तुम!
ज्यों-ज्यों आगे चली गईं
काल की नींद में
कितनी निष्कलंक होती चली गईं
तुम!
अगाध अवकाश की इस निर्जन-शून्य में
जब कभी
तुम्हारी वह हँसी
जो धातु की तरह खनकती थी
सुनने को जी अकुलाता है
तो मैं
अपने स्मृति-कगार पर
कोई पुरानी जुगत साधता हूँ।
तुम!
मौन को स्पर्श किए बिना
मुस्कुराती हो
काँच पर बनी ओस की तरह
सिर्फ़ क्षण-भर के लिए।
अब तुम्हें देखता हूँ,
तो जानता हूँ:
बीता हुआ वक़्त नहीं रीतता
वह ठहराव बन जाता है!
जैसे छोड़ जाती है
जीवन की इस पठार पर
कोई अनवरत बहती नदी
अपने जल की गहरी उदासी के निशान।
मन पर
परछाईं बन चुकीं
उन हाथों की
जो पराई हो चुके हैं
उन हथेलियों की स्याह ताप है अब
जब-तब बैठता हूँ
तुम्हारे उस अदृश्य घेरे में
तो झनझनाहट नहीं गूँजती
शायद
वह स्मृति-स्रोत की
कल-कल ध्वनि है
जो सिर्फ़ मुझ तक आती है।
मुझे याद है,
ठीक तरह से अंकित है :
तुम अपने उद्गम पर
कितनी अदम्य, कितनी जियाली थीं!
उदात्त रूप में स्वर्ण की तरह खिलखिलाती,
बिल्कुल बेबाक, कुछ-कुछ जीवन की बेहयाई-सी,
अठखेलियाँ करती हुई अंतिम उलमस्त!
जैसे ही
वर्तमान से पीछे मुड़कर देखता हूँ
पाता हूँ :
अस्तित्व के इस विस्तार में
तुमने
तुम्हें ही विस्मृति के हवाले कर दिया है!
- रचनाकार : शैरिल शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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