तीस के उतरते ही
गुजरे हुए सभी बरस
हर साँझ के परदों से झाँकने लगते हैं
और अब तक के उठे हुए
क्यों और क्या जैसे
हज़ारों आंदोलनों के परिणामों को
सोचनें में हर रात बिखर जाती है
दरअसल, तीस तक आते-आते
विचारधारा हो या और भी कुछ
या तो कहीं बहुत ऊपर होती है
या अपनी राह से थककर भटक जाती है
और ढेरों सवाल करती है
किसी उझबक की तरह
अब तक की अपनी अबूझ समझ के लिए—
फूलों से, बहारों से, चाँदनी से, पत्तों से
और आँखों को सुंदर लगने वाले हर दृश्य से
हर ही रोज़
तुम यहाँ आकर बताते हो कि
सोलह की तरह सपने मत देखो
क्योंकि आसमान हमेशा नीला नहीं रहता
क्योंकि बाज की आँख बहुत तेज़ होती है
क्योंकि विचार की थकान
आदमी को फिर से शुरू करने के लिए कहती है
और ले जाती है उस युग में
जहाँ कुछ नहीं था
सिर्फ़ भाप थे, बादल थे, बारिश थी
और थी गरम धरती।
और तुम उलझा देते हो
बीत हुए कल के—सुनहले भविष्य के निर्माण के भ्रमों में।
खैर, समय जो थकान को दोनों ओर है
हर कहीं सुना एक ही है
उस पर तुम कहते हो धार में उतर जाओ
ज़मीन पर भी टिके रहो
तुम्हारा दिमाग़ है या गोबर का ढेर जो
एक पत्थर उछलने भर तक ही बचा रह सकता है ।
आदमी की बात करो, सिद्धांतों और विचारों की नहीं
ये सिर्फ़ प्याज़ के छिलके हैं
जो सिर्फ़ आँखों को जलाएँगे
वह नवमासी उदर नहीं जहाँ आदमी बनता है
वह लोहा तो होगा पर दुनिया मात्र वहीं नहीं बनी
यह धरती, केवल अँडे का छिलका है
जिसका द्रव्य मेरा मस्तिष्क से बना है
जिस पर कोई सपाट परत नहीं
जहाँ तीस की उमर में आकर सो सकूँ चैन से
या उसे ढो सकूँ
सोलह की उमर में सपने जो पूरे न हो सकें
तो दुनिया में बाँट सकूँ
क्योंकि तीस से शुरू होने वाले युद्ध की चिकनाई (और शांति)
रूप ले चुकी होती है
और अब तुम फिर भ्रम पैदा करते है।
तुमने हमेशा बताया
किताबों में देखो, किताबों को देखो
दुनियावी कायदे नजर आयेंगे
मैंने माना लोगों को देखो, दुनिया ख़ुद दिखेगी।
पर तुम्हारे मायावी जाल में भटक जाने वाले मन
कभी क्रांति नहीं भर सकता किसी सीने में।
तुमने कायदे कानून हमेशा ढाले
और फिर दी एक परिभाषा
वह परिभाषा जिसको पढ़ना अच्छा लगता है
पर समझना नहीं।
देखो बंधु लिखी हुई भाषा में मरने लगती हैं बातें
रूक जाती है आदमी की जबान
स्थिर होने लगती है उसकी संवेदना
और तब जब मेरे भीतर बदलने की माँग होती है
उसी समय मृत अवशेषों से अधिक जटिल बना देते हो मुझे
कहते हो बदलाव है ज़रूरी
कैसे करोगे बदलाव
तीस की उमर के भटकते निर्जिवों से।
एक बात ठीक से जान लो
तीस पर आकर खाली एक ध्वनि सुनाई देती है
जिसका कोई अर्थ नहीं होता
जो संकेत बनाना चाहो, सच बनकर ढल जाएगा
उत्थान का सच या फिर पतन का।
इन सब के बीच
अंततः तीस पर जाकर
सपने में कोयल नहीं गाती
कौआ किसी के आने की सूचना नहीं देता
गौरैया धूल में नहीं नहाती
कोई कली उम्मीद नहीं पैदा करती
कोई पैदावार बीज नहीं देती
कोई बीज आदमी की तरह नहीं बनता
कोई आदमी या तो दर्शक होता है
या तमाशा होता है
और वहाँ पत्तियों का हिलना
सिर्फ़ एक शोर की तरह महसूस होता है
तीस पर आकर
आदमी या तो फिर से जन्म लेता है
या मर जाता है।
- रचनाकार : आकाश वर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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