(1)
नील चीर मण्डित ओ, सहजहिँ अहाँक नीलम कान्ति
दमन हेतु उठबथि हर ओ, व्रत अहँक अहिंसा-शान्ति
यमुना जल कर्षथि कोपे, अहँ दये नहरिसँ पानि
दुर्योधन-संगी ओ, चलइत अहाँ धर्महिक बानि
ओम्हर मंदिर कादम्बरी, एम्हर कादम्बिनि रस-कूप
कृष्ण-सहोदर ओ छथि, सहजहिँ कृष्णे अहँक स्वरूप
हुनक रेवती प्रिया हन्त! भदवा धरि बारलि एक
आर्द्रां सँ स्वाती धरि अनुगामिनी अहाँक अनेक
छी युग-युगक अहाँ हलधर, ओ छला द्वापरक अन्त
तुलना अहँक कतयसँ पौता, लागल एक 'परन्तु'—
ओ बलराम स्वयं, अहाँक छथि निर्बल केर बल राम
इन्द्र-प्रस्थ धरि हुनक हुकूमति, खेतहु अहाँ गुलाम
(2)
जखन अकाल-ग्रस्त जन, जोतय यज्ञ-वाट, हर लेल
सीता उपजा आनि अपन घर जनक जगमगा देल
काल-अकाल नियमसँ चलबी खेत-खेत हर नित्य
घर-घर अन्नपूर्णा बाँटब धन्य अहँक अछि कृत्य
त्रेता केर हलधर भोगक सङ योग कयल निर्वाह
किन्तु अहँक स्वपनहु न भोगमे हे! योगी हरवाह!
समता अहँक कतयसँ करता जनकपुरक श्रीमान्?
किन्तु विदेह वैह कहबै छथि, माटिक अहाँ किसान!
धरती-सुत! अही क कवितासँ हरित-भरित संसार
गढ़ि आखर दस-पाँच धन्य कवि, कहबी अहाँ गमार!
जे अणु गढ़ि, विध्वस्त करथि जग, धन्य हुनक विज्ञान!
कण-कण आविष्कार जीव-हित अहि क तिरस्कृत ज्ञान!
भूमि-फलक पर दूर क्षितिज धरि शस्यक चित्र महान!
हल-तूली अछि सफल अहँक हे कलाकार! रुचिमान!
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 34)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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