विलाप नहीं

vilap nahin

कुमार वीरेंद्र

कुमार वीरेंद्र

विलाप नहीं

कुमार वीरेंद्र

और अधिककुमार वीरेंद्र

    जो नदी मुझसे छूट गई है

    उसके लिए विलाप नहीं करना है

    जो समंदर है उसी से जुड़ना है

    उसके खारेपन से गहरे

    उन पेड़ों की छाँव को भूलना नहीं है

    लेकिन विलाप भी नहीं करना है

    जो धूप है उसी से सर ढकना है

    बरसात को अपने भीतर भर लेना है

    लेकिन इस झोपड़पट्टी में उस घर के लिए

    विलाप नहीं करना है जो छूट गया है

    ये सड़कें ही काम आएँगी

    कि छूट चुकीं पगडंडियाँ सोलह सौ किलोमीटर दूर हैं

    इस भीड़ पर ही भरोसा किया जा सकता है

    कि एकांत साथ रहते साथ नहीं रह गया

    ये चीज़ें ही मंज़िल तक पहुँचाएँगी

    कि इन बुदबुदाहटों ने अक्सर पाँव पीछे खींचे हैं

    माना कि चिड़ियाँ कम हैं यहाँ

    वहाँ के हिसाब से कहाँ ज़्यादा हैं वहाँ

    माना सूरज के उगने के बाद उगता हूँ

    मेरे उगने के बाद वह डूबता भी तो है

    अगर चाँद-तारों को देखे मेरे कुछ वर्ष बीत गए

    क्या मुझे देखे उनके कुछ वर्ष नहीं बीते

    कि सब कुछ भूल जाना और विलाप करना है

    गेहूँ की बालियाँ अब भी याद आती हैं

    कि उन्हें आज भी कोई उपजाता है मालगुज़ारी पर

    जाड़े की रात इसलिए आती है याद

    कि आज भी टायर जलाकर कोई गुज़ारता है रात उसी जगह

    अगर वह छोटी-सी ढिबरी याद आती है

    तो कैसे मान लूँ उसकी रोशनी की एक छोटी-सी गोलाई में

    एक बहुत बड़े समाज की करोड़ों आँखें

    बुझ गई हैं और मैं भुलक्कड़ बन जाऊँ

    मेरे लिए हर सवाल आसान है विलाप नहीं

    अब फाग और चैती के गीत मुझे गुनगुनाते हैं

    मैं कोली डांस और गरबा के गीत गुनगुनाता हूँ

    वह बोली-बानी भोजपुरिया जो मैं लेकर आया

    यह मराठी-गुजराती मुझे लेकर चल रही है

    और यही वह बात है

    कि जो बहती है वहाँ पुरवइया

    उससे इस देह में जागता है दर्द

    जो यहाँ बहती है उससे

    इस सीने में जागता है इस छाती में

    फिर क्योंकर भूमि का भूत होना

    विलाप नहीं करना मुझे

    लेकिन कुछ भूलना भी नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विलाप नहीं (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : कुमार वीरेंद्र
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2005

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