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सुनो नंदी शंकर से कहना

suno nandi shankar se kahna

उद्भव सिंह शांडिल्य

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उद्भव सिंह शांडिल्य

सुनो नंदी शंकर से कहना

उद्भव सिंह शांडिल्य

और अधिकउद्भव सिंह शांडिल्य

    कैलाश का श्वेत हिम, सूर्य के अनश्वर प्रकाश में

    लाली बिखेरता है ऐसे, जैसे यज्ञ का यज्ञानल है

    श्याम शिलखंड पर तुम्हारा आसन देखता हूँ तो

    जान पाता हूँ कि प्रकृति कितनी सहज सरल है

    श्याम श्वेत के मध्य संतुलन ही जीवन पर्याय है

    देखो यह प्रकृति-पुरूष के, लोकतंत्र का न्याय है

    किंतु कलिकाल में मानव ने सब तोड़ दिया है

    पर से स्वयं भावना को ला, धारा भी मोड़ दिया है

    नंदी कहना कि प्रभु गंगा का, पथ विभ्रम हो चुका

    कहना काशीवास का चैतन्य अब खो चुका

    कह देना वरूणा तो तिल-तिल कर मर चुकी

    कहना यमुना अपना सौंदर्य कब का खो चुकी

    कहना कि प्रभु कपर्द के गाँठ को जोर कस लें

    कहना जग रो रहा भलें ही कुछ लोग हँस लें

    कहना कि टिहरी में गंगा बँधकर है रो रही

    कहना इंद्रप्रस्थ में अब अगम अर्कजा नहीं रही

    कहना धतूरे अब अपने भाग्य पर सिसकते हैं

    कह देना कि बेल वृक्ष भी अब कहाँ फलते हैं?

    शंकर के सर्वेभ्य का दर्शन आज कहीं गौण है

    पूछना प्रभु से नंदी वे आज भला क्यों मौन हैं?

    परशुराम के कुठार में भी जंग कैसी लग गई है

    अब तो आवो प्रभु! देखो पार्वती भी तप गई है

    माना लेते हो तुम परीक्षा धैर्य के परिसीमन की

    किंतु यहाँ तो प्राण निकलने ही वाला है तन की

    क्यों सबों के अस्तित्व पर गहराया संकट है?

    मानव मानव को मार रहा, प्रश्न ये तो विकट है

    सघन अँधियारा छाया है, हो गई बुद्धि भ्रष्ट है

    प्रभुधरा लोक गमन करें, बस कष्ट ही कष्ट है

    स्रोत :
    • रचनाकार : उद्भव सिंह शांडिल्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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