधिकशैरिल शर्मा

    तुम मेरे आँगन की चिड़िया हो

    ज़्यादा बड़ी

    बहुत रंगीन

    पर तुम्हारे परों में एक ऐसा मौन है

    जो मेरे दिनों को बोलना सिखाता है।

    तुम्हारी चहचहाहट

    मेरे घर की सबसे पुरानी दीवार पर

    उगी हुई काई की तरह है

    हरी भी है, चुप भी है,

    और हर मौसम में वहीं रहती है।

    मैंने कई बार

    खुली खिड़की से देखा है तुम्हें

    जैसे कोई सपना

    हथेली पर उतर आता हो

    बिना माँगे।

    तुम जब उड़ती हो

    तब मैं नहीं देख पाती

    किधर गई,

    पर जब लौटती हो,

    तब आँगन की धूप

    थोड़ी गर्म,

    थोड़ी मीठी लगने लगती है।

    तुम्हारे लौटने में

    कोई संवाद नहीं होता

    बस हिलती है

    मनीप्लाँट की एक लतर,

    और मैं समझ जाती हूँ

    कि तुम गई हो।

    तुम्हारे बिना

    यह घर भी कुछ भूल जाता है

    दरवाज़े देर से खुलते हैं,

    घड़ी टँकी रहती है

    पर समय बीतता नहीं।

    तुम प्रेम में हो

    उस उड़ान की तरह

    जो लौटने का वादा नहीं करती

    पर लौटती ज़रूर है

    हर बार।

    मैं हर शाम

    आँगन की सबसे कोमल धूप को

    तुम्हारा नाम देती हूँ—‘चिड़िया’

    स्रोत :
    • रचनाकार : शैरिल शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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