टेबिल

tebil

विष्णु खरे

और अधिकविष्णु खरे

    उन्नीस सौ अड़तीस के आस-पास

    जब चीज़ें सस्ती थीं औप फ़र्नीचर की दो-तीन शैलियाँ ही प्रचलित थीं

    मुरलीधर नाज़िर ने एक फ़ोल्डिंग टेबिल बनवाई

    जिसका ऊपरी तख़्ता निकल आता था

    और पाए अंदर की तरफ़ मुड़ जाते थे

    जिस पर उन्होंने डिप्टी कमिश्नर जनाब गिल्मोर साहब बहादुर को

    अपनी ख़ास अँग्रेज़ी में अर्ज़ियाँ लिखीं

    छोटे बाज़ार की रामलीला में हिस्सा लेने वालों को पोशाक

    चेहरों और हथियारों का हिसाब रखा

    और गेहुएँ रंग की महाराजिन को मुहब्बतनामा लिखने की सोची

    लेकिन चूँकि वह उनके घर में ही नीचे रहती थी

    और उसे उर्दू नहीं आती थी

    इसलिए दिल ही दिल में मुहब्बतनामे लिख-लिखकर फाड़ते रहे

    और एक चिलचिलाती शाम जाने क्या हुआ कि घर लौट

    बिस्तर पर यूँ लेटे कि अगली सुबह उन्हें देख सकी

    और इस तरह अपने एक नौजवान शादीशुदा लड़के

    दो जवान अनब्याही लड़कियों और बहू और पोते को

    मुहावरे के मुताबिक रोता-बिलखता लेकिन असलियत में मुफ़लिस

    छोड़ गए

    टेबिल, जिस पर नाज़िर मरहूम काम करते थे

    और जो क़रीब-क़रीब नई थी

    मिली उनके बेटे सुंदरलाल को

    जिनका एकमात्र सपना डॉक्टर बनने का था, उस बच्चे का बाप नहीं

    जिसे असमय ही उनकी घरवाली ने उन पर थोप दिया था

    ज़माना हुआ मंदी का, नौकरी मिलती नहीं थी

    किसी ने जँचा दिया मिलिट्री की अस्पताली टुकड़ी में भर्ती हो जाओ

    वहाँ डॉक्टर बना देते हैं

    सो वह हो गए दाख़िल मेडिकल कोर में

    और बर्मा फ़्रंट पर एकाध बार चोरी-छुपे घायल हुए

    और भेजा अपनी घरवाली रामकुमारी को एक रोबीला फ़ोटो

    जिसे रखा रामकुमारी ने टेबिल पर

    और पालती रहीं तपेदिक़ बलग़मी रातों में

    (दोनों ननदें गुज़र गईं एक के बाद

    जिस तरह देर तक अनब्याही जवान लड़कियाँ

    मर जाती हैं अचानक)

    रखती रहीं फूल और ऊदबत्ती और उपास

    और वह हारमोनियम भी वहीं रखा

    जो कलकत्ते ले मंडाले जाते वक़्त भिजवाया था सुंदरलाल ने और जिसे लेने रामकुमारी

    बच्चे के साथ गई थीं पहली और आख़िरी बार रेलवे माल गोदाम

    और पहली और आख़िरी बार ही बैलगाड़ी पर

    बैठकर आई थीं घर उसे छुड़वाकर

    (ज़ाहिर है) बड़ी लड़ाई के दर्म्यान और बावजूद

    टेबिल बमय हारमोनियम और फ़ोटो उसी कोने में खड़ी रही

    और छँटनी के बाद भूतपूर्व जमादार सुंदरलाल मेंशन्ड इन डिस्पैचेज़

    जब वापस आए तो टेबिल पर पड़ी अपनी तस्वीर

    और बिस्तर पर रामकुमारी को देखकर

    उन्होंने उस तरह अपना चेहरा सिकोड़ा

    जिसे बर्मा के जंगलों में मुस्कुराहट समझने की उनकी आदत पड़ गई थी

    और कहा—अच्छा

    लेकिन कुछ भी (जिसमें रामकुमारी भी शामिल थीं)

    अच्छा नहीं हुआ और

    विधुर सुंदरलाल ने, जिसका विश्वास भावनाओं के

    भद्दे प्रदर्शन में नहीं रह गया था,

    अपना फ़ोटो तो टेबिल से हटा ही लिया

    साथ ही रामकुमारी की भी तस्वीर उस पर नहीं रखी

    क्योंकि कोई थी ही नहीं। फिर एक वाजिब अंतराल के बाद

    वे बैठे टेबिल पर अर्ज़ियाँ लिखने

    और बेकारी, बेगार, क्लर्की और मास्टरी से गुज़रते हुए

    हेडमास्टरी को हासिल हुए

    और उसी टेबिल पर केरल के ज्योतिषी को जन्मपत्री की नक़लें

    शिक्षा-उपमंत्री को सुझाव

    हाइस्कूल बोर्ड के सेक्रेटरी को इम्तहान की रिपोर्ट

    संभाग शिक्षा निरीक्षक को तबादले की दलीलें

    और मातहतों की कॉन्फ़िडेंशियल लिखते हुए

    (और यह सब करते वक़्त एक असंभव तथा करुण आवाज़ निकालते हुए

    जिसे वह अलग-अलग समयों पर अलग-अलग शास्त्रीय राग

    के नाम से पुकारते थे)

    पचास वर्ष की अपेक्षाकृत अल्पायु में एक सरकारी अस्पताल में मरे

    और अपनी विधुर गृहस्थी का सामान टेबिल समेत छोड़ गए

    अपने बेटे को जो अब बड़े शहर में

    गंजा और भद्दा होता हुआ एक मँझोला अफ़सर था

    और जो बाक़ी सामान को ठिकाने लगा

    सिर्फ़ टेबिल, चूँकि वह फ़ोल्डिंग थी और आसानी से ले जाई जा सकती थी,

    साथ ले आया

    और जब फ़र्नीचरवाले ने कह दिया कि वह तो बहुत पुरानी हो चुकी है

    और उस पर सनमाइका लगवाना भी बेकार है

    तो उसने उस पर गैरज़रूरी किताबें, पुराने ख़त, बेकार दवाइयाँ और

    कंपनियों के सूचीपत्र,

    टूटे और गुमे हुए तालों की चाबियाँ, जापानी दूरबीन

    और टाइपराइटर की घिर्रियाँ रख दीं

    जिनमें उसकी तीन बरस की लड़की की जायज़ और भरपूर दिलचस्पी थी

    और जो टेबिल के पायदान पर खड़ी होकर

    उसी तरह इस आश्चर्यलोक को फैली आँखों से देखती थी

    जिस तरह चौबीस बरस पहले

    यह अब गंजा और तुँदियल होता हुआ मँझोला अफ़सर

    उझक कर झाँकता था उस आईने में

    जिसमें सुंदरलाल बाएँ गाल को जीभ से उभारकर

    दाढ़ी बनाते हुए भैंगे होकर देखते थे

    (नाक के तीखेपन और जबड़े की लंबाई में मरहूम मुरलीधर

    का असर शायद पहचानते हुए)

    और टेबिल के हिलने की वजह से

    वह थोड़ा-थोड़ा हिलता था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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