एक वक्ता ने प्रश्न किया: स्वतंत्रता का क्या रूप है?
अलमुस्तफ़ा ने कहा :
नगर के मुख्य द्वार पर और अपने-अपने घरों में मैंने तुम्हें स्वतंत्रता-देवी की पूजा
और स्तुति के लिए नतमस्तक होते देखा है; उसी प्रकार जैसे कोई क्रीतदास अपने
अत्याचारी स्वामी के आगे सिर झुकाता है, उसकी अर्चना करता है।
दासों का नृशंस स्वामी दासों का वध भी कर देता है।
मैंने देखा है देवस्थानों के सघन कुंजों में तुम्हारे स्वातंत्र्य-उपासक स्वतंत्रता की
जयमाला ऐसे पहनते हैं मानों कारागार की बेड़ियाँ पहनी हों और स्वतंत्रता के भार का
वहन ऐसे करते हैं जैसे बैल की गरदन पर लोहे के हल का भार रखा हो।
और यह देखकर मेरा दिल ख़ून के आँसू रो उठा, क्योंकि तुम तभी मुक्त हो सकते हो,
जब स्वतंत्रता की इच्छा भी तुम्हें न बाँध सके, और जब तुम स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य
और अभीष्ट कहने के लाभ से भी मुक्त हो जाओ।
वास्तव में तुम तभी स्वतंत्र होंगे जब तुम्हारे दिन सर्वथा चिंतामुक्त न होंगे, और
रातें शोक या अभाव से सर्वथा रहित न होंगी।
अपितु जब ये आकांक्षाएँ और चिंताएँ चारों ओर से तुम्हें घेर लेंगी और तुम उनसे भी
ऊपर उठकर निःसंग, निर्बंध रहोगे तभी तुम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होंगे।
तुम अपने दिवा-रात्रि के बंधनों से मुक्त हो भी कैसे सकते हो, जब कि तुम उस बंधन-
शृंखला को तोड़ नहीं देते जो तुमने अपनी उदय-वेला में ही अपने अतीत के पैरों में बाँध
ली थी?
सच तो यह है कि स्वतंत्रता की बंधन-शृंखला ही सबसे शक्तिशाली है, जिसकी
कड़ियाँ सूर्य में चमककर तुम्हारी आँखों को चकाचौंध कर देती हैं।
स्वतंत्र होने की विधि क्या है?—यही कि अपने अस्तित्व का नाम शेष करके बिखेर देना,
जिससे कि तुम अपने से भी स्वतंत्र हो सको।
यदि अन्यायमूलक विधि-विधानों को मिटाने का नाम हो मुक्ति है, तो स्मरण रखो
कि इन विधानों के अक्षर तुमने अपने हाथों अपने ललाट पर लिखे थे।
मात्र विधान की पुस्तकें जलाकर भी तुम उन्हें नाम शेष नहीं कर सकते। न ही अपने
न्यायाध्यक्षों के ललाट पर जल उड़ेलकर उन्हें धो सकते हो, चाहे सौ समुद्रों का जल उड़ेल
दो।
यदि किसी सत्ताधीश को अपदस्थ करने की इच्छा है तो पहले उसे अपने हृदयासन से
अपदस्थ करो।
एक अत्याचारी राज स्वतंत्रताप्रिय तथा स्वाभिमानी प्रजा पर बलपूर्वक शासन नहीं
कर सकता; ऐसा शासन तभी संभव है यदि प्रजा की स्वतंत्र भावना में अराजकता और
गर्व में निर्लज्जता हो।
और यदि यह कोई ऐसा संताप है जिसे तुम मिटाना चाहते हो, तो स्मरण रखो कि
उस संताप का तुमने स्वयं वरण किया है, किसी ने बलपूर्वक तुम्हारे गले में नहीं डाला।
और यदि यह सत्ता केवल भयमूलक है तो भी उसका मूल-स्थान तुम्हारे हृदय में है, न
कि उस सत्ता के हाथों में जिससे तुम भयभीत हो। जब तक तुम स्वयं उस भय को अपने
अंत:करण से दूर न कर दो जब तक मित्र-शत्रु का निर्णय न कर सकोगे।
निश्चय ही ये सब तत्व तुम्हारे अंतर में विद्यमान हैं, चाहे वे तुम्हारी रुचि के अनुकूल
हों या प्रतिकूल।
ये सब द्वंद्वात्मक तत्व तुम्हारे अंदर परस्पर आबद्ध रहते हैं। इनमें अभीष्ट-अनभीष्ट,
रुचिपूर्ण-अरुचिपूर्ण, उपादेय-हेय सभी प्रकार के द्वंद्व विद्यमान रहते हैं। ये द्वंद्व तुम्हारे
अंतर में प्रकाश और छाया के युगल रूप में एकसाथ निवास करते हैं।
जब छाया विलुप्त होती है तब छायानुगामी प्रकाश ही छाया बन जाता है, परानुवर्ती
प्रकाश के लिए।
इसी प्रकार तुम्हारी स्वतंत्रता जब अपनी शृंखलाओं को शिथिल कर देती है तब
अपनी परानुवर्ती बृहत् स्वतंत्रता की शृंखला बन जाती है।
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